– राकेश अचल
भारतीय लोकतंत्र सबसे पुराना है। पुरानी हैं इसकी रिवायतें, लेकिन इसी लोकतंत्र की रक्षा के लिए बनी हमारी संसद आजकल चल नहीं पा रही। लोकसभा अध्यक्ष हों या राज्यसभा अध्यक्ष वे अपने-अपने सदनों को सुचारु रूप से चलाने में नाकाम साबित हुए हैं। सरकार और विपक्ष के बीच का गतिरोध है कि टूटने का नाम ही नहीं ले रहा। देश की राजधानी दिल्ली प्रदूषण की चपेट में है और देश की संसद हंगामे में डूबी है। संसद को हंगामे से उबारने की कोई गंभीर कोशिश नजर नहीं आ रही। संसद को देखकर लगता है कि ‘नौ दिन चले अढाई कोस’ वाली कहावत शायद इसके लिए ही बनी है।
आपको याद है कि संसद के शीतकालीन सत्र की शुरुआत 25 नवंबर को हुई थी। दोनों सदनों में चार दिन में सदन की कार्रवाई सिर्फ 40 मिनट चली। हर दिन औसतन दोनों सदन (लोकसभा और राज्यसभा) में करीब 10-10 मिनट तक कामकाज हुआ। अब संसद 2 दिसंबर के बाद ही बैठेगी। लोकसभा और राज्यसभा में विपक्ष ने अडाणी और संभल मुद्दा उठाया। विपक्षी सांसद कार्रवाइ के दौरान लगातार हंगामा करते रहे। स्पीकर ने कई बार उन्हें बिठाने की कोशिश की, मगर विपक्ष शांत नहीं हुआ।
लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने कहा- सहमति-असहमति लोकतंत्र की ताकत है। मैं आशा करता हूं सभी सदस्य सदन को चलने देंगे। देश की जनता संसद के बारे में चिंता व्यक्त कर रही है। सदन सबका है, देश चाहता है संसद चले। लेकिन संसद नहीं चली और लोकसभा के साथ ही राज्यसभा की कार्रवाई सोमवार 2 दिसंबर तक स्थगित कर दी गई। बिरला साहब ने सदन चलाने कि लिए क्या कोशिश की ये किसी को नहीं पता, क्योंकि उन्होंने शायद कोई कोशिश की ही नहीं। की होती तो उसका कुछ न कुछ नतीजा जरूर निकलता। वे सदन चलने से ज्यादा सदन की कार्रवाई स्थगित करने में दक्ष दिखाई देते हैं। यही बात राज्यसभा में धनकड पर लागू होती है।
मुझे लगता है कि संसद हंगामें की वजह से नहीं बल्कि सत्तापक्ष की वजह से नहीं चल रहा। सत्तापक्ष संसद को चलाना ही नहीं चाहता, यदि सत्तापक्ष की मंशा संसद को चलाने की होती तो सत्तापक्ष दरियादिली दिखाता और विपक्ष जिन मुद्दों पर बहस की मांग कर रहा है, उन सभी मुद्दों पर बहस करता, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। विपक्ष के सामने सत्ता पक्ष का टेसू अडकर खडा हुआ है। टेसू को कोई समझा-बुझा नहीं पा रहा। सदन चलाने के लिए जिम्मेदार लोग कायदे-कानून से ज्यादा अपनी प्रतिष्ठा को लेकर अडे हुए हैं, अन्यथा सदन का संचालन करने वाले चाहें तो सदन चल सकता है।
दुर्भाग्य ये है कि संसद का संचालन पीठासीन अधिकारियों के विवेक से नहीं बल्कि सत्तापक्ष के निर्देशों चालने की कोशिश की जा रही है और यही समस्या की असल जड है। संसद जब तक सत्तापक्ष की कठपुतली बनी रहेगी, तब तक इसे चलाना नामुमकिन है। सत्ता पक्ष को अपनी हठधर्मी आज नहीं तो कल छोडना पडेगी। सवाल ये है कि विपक्ष द्वारा उठाए जाने वाले मुद्दों पर बातचीत करने से कौन सा पहाड टूटने वाला है?
लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने बुधवार को संसद के बाहर कहा था कि अडाणी पर अमेरिका में 2 हजार करोड की रिश्वत देने का आरोप है। उन्हें जेल में होना चाहिए। मोदी सरकार उन्हें बचा रही है। तो राहुल के इस आरोप पर सरकार को सदन में जबाब देने में क्या परेशानी है? आखिर सरकार ने सदन से बाहर इस मामले में अपना पक्ष सार्वजनिक किया ही है न? मोदी सरकार ने शुक्रवार को इस मामले को लेकर सदन के बाहर सफाई देते हुए कि अमेरिका द्वारा अभी तक किसी तरह का अनुरोध नहीं किया गया है। सरकार के विदेश मंत्रालय ने कहा कि अडाणी ग्रुप की कंपनियों के खिलाफ अमेरिका की कार्रवाई में सरकार की किसी भी तरह की कोई भूमिका नहीं है। यही सब तो सरकार को संसद के भीतर कहना है, लेकिन सरकार ऐसा नहीं कह रही, क्योंकि इसकी मांग विपक्ष ने की है।
दुर्भाग्य की बात ये है कि सदन के नेता प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी को जो सदन में कहना है वो सब वे आम सभाओं में कह रहे हैं। प्रधानमंत्री का ये आचरण उनकी अहमन्यता का प्रतीक है। वे सदन के चलते विवादित मुद्दों पर सदन के बाहे बोलकर सदन की अवमानना कर रहे हैं, लेकिन उन्हें समझाए कौन? सदन के पीठासीन अधिकारियों में से किसी में इतना नैतिक या कानूनी साहस नहीं है कि वो प्रधानमंत्री को सदन में विवादित मुद्दों पर बोलने के लिए कहे। कभी-कभी लगता है कि सदन के अध्यक्ष सदन के प्रति नहीं बल्कि सरकार के प्रति निष्ठावान हैं। अन्यथा सदन में स्पीकर के लिए चाहे प्रधानमंत्री हो या एक सामान्य सांसद सब बराबर हैं। हैरानी की बात ये है कि संसद को लेकर सभी पक्षों का आचरण एक जैसा है। इधर संसद स्थगित होती है उधर प्रधानमंत्री हों या विपक्ष के नेता आम सभाएं करने निकल पडते हैं और उन्हें जो बातें सदन में करना चाहिए वे ही बातें वे आमसभाओं में करते हैं। प्रधानमंत्री जी भुवनेश्वर में गरज रहे हैं तो राहुल गांधी वायनाड में।
राज्यसभा में विपक्षी सांसदों की लगातार नारेबाजी के बीच सभापति जगदीप धनखड ने कहा, इसे जायज नहीं ठहराया जा सकता। हम बहुत खराब मिसाल कायम कर रहे हैं। हमारे काम जनता-केन्द्रित नहीं हैं। हम अप्रासंगिकता की ओर बढ रहे हैं। गनीमत ये है कि अभी धनकड केवल सदन की कार्रवाई स्थगित कर रहे है। अभी उन्होंने किसी सदस्य को डाटा-फटकारा या निलंबित नहीं किया है, अन्यथा वे जब चाहे तब ऐसा कर सकते हैं। यही हाल लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला का है। वे सदस्यों की आंखों में आंखें डालकर बात करने के बजाय दिशा निर्देशों के लिए सत्तापक्ष की और कनखियों से ताकते नजर आते हैं। और शायद यह वजह है कि राज्यसभा में सभापति जगदीप धनखड और विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खडगे धनखड को लाजबाब कर देते हैं। धनकड ने खडगे से कहा कि हमारे संविधान को 75 साल पूरे हो रहे हैं। उम्मीद है आप इसकी मर्यादा रखेंगे। इस पर खडगे ने जवाब दिया कि इन 75 सालों में मेरा योगदान भी 54 साल का है, तो आप मुझे मत सिखाइए।
आपको बता दें कि संसद की कार्रवाई पर प्रति घण्टे डेढ करोड रुपया खर्च होता है, लेकिन ये पैसा जनधन है इसलिए किसी को इसकी बर्बादी की फिक्र नहीं है। संसद के सामने शीतकालीन सत्र के दौरान कुल 16 विधेयक पेश किए जाने हैं। इनमें से 11 विधेयक चर्चा के लिए रखे जाएंगे। जबकि 5 कानून बनने के लिए मंजूरी के लिए रखे जाएंगे। ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ के लिए प्रस्तावित विधेयकों का सेट अभी सूची का हिस्सा नहीं है, हालांकि कुछ रिपोर्ट्स में कहा गया है कि सरकार इसे सत्र में ला सकती है। लोकसभा से पारित एक अतिरिक्त विधेयक भारतीय वायुयान विधेयक राज्यसभा में मंजूरी के लिए लंबित है। लेकिन ये सब काम तो तब निबटे जब सदन में हंगामा बंद हो। सरकार तो लगता है की ये सब काम सदन में आखरी दिन ध्वनिमत से करा ही लेगी, उसे जनमत की फिक्र न पहले थी और न आगे होगी।