ईश्वर ही असली सम्राट, संपूर्ण ब्रह्माण्ड पर उनका शासन है: शंकराचार्य जी

ग्राम परा स्थित अमन आश्रम में चल रही है श्रीमद् भागवत कथा

भिण्ड, 11 अक्टूबर। अटेर रोड स्थित अमन आश्रम परा भिण्ड में श्रीमद् भागवत सप्ताह ज्ञान यज्ञ में श्री काशीधर्मपीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी नारायणानंद तीर्थ जी महाराज ने कहा कि जो सभी को खुश रखें वही राजा हैं, जैसे माता-पिता अपने बच्चों का ध्यान रखते हंै। ईश्वर ही असली सम्राट है, संपूर्ण ब्रह्माण्ड पर उनका शासन है। धन्य है वह राजा जो नीति से डिगता नहीं, धन्य है वो विप्र जो अपने धर्म का परित्याग नहीं करता। इस जगत के रक्षणार्थ ईश्वर ने राजा को बनाया है, तपस्या के बिन तेज नहीं होगा और तेज के बिना संसार का रक्षण नहीं हो सकता। तपस्या के बल पर ही अभीष्ट की पूर्ति की जा सकती है। सभी सूर्य की भांति तेजस्वी बनो, जो राजा अज्ञान में अपनी प्रजा को सताता है वह अधोगति को प्राप्त होता है।
महाराजश्री ने बताया कि स्वार्थ भाव एवं संकीर्णता से ऊपर उठकर परमात्म भाव एवं उदारता से निष्काम कर्म करना यज्ञ करना है। कर्म करने से कार्य दक्षता आती है तथा आत्मविश्वास बढ़ता है। उन्होंने कहा कि अंहकार से प्रेरित होकर तथा अंहकार की संतुष्टि के लिए दान आदि शुभ कर्म करना भी दोष उत्पन्न करता है। दूसरों को प्रसन्न करने के लिए अथवा लोकप्रियता के प्रलोभन से उत्तम कर्म करना भी मनुष्य का अध:पतन कर देता है। अहंकार युक्त मनुष्य दूसरों के प्रति कभी सच्ची सद्भावना नहीं रख सकता उसे शांति प्राप्त नहीं हो सकती। अंहकार से कर्म में प्रवृत्त होने पर कर्म दूषित हो जाता है। लोकप्रियता एवं सम्मान की कामना द्वारा विकृत अहंकार से घृणा उत्पन्न होती है तथा कामना तृप्ति में विघ्न होने पर घृणा का क्रोध के रूप में विस्फोट हो जाता है। घृणा तथा ईष्र्या-द्वेष मन को विषाक्त बनाकर मनुष्य का पतन कर देते हैं। घृणा तथा ईष्र्या-द्वेष मनुष्य को असहनशील बना देते हैं। घृणाशील मनुष्य संकीर्ण होता है तथा लोग उससे बैर करने लगते हैं। घृणा मनुष्य को जनमानस से दूर कर देती है।
शंकराचार्य जी ने कहा कि हमें सब लोग जानें और हमें आदर दें, यह कामना क्लेशप्रद होती है। सबको प्रसन्न रखने तथा सबसे आदर पाने की कामना मनुष्य को सन्मार्ग से विचलित कर देती है। लोकप्रियता की कामना कर्मयोगी के मार्ग में बाधक होती है। संसार में कोई सबको प्रसन्न नहीं कर सकता। संसार में किसी की प्रतिष्ठा सदैव सुरक्षित नहीं रहती तथा सत्कर्म करने पर भी ईष्र्यालुजन उसे धूमिल करने में सचेष्ट रहते हैं। कर्मयोगी अहंकार वश कदापि किसी का विरोध नहीं करता, वह मान-अपमान के कुचक्र में नहीं फंसता तथा व्यक्तिगत अपमान सह कर भी उत्तम लक्ष्य की पूर्ति में जुटा रहता है। कर्मयोगी सरल, सात्विक और सहनशील होता है। अंतोगत्वा सत्य की जय होती है और संसार की निंदा एवं कटु आलोचना ही सत्यवादी कर्मयोगी के ध्रुव यश का आधार एवं हेतु बन जाती है।
उन्होंने कहा कि यह विचार छोड़कर कि दूसरे अपना कर्तव्य कर रहे हैं या नहीं, मनुष्य को सदैव अपना कर्तव्य करते रहना चाहिए, क्योंकि स्वधर्म पालन में ही अपना कल्याण सन्निहित होता है। उत्तम पुरूष कर्तव्य पालन के अपने उदाहरण से दूसरों को कर्तव्य पालन करने की प्रेरणा देते हैं। अपने उदाहरण से दूसरों को स्वधर्म के लिए प्रेरित करना परम पुण्य होता है। कार्यक्रम का आयोजन नारायण सेवा समिति द्वारा किया जा रहा है। जिसमें समिति के समस्त पदाधिकारीगण एवं अन्यान्य भक्तों ने महाराजश्री को माल्यार्पण कर आशीर्वाद प्राप्त किया।