मन्दिर-मन्दिर खेल रहे हैं जग वाले

– राकेश अचल


हमारे एक पुराने बजरंगी भाई हैं जयभान सिंह पवैया। कहते हैं कि राम मन्दिर की लडाई आजादी की लडाई से भी बडी लडाई है। जयभान को आजादी की लडाई का भान नहीं है, लेकिन उनके पुरखों को शायद होगा। नहीं भी हो सकता, क्योंकि उनके नागपुरवंशी तो कभी आजादी की लडाई लडे नहीं। उन्होंने तो केवल राम मन्दिर की लडाई लडी है, इसलिए मुमकिन है कि वे दोनों के बीच का फर्क नहीं जानते। बहरहाल देश में आज-कल एक बडी आबादी और उसके नेता मन्दिर-मन्दिर खेल रहे हैं और बांकी के लोग उसे झेल रहे हैं।
रामलला का मन्दिर भले ही आधा-अधूरा है, लेकिन उसका इस्तेमाल सियासत के लिए पूरा-पूरा किया जा रहा है। आजादी की लडाई में कोई मन्दिर नहीं था, तब गुलामी की बेडियों में जकडी भारत माता थी। तब भारत माता की गुलामी को खेल नहीं बनाया गया था। भारत माता की आजादी के आंदोलन में कामयाबी के बाद किसी चम्पत राय ने देश की जनता को आजादी के जश्न में शामिल होने के निमंत्रण नहीं बांटे थे, किसी से किसी ने ये भी नहीं कहा था कि जश्न में शामिल होइए या न होइए। किसी ने इस जश्न के लिए पीले चावल भी नहीं बांटे थे। इसकी जरूरत ही नहीं थी। आजादी के जश्न और रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में जमीन-आसमान का अंतर है, लेकिन दुर्भाग्य आज के नेता और भक्त मण्डल इस भेद को समझना नहीं चाहते।
रामलला भी हैरान होंगे कि उन्हें, उन्हीं के भक्तों ने एक तलवार की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। जो इस राजनीतिक जलसे में शामिल न हो, जो इस जलसे की धार्मिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाए उसे राम का बैरी घोषित किया जा रहा है। ये अधिकार रामभक्तों को किसने दिया है? आगामी 22 जनवरी 2024 देश के इतिहास में वैसे ही एक ऐतिहासिक दिन होगा जैसे कि छह दिसंबर 1992 का था। एक तारीख में अध बने मन्दिर में रामलला के नए विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा की जा रही है और एक तारीख में यहां बनी एक इमारत को ध्वस्त किया गया था। जिस इमारत को ध्वस्त किया गया था उसमें कोई विग्रह नहीं था। रामभक्त इसे 500 साल की लडाई का विजय घोष बता रहे हैं, जबकि राम तो हजारों साल से अजेय हैं। उनके मन्दिरों को बडी से बडी राज सत्ताएं नहीं मिटा सकीं, क्योंकि वे असंख्य भारतीयों के मन में रहते हैं। वे हिन्दुओं के भी राम हैं, वे मुसलमानों के भी राम है। यदि न होते तो मुस्लिम रचनाकार उनके भक्त कैसे होते?
बहरहाल बात मन्दिर को तलवार बनाने की है, बात मन्दिर की तलवार से अपने राजनीतिक विरोधियों का खात्मा करने की है। देश के चारों शंकराचार्यों ने रामलला के विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा समारोह को सियासी जलसा बनाने का विरोध करते हुए समारोह के बहिष्कार का ऐलान किया तो भाजपा की ‘ट्रोल आर्मी’ उन चारों कि पीछे लग गई है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे और श्रीमती सोनिया गांधी ने प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में आने से इंकार किया तो इन्हें सनातन विरोधी घोषित कर दिया गया। राम के ठेकेदार भूल गए कि श्रीमती सोनिया गांधी के पति और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी कि हस्तक्षेप से ही रामलला के पुराने मन्दिर के दरवाजे पूजा-अर्चना के लिए खोले गए थे, तब कोई भाजपाई मैदान में न था।
बहरहाल पूरे देश में, विदेश में राम के भक्त इस बात से मुतमईन हैं कि अयोध्या में राम मन्दिर बन गया। लोग खुश हैं कि अयोध्या नया धार्मिक पर्यटन स्थल बन गया है। लोग खुश हैं कि वहां अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा बिना मांगे बन गया है, हालांकि वहां कोई पुष्पक उतरने वाला नहीं है। लेकिन लोग इस बात से दुखी भी हैं कि रामलला को एक राजनीतिक दल ने, एक तथाकथित सांस्कृतिक संगठन ने बंधुआ बना लिया है। नवनिर्मित राम मन्दिर के बारे में संघ के प्रचारक रह चुके कोई चम्पत राय कहते हैं कि राम मन्दिर तो रामानंदी संप्रदाय का है, तो प्रश्न उठता है कि प्राण-प्रतिष्ठा समारोह कि निमंत्रण पत्र चम्पत राय क्यों बांट रहे हैं? वे कौन हैं? वे क्या रामानंदी संप्रदाय के शीर्ष गुरू हैं? शंकराचार्य हैं? शायद नहीं है। वे संघ, भाजपा की एक कठपुतली हैं, उन्हें जैसा संघ और भाजपा चाहती है वैसा नचा लेती है। कायदे से उन्हें अब मन्दिर से बाहर आ जाना चाहिए।
लोग अयोध्या में तब से आ-जा रहे हैं, जब देश में न कोई विश्व हिन्दू परिषद थी, न कोई आरएसएस था और न कोई भाजपा था। अयोध्या त्रेता में थी और आज भी है और कल भी रहेगी। लोग पहले की तरह यहां कल भी आएंगे, उन्हें अयोध्या आने के लिए किसी के पीले चावलों की जरूरत नहीं है। पीले चावल बांटने वाले रामजी के अभिभावक नहीं है। वे रामजी के सेवक हो सकते हैं, भक्त हो सकते हैं, अनुयायी हो सकते हैं, किन्तु ये अधिकार रामजी ने किसी को नहीं दिया कि कोई उनके असंख्य भक्तों को पीले चावल देकर अयोध्या आने को कहे। रामजी को पता है कि पीले चावल देकर कौन, क्या उल्लू सीधा करना चाहता है? रामजी को उनका मन्दिर बनाकर देने का अहसान थोपने की कोशिश करने वाले बेंत के पेड की तरह हैं। उनके हृदय में नफरत के साथ मूर्खता भरी हुई है, और गोस्वामी तुलसी दासजी कह गए हैं कि मूर्ख हृदय न चेत, जो गुरू मिलहि विरंच सम, फूलहि-फरहिं न बेंत, जदपि सुधा बरसहिं जलद।
रामलला का भव्य-दिव्य मन्दिर कलियुग का एक नायब शाहकार होगा, लेकिन इसकी नींव में देशभर के दो हजार से अधिक लोगों के रक्तकण भी समाहित होंगे। भाजपा इन दिवंगतों को भी शहीद कहेगी, लेकिन मैं इन्हें निर्दोषों का वध मानता हूं। जो एक उन्माद में मारे गए। पुलिस की गोली से मारे गए या नफरत की आग में जलकर मारे गए। उन्हें श्रृद्धांजलि दी जाना चाहिए, क्योंकि उन्हें एक ऐसी लडाई में शहादत देने को उकसाया गया जिसके पक्ष में शायद भगवान राम कभी नहीं रहे होंगे। राम को मन्दिर की जरूरत थी ही नहीं, वे तो उनके मन मन्दिर में पहले से बसे हुए हैं, जो बाल्मीक और तुलसीदास ने अपने ग्रंथों में उल्लेखित किए हैं। एक चौपाई मुझे भी याद है- निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी॥ तिन्ह कें हृदय सदन सुखदायक। बसहु बंधु सिय सह रघुनाय।।
कुल जमा सार ये है कि जो पीले चावल लेकर भी 22 जनवरी को अयोध्या जाने से रोके जा रहे हैं उन्हें हकीकत समझना चाहिए। इन पीले चावलों के जरिये उन्हें रामलला नहीं, नरेन्द्र मोदी और अमित शाह बुला रहे हैं। ताकि आप उनका अहसान मानें और आगामी लोकसभा चुनाव में रामजी के नाम पर उन्हें वोट देकर तीसरी बार सत्ता में वापस ले आएं, क्योंकि इस समय उनकी जमीन खिसकी हुई है। राजनीति में साम-दाम, दण्ड और भेद का इस्तेमाल करके भी वे देश की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे हैं और जबरन शंकराचार्यों से भी बडे जगदगुरू बनना चाहते हैं। जय सिया-राम, सीता-राम।