राम राज में गणराज्यों की फिक्र कौन करे?

– राकेश अचल


भारत में राम राज आ ही रहा है। राम राज की कल्पना भाजपा की नहीं, बल्कि महात्मा गांधी की है, जिन्हें नाथूराम गौडसे से मार डाला था। उसी राम राज में जबरन 22 जनवरी को दिल्ली की जामा मस्जिद की सीढियों पर भाजपा दिए जलाकर जश्न मनाएगी। राम राज में शायद ऐसा ही होता होगा की दूसरे धर्म के लोगों को जबरन व्यथित किया जाए, लेकिन कोई क्या कर सकता है? राम राज में सब कुछ राम भरोसे चलता है। संविधान रामजी का होता है। भाजपा वाले तो केवल राम के चाकर होते हैं। दरअसल मुझे राम राज के आने की खुशी से ज्यादा उस गणराज्य की चिंता है जो 15 अगस्त 1947 में गठित किया गया था। उस समय भाजपा कहीं नहीं थी। इसीलिए शायद उसे गणराज्य भारत से ज्यादा प्रिय और आकर्षक राम राज लग रहा है।
भाजपा का राम राज 22 जनवरी को अयोध्या में नवनिर्मित भव्य-दिव्य मन्दिर में रामलला की प्रतिमा स्थापना के साथ आना शुरू होगा। हालांकि इस राम राज में देश के आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित पीठों के चारों शंकराचार्य नहीं होंगे। चारों शंकराचार्यों ने अयोध्या में 22 जनवरी को होने जा रहे कथित अधर्म के खिलाफ एकजुटता तो दिखाई, लेकिन वो सांकेतिक होकर रह गई, इसलिए भाजपा एवं उसकी सरकार को इसकी कोई फिक्र नहीं है। भाजपा के लिए शंकराचार्यों का रूठना न कोई बडी बात है और न अपशकुन। भाजपा जानती है कि चरों शंकराचार्य मिलकर भी उसका कुछ नहीं बिगाड सकते। क्योंकि शंकराचार्यों के पास एक धर्मदण्ड के अलावा है क्या? असली राजदण्ड यानि सेगोल तो सरकार के पास है। देश धर्मदण्ड से नहीं राजदण्ड से चलता है, ऐसी भाजपाई धारणा है। भाजपा को पता है कि मीडिया उसके पास है, शंकराचार्यों के पास नहीं। भाजपा जानती है कि धर्म के असल ठेकेदार शंकराचार्यों की हैसियत पश्चिम के पोप जैसी नहीं है, जो उनके अपमान को देश अपने धर्मगुरुओं का अपमान माने।
इस मामले में मैं हकीकत बयान कर रहा हूं। मेरे मन में चारों शंकराचार्यों के प्रति जितना अधिक सम्मान है उससे कहीं ज्यादा उनके लिए चिंता भी है, क्योंकि वे राजहठ के सामने अपमानित किए जा रहे हैं। मैं जाति तौर पर भाजपा या किसी अन्य राजनीतिक दल का ठेकेदार नहीं मानता। मेरी धारणा है कि धर्म ध्वजाएं उठाने का नैसर्गिक जिम्मा शंकराचार्यों के ऊपर है। यदि सरकार उनकी अनदेखी करती है तो मानकर चलिए कि वो पूरे सनातन धर्म की न सिर्फ अवमानना कर रही है, बल्कि सभी का अपमान भी कर रही है। ये दुनिया जानती है कि कलियुग में राजसत्ता के आगे धर्म की सत्ता का कोई मोल नहीं है। कोई हैसियत नहीं है। धर्म का इस्तेमाल करने का हुनर भी धर्माचार्यों को भाजपा की तरह नहीं आता। ऐसे में या तो शंकराचार्य मौन होकर अपना अपमान सहें या फिर अपने धर्म ध्वजाएं उठाकर देशभर में जन-जागरण के लिए निकल पडें। तय है कि उनकी यात्राओं को राहुल गांधी की भारत जोडो न्याय यात्रा की तरह सत्ता पक्ष महत्व नहीं देगा।
मुझे हैरानी ये देखकर है कि भारत कैसा धर्मचेता देश है, जिसमें उनके धर्म के सर्वोच्च पदों पर आसीन धर्म गुरुओं का अपमान किया जा रहा है? क्या राम राज में भी ऐसा ही होता था? कम से कम मैंने तो नहीं पढा। राम राज में तो राम के पिता अपने राज गुरू को अपना जीवन तक देने के लिए तैयार दिखाई देते हैं। बहरहाल आज इस बहस में पडने का कोई मतलब नहीं है कि चारों शंकराचार्यों की गैर मौजूदगी में होने वाले प्राण-प्रतिष्ठा समारोह से प्राण-प्रतिष्ठा पर कोई असर पडेगा? रामलला क्या कोई और भी जिद्दी राजसत्ता को और उसके नेताओं को धर्मानुसार आचरण करने की सलाह नहीं दे सकता। किसी की इतनी हैसियत ही नहीं है। भाजपा ने रामलला को ठेके पर ले लिया है। अब शंकराचार्यों को भी यदि राम की जरूरत हो तो उन्हें भाजपा से विशेष प्रार्थना करना होगी, शंकराचार्य यदि अपना और अपने धर्म का अपमान महसूस करते हैं और उसका प्रतिकार करना चाहते हैं तो वे बिना थके निकल पडें देशभर में जन-जागरण के लिए। यदि उनके पास संसाधन नहीं हैं तो वे कांग्रेस की भारत जोडो न्याय यात्रा में भी शामिल होकर भी जन-जागरण कर सकते हैं।
इस समय भारत को जिस लोकतंत्र की जरूरत है उसमें एक दयावान, क्षमाशील और एक अध्येता विपक्ष भी शामिल है। इंडिया गठबंधन की तैयारियां अभी देश की जनता को बहुत आश्वस्त नहीं करती। अन्यथा इंडिया गठबंधन और शंकराचार्यों के लिए भाजपा को सत्ता प्रतिष्ठान से उतारने और देश में राम राज तथा भारतीय गणराज्य को स्थापित करने में कोई परेशानी भी नहीं है। भाजपा अभी अकेले दम पर लोकसभा की 303 पर खडी है। उसे होने वाले चुनाव में 400 सीटें पार करना है। इंडिया गंठबंधन यदि गठजोड कर न भी लडे तो भी अपने-अपने इलाकों में भाजपा का मुकाबला कर सकता है। भाजपा के पास हिन्दी पट्टी में ही असल सम्पदा है, इसलिए लोकसभा चुनाव में असल लडाई इसी हिन्दी पट्टी में होना है। दक्षिण, पूरब में नहीं। भाजपा को अब खोना ही खोना है, पाना नहीं। हालांकि अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल बनाए रखने के लिए इस बार 400 पार का नारा दिए हैं।
ये चुनाव देश में गणराज्य के साथ ही क्षेत्रीय दलों के राजनीतिक अस्तित्व का भी भविष्य करेंगे। इन चुनावों में कांग्रेस का तो कुछ बिगडना नहीं है। असल संकट तो भाजपा और उसके गठबंधन के सामने है। यदि राम की कृपा न हुई और मशीनें बगावत कर गईं तो नतीजे कुछ भी गुल खिला सकते हैं। ये चुनाव ये भी प्रमाणित करेंगे कि रामजी भाजपा की धर्म की दुकान का लाइसेंस किसी और को देना चाहते हैं या नहीं? भारत का चौमुखी विकास तभी हो सकता है जब देश में ऐसा रामराज कायम हो जो राज्यों की स्वायत्ता की रक्षा कर सके। ऐसा राम राज भारत के किसी काम का नहीं है जिसमें 20 करोड आबादी उपेक्षित और आतंकित महसूस करती हो। ऐसे रामराज का कोई मतलब नहीं जिसमें एक दल की ओर से एक वर्ग विशेष के एक भी प्रतिनिधि को लोकसभा या राज्यसभा में टिकिट न दिया जाए।