– राकेश अचल
देश में दशहरा पारम्परिक रूप से मनाया जाएगा, लेकिन जिन पांच राज्यों में सियासी लंका को जीतने के लिए घमासान हो रहा है वहां दिनों-दिन रोचकता बढती जा रही है। एक तरफ रथी हैं और दूसरी तरफ पैदल सेना। पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव से जुडी ये कहानी अपने आप त्रेता के राम-रावण युद्ध का रूप ले रही है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने तो कह ही दिया है कि वे कांग्रेस की लंका को जलाकर ही दम लेंगे। जाहिर है कि चौहान को आज भी कांग्रेस के पास सोने की लंका नजर आती है, जबकि कांग्रेस तीन साल पहले ही विभीषण ज्योतिरादित्य सिंधिया की वजह से अपनी लंका अपने हाथों ध्वस्त कर चुकी है।
खरीदे गए जनादेश को विधिक रूप देने के लिए विधानसभा चुनाव लड रही सत्तारूढ भाजपा ने पूरे प्रदेश में मानव रहित प्रचार रथों की फौज उतार दी है। ये रथ भाजपा सरकार की उपलब्धियों और योजनाओं के गीत और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण मतदाताओं को सुनाएंगे। भाजपा को इस तकनीक का सहारा मजबूरी में लेना पडा है, क्योंकि आज उसके पास ऐसे नेताओं और देवदुर्लभ कार्यकर्ताओं की भारी कमी है जिनकी बात मतदाता सुन सकें। भाजपा के तमाम प्रचारक नीरस और चुंबकत्वहीन हो चुके हैं एक ज्योतिरादित्य सिंधिया को छोडकर। वे पूरी भाजपा में भीड बटोरने वाले इकलौते नेता बचे हैं।
कार्यकर्ताओं के असंतोष से जूझ रही भाजपा के पास कांग्रेस की लंका जलाने के लिए 81 साल के जामवंत नागेन्द्र सिंह से लेकर 73 साल की माया मेम तो हैं, लेकिन युवा नेताओं और सेनापतियों का घोर अभाव है। अधिकांश इस संग्राम में शामिल होने का मौका न मिलने की वजह से नाराज होकर हाथी पर सवार हो गए हैं या उन्होंने भाजपा को ही साफ करने के लिए केजरीवाल के दल की झाडू थाम ली है। भाजपा की अयोध्या ग्वालियर से लेकर उज्जयनी तक यही हाल है। भाजपा के बागी सेनापति अब दूसरे दलों की सेनाओं के सेनापति या सिपाहसालार बन गए हैं। उन्हें कांग्रेस से ज्यादा भाजपा से हिसाब बराबर करना है।
भाजपा की नाव खे रहे शिवराज सिंह को कांग्रेस की लंका ढहाने के लिए खुद हनुमान बनने के लिए मजबूर होना पडा है। कांग्रेस ने तो एक फिल्मी हनुमान विक्रम मस्ताल को शिवराज सिंह के पीछे लगा दिया है। यानि मप्र की सियासत में राजनीतिक दलों के बीच नहीं सुरों और असुरों के बीएच संग्राम हो रहा है। मतदाताओं को तय करना है कि वे सुर किसे मानते हैं और असुर किसे? कांग्रेस में भी भाजपा की ही तरह सत्ता संग्राम को लेकर बगावत है और अच्छी-खासी बगावत है, लेकिन इस बगावत का लाभ भाजपा को तब मिलता जब ये तमाम कांग्रेसी बागी भाजपा के दलदल में शामिल होकर कमल की खेती कर रहे होते। कांग्रेस के बागी भी हाथी और झाडू के सहारे हैं। भाजपा तो अपने ही लोगों को टिकिट नहीं दे पाई, कांग्रेस के बागियों को कहां से टिकिट देती?
भाजपा की लंका जलाने के लिए हजारों किमी की पदयात्रा कर वानर-भालुओं की सेना जुटा रही कांग्रेस ने फिलहाल हिमाचल और कर्नाटक में तो मोर्चा फतह कर लिया, लेकिन वे असल दण्डकारण्य मप्र में भी विजयश्री हासिल कर सकेंगे, ये कहना आसान नहीं है। यहां घमासन होगा और खूब होगा। कौन, किसका शिखर ढहायेगा ये देखना सुरुचिपूर्ण होगा। कांग्रेस के पास रथ नहीं है। उसे ये जंग अपनी पैदल सेना के सहारे जीतना है। मप्र में भी और मप्र के लघु भ्राता छत्तीसगढ में भी। इन दोनों प्रांतों को जीतकर ही कांग्रेस भाजपा को खेत कर सकेगी। राजस्थान की मरुभूमि में भाजपा मप्र के उलट विपक्ष में है, किन्तु यहां भी उसके पास रथों की कमी नहीं है। रथों की कमी तो तेलंगाना में भी नहीं है, लेकिन रथ चलने के लिए कुशल साहनी भाजपा के पास भी नहीं हैं।
भाजपा मिजोरम की बात कर ही नहीं रहा, वहां लगता है कि न कांग्रेस की लंका है और न भाजपा की अयोध्या। आखिर जीता किसे जाए? मिजोरम में रथ चल नहीं सकता, पहाडी इलाका है। इस राज्य में कांग्रेस हो या भाजपा दोनों को पैदल सेनाओं के साथ ही उतरना पडेगा, हार-जीत के कयास लगना तो अभी दूर की कौडी है। दरअसल मिजोरम के बगल में मणिपुर है, जो पिछले छह माह से धडक रहा है और इसके लिए सत्तारूढ भाजपा को ही जिम्मेदार माना जाता है। कांग्रेस के साहनी राहुल गांधी तो हिम्मत कर मणिपुर हो भी आए, लेकिन भाजपा के किसी नेता की हिम्मत जब मणिपुर जाने की नहीं पडी तो वे मिजोरम कौन सा मुंह लेकर जाएंगे वोट मांगने?
मप्र में सोने की लंका ढहने के लिए भाजपा को कम से कम 120 मोर्चे जीतने होंगे और कांग्रेस को भी अपनी लंका बचने के लिए इतने ही मोर्चों पर भाजपा के तम्बू उखाडना होंंगे। पिछले संघर्ष में भाजपा लक्ष्य से पहले ही हार मानकर बैठ गई थी। मप्र के अलावा छत्तीसगढ, राजस्थान में तो भाजपा के लिए मोर्चा और ज्यादा दुरूह है, क्योंकि इन दोनों राज्यों में सत्ता कांग्रेस के पास है। तेलंगाना में भी कमोवेश यही दशा है। वहां भाजपा के लिए कोई खास गुंजाइश नहीं है। मिजोरम में तो कोई रमना ही कहां चाहता है? रणभेरियां बज रही हैं। दोनों पक्षों की सेनाएं अपने आपको निर्णायक युद्ध के लिए तैयार कर रही हैं। हम और आप दर्शक दीर्घा में बैठे तमाशा देख रहे हैं।