रणछोड हैं या रण छेड रही हैं तीन देवियां?

– राकेश अचल


नारीशक्ति वंदना के युग में मध्य प्रदेश भाजपा की महिला नेत्रियां विधानसभा चुनाव के रण से बाहर हो रही हैं या अपनी ही पार्टी के खिलाफ रण शुरू करने जा रही हैं? फिलहाल भाजपा की तीन नेत्रियां अलग-अलग कारणों से जेरे बहस हैं, ये एक ऐसा सवाल है जो पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती और मप्र सरकार की मंत्री श्रीमती यशोधरा राजे सिंधिया के विधानसभा चुनाव न लडने की घोषणा के बाद जन्मा है। मप्र भाजपा में एक तीसरी बडी नेत्री पूर्व लोकसभा अध्यक्ष श्रीमती सुमित्रा महाजन भी चुनावी रण से बाहर कर दी गई हैं।
सिंधिया घराने की महिला सदस्य श्रीमती यशोधरा राजे सिंधिया आरंभ से ही अपनी मां राजमाता विजयाराजे सिंधिया की राजनीतिक विरासत पर दावा करती आई हैं, लेकिन उन्हें भाजपा ने कभी राजमाता की लोकसभा सीट से लोकसभा में नहीं भेजा। उन्हें ग्वालियर सीट से जरूर लोकसभा का उपचुनाव लडाया गया था, लेकिन बाद में उन्हें विधानसभा के चुनावों तक सीमित कर दिया गया। 1994 में प्रदेश की राजनीति में आईं यशोधरा राजे सिंधिया अपनी बडी बहन श्रीमती बसुंधरा राजे की तरह भाग्यशाली नहीं है। उन्हें बीते तीन दशक में मप्र की सरकार में मंत्री बनने का सुख तो मिला, लेकिन मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब यदि इन्होंने देखा भी हो तो कभी पूरा नहीं हुआ।
यशोधरा राजे तीन दशक की अपनी राजनितिक यात्रा में पहले अपने भतीजे केन्द्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए समस्या रहीं। प्रदेश की सरकार ने भी उन्हें बेमन से झेला और जब ज्योतिरादित्य सिंधिया खुद भाजपा में आ गए तो उनकी पूछ-परख और कम हो गई। यशोधरा अपनी राजनीतिक विरासत अपने बेटे अक्षय को भी नहीं सौंप पाने से निराश है। यशोधरा राजे की तीन संताने बताई जाती हैं, लेकिन लोगों को केवल अक्षय के बारे में ही जानकारी है, क्योंकि शुरू में वे शिवपुरी आते-जाते थे। यशोधरा राजे के दूसरे बेटे अभिषेक और बेटी त्रिशला को कभी किसी ने देखा नहीं। वे दोनों शायद अमेरिका में ही रहते हैं और उनकी राजनीति में कोई दिलचस्पी भी नहीं है।
यशोधरा राजे सिंधिया ने स्वास्थ्य संबंधी कारणों से इस बार विधानसभा चुनाव न लडने का ऐलान किया, लेकिन राजनीति से औपचारिक सन्यास की घोषणा नहीं की। इसका मतलब वे या तो लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी बनाने के लिए आश्वस्त कर दी गई हैं या फिर उन्होंने पार्टी नेतृत्व का मूड भांप कर अपने आपको विधानसभा चुनाव से लग कर लिया है। पार्टी का भी धर्म संकट ये है कि वो एक ही परिवार से एक से ज्यादा लोगों को तवज्जो देता है तो उसके ऊपर परिवारवाद का आरोप लगता है। वैसे भी यशोधरा राजे सिंधिया पार्टी की न स्टार नेता हैं और न स्टार प्रचारक। वे एक विधानसभा सीट की नेता रही हैं। वे पार्टी के साथ रण छेडने की स्थिति में नहीं हैं, क्योंकि उनके आगे-पीछे कोई जनाधार भी नहीं है।
भाजपा में यशोधरा राजे सिंधिया से पहले पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती भी पार्टी नेतृत्व के फैसलों को लेकर नाराज हैं। उनकी आवाज लगातार अनसुनी की जा रही है और अब तो प्रहलाद पटेल को विधानसभा चुनाव मैदान में उतार कर पार्टी नेतृत्व ने उन्हें एक तरह से खारिज ही कर दिया है। उमा जी अब शायद लोधियों की भी नेता नहीं मानी जा रहीं। उमा भारती ने अपनी राजनितिक विरासत अपने भतीजे को सौंपने की कोशिश की। उसे विधायक भी बनाया। लेकिन बात ज्यादा आगे बढी नहीं, क्योंकि उन्हें पार्टी नेतृत्व का समर्थन नहीं मिल पाया। आज उमा भारती घायल सिंघनी की भांति दहाड रही हैं, लेकिन अब उनके पास इतनी ऊर्जा नहीं बची है कि वे भाजपा के मौजूदा नेतृत्व को ललकार कर एक बार फिर से भाजपा से बगावत कर सकें। हालांकि भाजपा ने उनके समर्थक प्रीतम लोधी को पिछोर विधानसभा सीट से टिकिट जरूर दे दिया है।
एक जमाने में ग्वालियर के रानी महल की कृपा और संरक्षण से राजनीति में आंधी की तरह आईं उमा भारती का अब रानी महल में भी कोई संरक्षक नहीं है। उनके मित्र संघ के पूर्व प्रचारक गोविन्दाचार्य भी आरसे पहले संघ और पार्टी से खारिज किए जा चुके हैं। ऐसे में उमा भारती अपने आपको भाजपा में असहज महसूस कर रही हैं। लेकिन उनके लिए पार्टी में न अब कोई घर है और न घाट। अर्थात उनकी दशा बंजारों जैसी हो गई है। अपने आचरण से वे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का विश्वास भी खो चुकी हैं, अन्यथा इस संकट के दौर में दोनों मिलकर कुछ खिचडी पका सकते थे। शिवराज सिंह चौहान भी पार्टी नेतृत्व की आंख की किरकिरी बनते नजर आ रहे हैं। पार्टी उनके चेहरे पर विधानसभा का चुनाव नहीं लड रही है। उनके विधानसभा चुनाव लडने और न लडने को लेकर अभी तक संशय है।
उमा भारती पांच बार संसद रहीं, चार बार केन्द्र में मंत्री रहीं, उन्होंने ही 2003 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को सत्ता में स्थापित कर दिखाया था और खुद मुख्यमंत्री बनीं। पार्टी ने उन्हें उत्तर प्रदेश से भी लोकसभा और विधानसभा चुनाव लडने को कहा, वो जितीं भी, लेकिन अब एक लम्बे अरसे से वे हासिये पर हैं। 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उमा भारती को गंगा सफाई के लिए मंत्री बनाया और न जाने कब उन्हें इसी गंगा में तिरोहित भी कर दिया। उमा भारती के साथी रहे नरेन्द्र सिंह तोमर आज भी चुनावी राजनीति में टिके हुए हैं, लेकिन उमा भारती का तम्बू उखड चुका है।
भाजपा में तीसरी शक्तिशाली नेता लोकसभा की पूर्व अध्यक्ष श्रीमती सुमित्रा महाजन उम्र के लिहाज से अब मार्गदर्शक मण्डल में शामिल कर दी गई हैं, लेकिन वे अभी भी अपने आपको चुनावी राजनीति के लायक मानती हैं। पार्षद से लोकसभा अध्यक्ष जैसे बडे पद तक पहुंची सुमित्रा महाजन की भी आत्मा अतृप्त है, क्योंकि अपनी लम्बी राजनीतिक पारी खेलने के बावजूद वे अपने बेटे मिलिंद को अपना राजनितिक उत्तराधिकार नहीं सौंप सकीं। यानि इस मामले में उनकी दशा भी उमा भारती और यशोधरा राजे जैसी ही है। सुमित्रा ताई के पुत्र मिलिंद महाराष्ट्रा ब्राह्मण सहकारी बैंक में गोलमाल के आरोपी हैं। अब भाजपा में उनके लिए कोई जगह नहीं बची है।
नारी शक्ति वंदन कानून बनने के बाद मप्र भाजपा की जिन भाजपा नेत्रियों को सम्मान मिलना चाहिए था वे तीनों अपमानित होकर राजनीति से विदा लेती दिखाई दे रही हैं या उन्हें राजनीति से जबरन विदा किया जा रहा है। अब भाजपा को अपनी नारी नेत्रियों की शक्ति की वंदना करने में लज्जा अनुभव हो रही है। लेकिन दुर्भाग्य ये है कि इन तीनों में से एक भी पार्टी नेतृत्व के खिलाफ रण छेडने की स्थिति में नहीं है। नेतृत्व के समाने आत्मसमर्पण करना ही इनकी नियति है। 2023 के विधानसभा चुनावों में भाजपा इन तीन देवियों के बाद किन्हें प्रतिष्ठित करता है, ये अभी तक स्पष्ट नहीं है। क्योंकि भाजपा ने अभी तक जितने भी प्रत्याशी घोषित किए हैं उनमने एक भी चर्चित महिला चेहरा नहीं है।