– राकेश अचल
चुनाव के मौसम में देश के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के दौरों पर राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की आपत्ति से महामहिम उपराष्ट्रपति जी तिलमिला गए हैं। वे गहलोत की आपत्ति को संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों की मर्यादा के खिलाफ मानते हैं। सचमुच ये विमर्श का विषय है कि चुनावी मौसम में क्या देश के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति अपने घरों पर नहीं बैठ सकते? ये सवाल भी जेरे बहस आना चाहिए कि क्या ये दोनों महानुभाव परोक्ष रूप से सत्तारूढ़ दल के लिए तो काम नहीं कर रहे?
ये बात किसी से छिपी नहीं है कि राष्ट्रपति हों या उपराष्ट्रपति पिछले कुछ महीनों से उन पांच राज्यों की लगातार यात्राएं कर रहे हैं जहां अगले महीनों में विधानसभाओं के चुनाव होना है। राष्ट्रपति श्रीमती द्रोपदी मुर्मु मध्य प्रदेश जा रहीं हैं तो उप राष्ट्रपति जयदीप धनकड़ राजस्थान। इन पांच राज्यों में महमहिमों के दौरों की वजह से राज्य सरकारों को अलग से इंतजाम करना पड़ते हैं। इसका असर राजनीतिक दलों के चुनाव प्रचार अभियान पर पड़ता है। राजस्थान के नीमराणा में एक चुनाव अभियान के दौरान सीएम अशोक गहलोत ने उपराष्ट्रपति की पांच जिलों की यात्रा पर आपत्ति जताई थी। उन्होंने कहा था, ऐसी यात्राओं से सभी प्रकार के संदेश जाएंगे, जो लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है।
राजस्थान में उपराष्ट्रपति के दौर इसलिए गहलोत को खलते हैं क्योंकि उपराष्ट्रपति जयदीप धनकड़ राजस्थान से ही हैं और उनके बार-बार राजस्थान जाने से न केवल सरकार की चुनावी तैयारियां प्रभावित होती हैं, बल्कि सत्तारूढ़ दल को राजनीतिक नुक्सान भी होता है, क्योंकि उपराष्ट्र्रपति परोक्ष रूप से जो बातें करते हैं वे सत्तारूढ़ दल के खिलाफ जाती हैं। एक राज्यपाल के रूप में धनकड़ जी अच्छे खासे बदनाम रहे हैं। उन्होंने बंगाल में अपने कार्यकाल के दौरान भाजपा के एजेंट के रूप में खुलकर काम किया था और उनकी खूब बदनामी भी हुई थी। लेकिन उन्होंने किसी आलोचना की फिक्र नहीं की। नतीजा उन्हें केन्द्र सरकार से ईनाम भी मिला और आज वे देश के उपराष्ट्रपति तथा राज्यसभा के पदेन सभापति भी हैं।
उपराष्ट्रपति पिछले दिनों मध्य प्रदेश भी गए। वहां भी विधानसभा के चुनाव है। मप्र में धनकड़ माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्विद्यालय के दीक्षांत समारोह में गए थे। इस समारोह में छात्रों और अतिथियों को जो पगड़ी पहनाई गई वो मारवाड़ी थी। कहा गया कि इस समारोह के जरिये मप्र में एक खास वर्ग को संकेतों में सत्तारूढ़ दल के लिए मनाया गया। हालांकि मैं ऐसा नहीं मानता कि मप्र में धनकड़ की मौजूदगी से चुनाव प्रभावित होंगे, लेकिन राजस्थान में ये आशंका सही साबित हो सकती है। हां पत्रकारिता के छात्रों को कूढ़ मगज बनाने की एक कोशिश जरूर यहां हुई। उसमें उपराष्ट्रपति जी की कोई भूमिका नहीं थी।
मप्र आदिवासी बहुल राज्य है, यहां आदिवासियों को साधने के लिए केन्द्र की सरकार बार-बार किसी न किसी कार्यक्रम के बहाने से राष्ट्रपति श्रीमती द्रोपदी मुर्मू को आमंत्रित कर रही है। ताकि मप्र के आदिवासियों के मन में ये बात बैठाई जा सके कि भाजपा ही एक ऐसा दल है जिसने एक आदिवासी को राष्ट्रपति जैसे सबसे बड़े पद पर बैठाया। राष्ट्रपति अपने मुंह से खुलकर भले ही भाजपा के लिए काम न करती दिखाई देती हों, लेकिन बांकी सबको ऐसा ही लगता है और ये हकीकत भी है। इससे आंखें नहीं फेरी जा सकती।
राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के पद राजनीति से ऊपर उठा देते हैं, किन्तु दुर्भाग्य है कि जो लोग इन पदों पर पहुंचते हैं वे राजनीति से ऊपर उठ ही नहीं पाते। कांग्रेस के जमाने में भी यही समस्या थी और आज भाजपा के राज में भी स्थितियां बदली नहीं हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि कांग्रेस के जमाने में महामहिम आज की तरह सत्तारूढ़ पार्टी के लिए काम नहीं करते थे। मप्र में राजस्थान की तरह सरकार की तरफ से राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के दौरों पर ऊंगली नहीं उठाई जा सकती, लेकिन राजस्थान ने तो उठा दी और मजे की बात ये कि तीर निशाने पर लगा। उपराष्ट्रपति जी अशोक गहलोत की आपत्ति से तिलमिला गए।
उपराष्ट्रपति ने कहा है कि कुछ लोग संवैधानिक संस्थाओं पर अमर्यादित टिप्पणी करते हैं, ऐसा करना अच्छी बात नहीं हैं। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा, ‘जो व्यक्ति जितने बड़े पद पर है, उसका आचरण भी उतना ही मर्यादित होना चाहिए। राजनीतिक फायदा उठाने के लिए कोई भी टिप्पणी करना अच्छी बात नहीं है।’ धनकड़ की प्रतिक्रिया एक तो जरूरी नहीं थी, ऊपर से उनकी प्रतिक्रिया में कोई वजन नहीं है। उनकी टीप ‘पर उपदेश, कुशल बहुतेरे’ जैसी है। वे भी एक मर्यादित पद पर हैं। बेहतर होता कि वे मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया पर मौन रहते। किसी को प्रतिक्रिया देना ही थी तो भाजपा के नेता देते। लेकिन उपराष्ट्रपति के मन में तो कमल के फूल खिलते ही हैं। वे भूल नहीं पा रहे कि उपराष्ट्रपति किसी पार्टी का नहीं बल्कि देश का होता है, इसलिए उसका आचरण किसी राज्य के मुख्यमंत्री के आचरण से ज्यादा मर्यादित होना चाहिए।
राजयसभा के सभापति के रूप में जयदीप धनकड़ के आचरण का मैं मुरीद हूं। वे मृदुभाषी हैं, उनके चेहरे से नूर टपकता है, उनके स्वर में वात्सल्य भी है, लेकिन उनके भीतर का भाजपा कार्यकर्ता नहीं सो पा रहा। धनकड़ मुझे लोकसभा अध्यक्ष के मुकाबले ज्यादा गंभीर और जानकार लागते हैं, किन्तु अशोक गहलोत की टीप के बाद उनका मुखर होना मुझे जंचा नहीं। मुमकिन है कि मैंने धनकड़ जी से कुछ ज्यादा ही उम्मीद लगा ली है, मुझे शायद ऐसा नहीं करना चाहिए था।
एक पत्रकार और लेखक के नाते मैं धनकड़ जी को मश्विरा देना चाहता हूं कि वे अपने पूर्ववर्ती उपराष्ट्रपति से कुछ सीखें। पूर्व उपराष्ट्रपति शाखामृग थे, बावजूद उन्हें पार्टी ने राष्ट्रपति पद पर पदोन्नत नहीं किया। धनकड़ के साथ भी यही होगा। वे चाहे जितनी स्वामि भक्ति दिखा लें अब उन्हें और मौका नहीं मिलेगा। अब राष्ट्रपति पद के लिए प्रत्याशी का चयन दूरदृष्टि से किया जाता है। वोट बैंक देखा जाता है। धनकड़ केवल राजस्थान विधानसभा चुनाव तक ही प्रासंगिक हैं। चुनाव निबटने के बाद उनका कोई महत्व रहने वाला नहीं है। इसलिए जरूरी है कि गहलोत के मुकाबले वे ज्यादा मर्यादित आचरण करें।
उपराष्ट्रपति की चुनावी मौसम में यात्राओं को रोकने के बजाय केन्द्र के मंत्री मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर बरसने लगे हैं। कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने भी गहलोत से पूछा है कि क्या उपराष्ट्रपति को राजस्थान दौरे के लिए मुख्यमंत्री की अनुमति लेने की जरूरत है? मेघवाल ने कहा कि ‘उपराष्ट्रपति के लिए मुख्यमंत्री ने कहा कि वह अब क्यों आ रहे हैं? तो क्या अब उपराष्ट्रपति उनसे अनुमति लेकर आएंगे?’ मेघवाल और गहलोत आपस में जूझें तो ठीक है। मेघवाल को मंत्री बनाया इसीलिए गया है कि वे गहलोत से जूझें, लेकिन जो काम मेघवाल कार रहे हैं वो उपराष्ट्रपति की हैसियत से धनकड़ साहब नहीं कर सकते। इसे अमर्यादित कहा और माना जाएगा। उन्हें मौन रहना चाहिए।
आप मानें या न मानें, सहमत हों या न हों, किन्तु ये हकीकत है कि देश में पहली बार संवैधानिक संस्थाओं का ही नहीं बल्कि शीर्ष पदों पर बैठे व्यक्तियों का भी सदुपयोग नहीं किया जा रहा। उनकी गरिमा तार-तार की जा रही है। संसद भवन का शिलान्यास हो या लोकार्पण या संसद का विशेष सत्र किन्तु देश के राष्ट्रपति को पूछा नहीं जा रहा। राष्ट्रपति अब रबर की मुहर ही नहीं पत्थर के सनम भी बनकर रह गई हैं। वे हर दिन अपमान का घूंट पीती हैं, किन्तु मर्यादा में बंधी हैं। बोल नहीं सकतीं। वे ज्ञानी जैलसिंह की तरह मौजूदा सरकार के किसी आधे-अधूरे विधेयक पर दस्तखत करने से इंकार नहीं कर सकतीं, पुनर्विचार के लिए नहीं कह सकतीं। आखिर पार्टी के प्रति निष्ठा भी तो ऐसा करने में उनके आड़े आती है। उनकी जगह यदि उमा भारती होतीं तो शायद वे जैलसिंह बन भी जातीं।
अशोक गहलोत जैसे पुरानी पीढ़ी के नेता कम ही हैं, जो किसी भी मुद्दे पर खुलकर बोल सकते हैं। वे भूपेश बघेल की तरह सौम्य नहीं हैं। जो आपत्ति गहलोत ने की, वो ही बघेल भी कर सकते थे लेकिन उन्होंने नहीं की। संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों का मान रखा। यही मान अब भाजपा को रखना चाहिए। जब तक चुनाव हैं तब तक राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के दौरों को स्थगित रखना चाहिए। शीर्ष पदों पर बैठे लोग यदि राजनीतिक कार्यकर्ताओं की तरह काम करेंगे तो उन पदों की गरिमा गिरेगी। मुझे नहीं लगता कि गहलोत की आपत्ति के बाद केन्द्र की सरकार या राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति स्वयं इस मामले में कोई संज्ञान लेंगे, किन्तु यदि ले लें तो उनका मान बढ़ेगा ही कम तो बिल्कुल नहीं होग। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का इस्तेमाल किए बिना भी चुनाव लड़े और जीते जा सकते हैं।