सियासत या दुकानदारी, पहले तय कीजिये

– राकेश अचल


राजनीतिक दलों में क्या खिचडी पाक रही है, ये जानने से पहले ये तय किया जाना चाहिए कि देश के सियासी दल सियासत कर रहे हैं या दुकानें खोलकर बैठे हैं? सियासत तमाम लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की एक जरूरत रही है। जहां लोकतंत्र नहीं है वहां सियासत की बजाय साजिश चलती है। लोकतंत्र में सियासत करने के लिए बाकायदा पंजीकृत दलों का गठन किया जाता है। कुछ अपंजीकृत राजनितिक दल भी होते हैं। सभी को सियासत करने की छूट है। सियासी दलों को मिली यही छूट कालांतर में लूट में बदल गई। देवयोग से सियासत अब दुकानदारी में तब्दील हो गई है।
देश की सबसे बुजुर्ग पार्टी कांग्रेस है, कांग्रेस हमेशा से सत्ता की रेस का एक मजबूत अश्व रही है। कांग्रेस को सत्ता से बाहर हुए एक दशक हो चला है। कांग्रेस ने सत्ता में वापसी के लिए तमाम पापड बेले हैं और हारकर कांग्रेस ने जो दुकान खोली उसे ‘मुहब्बत की दुकान’ कहा जाता है। कांग्रेस कहती है कि देश में ‘नफरत की दूकान’ के मुकाबले ‘मुहब्बत की दुकान’ को खोला गया है। यानि अब खरीददार के पास ये विकल्प है कि वो क्या खरीदे, मुहब्बत या नफरत?
हमने बचपन में सुना था कि ‘यहां हर चीज बिकती है, कहो जी तुम क्या-क्या खरीदोगे’। हमारे पुरखे साहिर लुधियानवी जी को न जाने कैसे भनक लग गई कि इस मुल्क में हर चीज बिकने वाली है, इसलिए उन्होंने ये गीत 1958 में ही लिख दिया था। स्वर कोकिला लता मंगेशकर को भी ये गीत गाने में कोई उज्र नहीं हुआ, क्योंकि उन्हें भी अहसास हो गया था कि 21वीं सदी में सब कुछ बिकेगा और सचमुच आज-कल सब कुछ बिक रहा है। ईमान बिक रहा है। आदमी, औरतें, बच्चे, नेता, अभिनेता, कलाकार, पत्रकार, पण्डे, मौलवी सब बिक रहे हैं। बस कीमत मन माफिक मिलना चाहिए।
बिकवाली के इस दौर में जो नहीं बिकता है उसकी हैसियत भी मकान, गली, कूचे और दीवार से ज्यादा नहीं है। जिसके हाथों में पैसा है वो हर चीज खरीद लेना चाहता है। मजरूह साहब को भी इस बात का अंदेशा था कि इस दुनियया में, इस मुल्क में एक दिन सब कुछ बिकेगा। इसीलिए उन्होंने भी लिखा- ‘हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाजार की तरह, उठती है हर निगाह खरीदार की तरह’। ये अंदेशे आज के नहीं कोई आधी सदी पुराने हैं, जो आज सबकी आंखों के सामने हैं। आज दुनिया एक गांव है, एक बाजार है, ऐसे में अपने आपको बिकने से बचाना आसान काम नहीं।
बात सियासी दुकानों की हो रही थी। सियासी दल दुकानों में तब्दील हो चुके हैं और अपना-अपना माल बेचना चाहते हैं। कांग्रेस के पास मुहब्बत है, भाजपा के पास धर्म और जी-20 की कामयाबी। महाबली और विश्वगुरू का चेहरा। अब खरीददार के ऊपर है कि वो क्या खरीदना चाहता है। दुकानदारों में एक अजीब से प्रतिस्पद्र्धा होती है। वे एक-दूसरे के माल को घटिया और अपने माल को बढिया बताते है। कोई गारंटी देता है तो कोई कम दाम पर अपना माल बेचता है। हर माल के साथ कोई न कोई ऑफर होता है। बाजार में दुकानदार अपना माल बेचने के साथ दूसरों का माल भी खरीदते हैं। वोट बैंक खरीदते हैं।, चुने हुए जन प्रतिनिधि खरीदते हैं, दल-बदलू नेता खरीदते हैं, और तो और रिश्ते भी खरीदते हैं।
अपनी याददाश्त में मैंने पहली बार देश में रिश्ते खरीदे और बेचे जाते हुए देखे हैं। मेरे अपने सूबे में मुख्यमंत्री ने भाई बनकर सूबे की डेढ करोड बहनों का वोट खरीदने का करिश्मा कर दिखाया। वो भी मात्र एक हजार रुपया महीना का मुआबजा देकर। इतिहास में हमने और आपने पढा होगा कि राजा-महाराजाओं की रानियों, महारानियों ने अपने पति की जान और सत्ता बचने के लिए राखी के जरिये भाई खरीदे, लेकिन आज के दौर में कोई भाई अपनी सत्ता बचने के लिए बडी तादाद में बहनों की राखी खरीद ले, ये अकल्पनीय है। इस खरीद-फरोख्त से हालांकि हमारे सूबे की बडी बहना उमा भारती नाराज हैं, लेकिन अब उनकी फिक्र किसे है?
सियासत अब लोक कल्याण, लोकसेवा का औजार नहीं है। सियासत अब सत्ता की पुण्यसलिला है। इसमें डुबकी लगाकर आप कैसी भी वैतरणी हो पार कर सकते हैं। अब आपको वैतरणी पार करने कि लिए गाय की पूछ पकडने की जरूरत नहीं है, इसके लिए आपके गले में किसी सियासी दल का दुपट्टा काफी है। सियासी दलों के दुपट्टे आज-कल मुफ्त में मिलते हैं, साथ में प्रोत्साहन राशि तथा पद भी मिलते हैं। आपको मेरा यकीन न हो तो हमारे सूबे के महाराज से पूछ लीजिये।
आने वाले दिन सियासी दलों के लिए बिकवाली के त्यौहारी सीजन हैं। मुल्क के पांच सूबों में विधानसभाओं के चुनाव होना हैं। चुनावी मौसम में हर माल बिक जाता है, शर्त एक ही है कि आपके पास वादों की पैकिंग आकर्षक हो। सारा खेल पैकिंग और पैकेज का है। जो इस सूत्र को समझ गया उसका कल्याण तय है। सियासत के कारोबार में सिर्फ पैकिंग और पैकेज से ही काम नहीं चलता। इसके लिए प्रधानमंत्री जी और राहुल गांधी जैसा सेल्समैन भी चाहिए। सियासी दलों की दुकानें उनकी हैसियत के हिसाब से आकार लेती हैं। किसी के पास पांच सितारा होटलों जैसे मॉल हैं। सदस्यता से लेकर दूसरे उत्पाद तक ऑनलाइन उपलब्ध हैं और किसी को सडक पर आवाज लगा-लगाकर, आवाज दे-देकर अपना माल खपाना पड रहा है।
आपको शायद यकीन न हो लेकिन मैं सच कह रहा हूं कि मैंने दुनिया के तमाम बाजार देखे हैं। सभी में ‘लोशन’ और ‘इमोशन’ दोनों चीजें बिकती हैं। इसलिए हमेशा खरीददार को ‘प्रिकॉशन’ बरतना चाहिए। जरा-सी लापरवाही भारी पड सकती है। दुनिया के बाजार में असली सेल्समेन को पहचानना आसान काम नहीं है, क्योंकि सेल्समैन पता नहीं किस वेश में आपसे टकरा जाए! कोई सेल्समेन फकीर के वेश में हो सकता है, तो कोई सेल्समेन एकदम कॉमन मैन के वेश में सफेद टीशर्ट और जींस पहने भी मिल सकता है। कोई आपको लच्छेदार बातों में उलझा सकता है, तो कोई अपनी मासूमियत के बूते आपकी अंटी ढीली करा सकता है। किसी के हाथ में धर्मध्वजा हो सकती है तो किसी के पास रेशमी रूमाल।
बहरहाल आज मुझे एक सरस और मजेदार बात करना थी, सियासत और बाजार के बारे में इसलिए आज मैंने वो ही काम किया। मैंने किसी सियासी दल की दुकान को, उसके माल को, उसके सेल्समैन को अच्छा-बुरा नहीं कहा। केवल आपको आगाह किया बाजार के ट्रेंड से। ये मेरी जिम्मेदारी भी थी और नैतक ड्यूटी भी। हालांकि नैतिकता की चिडिया सियासत से ही नहीं बल्कि हर खेत से उड चुकी है। हमारी बिरादरी वाले भी नैतिकता-वैतिकता के फेर में नहीं पडता आज-कल। बेवडों की तरह ‘जहां मिली दो, वहीं गए सो’ के फार्मूले पर यकीन करते हैं। वे जनता के प्रति नहीं अपने मालिकों के प्रति उत्तरदायी हैं। वे पहले ‘वाचडॉग’ होते थे, अब उनकी ‘वाच’ कहीं खो गई है। अब वे मात्र ‘डॉग’ रह गए हैं। ऐसा होता है, इसे रोका नहीं जा सकता। हम जैसे अभी भी बहुत से ऐसे हैं जिनकी ‘वॉच’ अभी ‘टिकटिक’ कर रही है। कोशिश कीजिए कि बाजार आपको ठग न ले। बांकी राम ही जानें।