रंजो-गम से ऊपर की राजनीति

@ राकेश अचल


हिन्ही दिवस पर मुझे हिन्दी की बात करना चाहिए, लेकिन मैं जान-बूझकर हिन्दुस्तान की बात कर रहा हूं। उसी हिन्दुस्तान की जो भारत भी है और इंडिया भी। इस हिन्दुस्तान में हिन्दी के मुकाबले हिन्दुस्तानी सियासत की बात करना जरूरी है, क्योंकि हिन्दुस्तान की सियासत रंजो-गम से ऊपर उठ चुकी है। आज की सियासत केवल जश्न मनाना जानती है। जश्न में डूबी सियासत को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कहां उसके जवान मारे जा रहे हैं और कहां लोकतंत्र कराह रहा है।
आप जब ये आलेख पढ़ रहे होंगे उससे कोई 12 घण्टे पहले इसी हिंदुस्तान में जब केंद्र शासित जम्मू-कश्मीर में आतंकियों ने सेना के एक मेजर, एक कर्नल और पुलिस के एक डीएसपी की जान ले ली ,लेकिन उसी वक्त दिल्ली स्थित भाजपा मुख्यालय में जी-20 की अपार कामयाबी के लिए प्रधानमंत्री जी का अभिनंदन हो रहा था। फुलझड़ियां चलाई जा रही थीं। हृदयहीन सियासत के लिए बहादुर जवानों की शहादत का कोई मतलब नहीं है। फ़ौजी और पुलिस वाले तो नौकरी करने आते ही शायद शहादत देने के लिए है। उनके लिए क्या आंसू बहाना? वैसे भी सियासत इन घटनाओं, दुर्घटनाओं से विचलित नहीं होती। लेकिन आम आदमी विचलित होता है। आम आदमी का विचलन सियासत और सत्ता को दिखाई नहीं देता या फिर वो इसे देखना नहीं चाहती।
ये महज संयोग ही है कि जम्मू-कश्मीर में एक तरफ भारतीय सेना के अधिकारी पुलिस के साथ आतंकवादियों से मोर्चा ले रहे थे वहीं दूसरी तरफ देश के भाग्यविधाता दिल्ली में अपनी कथित उपलब्धियों का जश्न मना रहे थे। कायदे से मुझ जैसे अदना से आदमी को इस तरीके से किसी के जश्न को लेकर सवाल करने का हक नहीं है। इस देश में सरकार सवाल करने के अधिकार को बहुत पहले या तो छीन चुकी है या फिर उसे सीमित कर चुकी है। यहां तक हिन्दुस्तान की जमीन पर हिन्दुस्तान के फिलवक्त के सबसे बड़े और भरोसेमंद दोस्त अमरीका को भी पत्रकारों से बतियाने की इजाजत नहीं दी जाती। मित्र देश के राष्ट्रपति को दूसरे देश में जाकर अपने मन की बात प्रेस से साझा करना पड़ती है। मित्र देश के राष्ट्रपति के पास मन की बात करने के लिए आकाशवाणी तो थी नहीं।
मैं बात कर रहा था सियासत की हृदयहीनता की। पूरे देश को इस विषय पर बात करना चाहिए, क्योंकि यदि देश की सियासत हृदयहीन होगी तो नौकरशाही भी वैसी ही हो जाएगी और भुगतना पड़ेगा जनता को। जनता पहले से ही बहुत कुछ भुगत रही है। आगे भी उसे बहुत कुछ भुगतने के लिए कमर कसकर तैयार रहना चाहिए। दरअसल इस समय देश रहस्यवाद से घिरा है। किसी को नहीं पता कि देश में अगले पल क्या होगा? कोई नहीं जानता कि संसद के विशेष सत्र की कार्यसूची क्या है? किसी को जानने की क्या जरूरत है? जो होगा सो सामने आ ही जाएगा।
देश में हिन्दी दिवस पर हिन्दी की बात करने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि देश हिन्दी का कोई कल्याण नहीं कर सकता। देश की सरकार के पास हिन्दी का कल्याण करने के अलावा बहुत से दूसरे काम है। हिन्दी का कल्याण खुद हिन्दी कर लेगी। यूं भी हिन्दी दिवस मना लेने से हिन्दी का क्या कल्याण हो सकता है? हम पिछले 70 साल से हिन्दी दिवस मना रहे हैं, लेकिन हिन्दी का कलयाण नहीं कर सका। बीते 50 साल को छोड़िये पिछले 9 साल के मोदी युग में भी हिन्दी जहां थी, वहीं खड़ी है। सरकार को गगनचुम्बी प्रतिमाएं बनवाने से फुरसत मिले तो सरकार हिन्दी के बारे में सोचे। सरकार एक देश एक चुनाव के बारे में सोच सकती है। एक देश एक नागरिक संहिता के बारे में सोच सकती है, लेकिन एक देश, एक भाषा के बारे में नहीं सोच सकती। हिन्दी कोई संविधान की धारा 370 नहीं है जो संसद की सहमति से उसे हटा दिया जाए। हिन्दी एक भाषा है, भाषा को कोई सियासी दल अपने चुनावी एजेंडे में शामिल नहीं करना चाहता। क्योंकि उसे एक देश एक चुनाव तो मजबूरी में चाहिए, एक देश एक भाषा नहीं। हिन्दी कोई धर्म की तरह सनातन थोड़े ही है!
हिन्दी को लेकर मैं कभी परेशान नहीं होता, क्योंकि जिसकी अटकेगी वो हिन्दी सीखेगा, हिन्दी बोलेगा, लिखेगा, पढ़ेगा। हिन्दी का बाजार सबसे बड़ा बाजार है। दुश्मन भी हिन्दी बोलते हैं और दोस्त भी। आपने ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ का नारा सुना होगा। आज तक किसी ने ‘अंग्रजी-हिन्दी भाई-भाई’ का नारा नहीं लगाया। हम धर्म पर गर्व करते है, लेकिन भाषा पर नहीं। हमें गर्वोन्नत करने के लिए भाषा की नहीं भाषणों की जरूरत है। भाषण ‘टेलीप्रॉम्प्टर’ से दिया जा सकता है। हकीकत ये है कि देश हिन्दी से चल रहा है, हिन्दुस्तानियों से चल रहा है। एक देश, एक चुनाव या एक देश, एक नागरिक संहिता से नहीं। इस देश को ऐसे ही चलने देना चाहिए। यहां वेश-भूषा और भाषा के झगड़ों के लिए कोई जगह नहीं है।
गनीमत है कि हमारा देश हमारा देश है, कनाडा नहीं। कनाडा की जनता ने अपने पंत प्रधान जस्टिन टूडो के लत्ते ले लिए, क्योंकि वे जी-20 के सम्मेलन में अपनी विदेश नीति की मिट्टी कुटवा कर लौटे। कनाडा में पंत प्रधान की आलोचना को राष्ट्रद्रोह नहीं माना जाता। हमारे यहां माना जाता है। इसीलिए हमारे यहां चाहे मीडिया हो या राजनीतिक कार्यकर्ता, वे सब समवेत स्वर में पंत प्रधान का अभिन्दन करते हैं। फुलझड़ी चलाते हैं। स्तुतिगान करते हैं। हमें लग रहा है कि हमने ‘लंका जीत ली’। हमने ‘दुनिया मुठ्ठी में कर ली’ जबकि हकीकत ये है कि हमने अपनी आदत के मुताबिक जी-20 के समूह को भी दो फांक कर दिया। कुछ चीन के साथ खड़े हैं तो कुछ चीन के खिलाफ। हम बांटने में सिद्धहस्त है। हम समाज को बांट सकते हैं, हम सियासत को बांट सकते हैं। ‘बांटो और राज करो’ के मामले में अंग्रेज भी हमारा मुकाबला नहीं कर सकते। यदि ये हमारी विदेश नीति की सफलता है तो मुझे कुछ नहीं कहना ।
मेरा अपने पाठक मित्रों से अनुरोध है कि इस आलेख को न प्रधानमंत्री कि खिलाफ समझा जाए और न इसे राष्ट्रद्रोह माना जाए। मैंने भी अपने मन की बात उसी तरह की है, जैसी कि प्रधानमंत्री जी करते हैं। इस देश का संविधान आज भी आम आदमी को अपने मन की बात करने की आजादी देता है। मुमकिन है कल ये आजादी न रहे, किन्तु जब तक है तब तक इसका इस्तेमाल किया जाना चाहिए। आखिर हम दुनिया कि सबसे पुराने और बड़े लोकतंत्र है। कनाडा और अमरीका से भी बड़े ।

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