घोसी का उदघोष, किसके उडेंगे होश?

– राकेश अचल


कहने को उत्तर प्रदेश की घोसी विधानसभा का उपचुनाव एक साधारण उपचुनाव है, लेकिन महाबली योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री पद पर होते हुए इस उपचुनाव में भाजपा की पराजय भाजपा के बुलडोजर राज के खिलाफ खतरे की घण्टी से कम नहीं है। घोसी में भाजपा के दारा सिंह को समाजवादी पार्टी के सुधाकर सिंह ने एक अप्रत्याशित अंतर (42 हजार) से पराजित किया है। घोसी में दारा सिंह की हार भाजपा की हार और समाजवादी पार्टी की जीत बाहर नहीं है, बल्कि इसके अनेक मायने हैं।
देश में जब जी-20 का सम्मेलन हो रहा हो तब इस तरह के नतीजे सत्तारूढ भाजपा के लिए शुभ संकेत नहीं है। मैं अगर अमित शाह की जगह होता तो उपचुनाव परिणामों की घोषणा कम से कम तीन दिन केलिए रुकवा देता। सरकार जब दिल्ली के एक बड़े हिस्से को तीन दिन के लिए बंद कर सकती है। 300 से ज्यादा रेलें स्थगित कर सकती है तो उपचुनावों के परिणाम भी रोक सकती है। लेकिन भाजपा ऐसा करने से चूक गई और उसे दुनिया के 20 देशों के राष्ट्राध्यक्षों के सामने शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा। समाजवादी पार्टी को भी राजनीतिक सौजन्य निभाते हुए इस मौके पर जीत का जश्न नहीं मनाना चाहिए था। हालांकि भाजपा ने पिछले एक दशक में राजनीयति से सौजन्य को उसी तरह गायब कर दिया है जैसे कहावतों में गधे के सिर से सींगों का गायब होना कहा जाता है।
मैं आज परिहास के मूड में बिल्कुल नहीं हूं। मुझे भाजपा की एक पिद्दी से उपचुनाव में पराजय पच नहीं रही। योगी जी की साधना में ये एक बट्टा है। घोसी में हालांकि समाजवादी पार्टी ने अपने ही पुराने बागी नेता को हराया है, लेकिन उसके गले में दुपट्टा अब भाजपा का था। जाती तौर पर मेरा मानना है कि घोसी की जनता ने दारा सिंह को पराजित कर दल-बदल को हतोत्साहित करने का प्रयास किया है, इसके लिए घोषी की जनता को बधाई दी जाना चाहिए।
घोसी की जनता ने घाट-घाट का पानी पिया है। घोसी की जनता ने वामपंथियों, कांग्रेस, जनता पार्टी, लोक दल, जनता दल, बसपा, सपा और भाजपा सभी को आजमाया है। सभी को सेवा का मौका भी दिया और खारिज भी किया, इसलिए उपचुनाव में जो नतीजे आए हैं वे घोसी के स्वभाव से मेल खाते हैं। घोसी के चुनाव परिणामों को अगर भात की हाण्डी का एक चावल मान लिया जाए तो मामला गंभीर हो जाता है, क्योंकि इस उपचुनाव में भाजपा का वोट प्रतिशत बढकर 57 फीसदी से ज्यादा हो गया है और भाजपा का वोट प्रतिशत घटकर 37 से भी नीचे चला गया है। ये सब तब हुआ है जब देश और दुनिया में भाजपा की घण्टाध्वनि गूंज रही है और अयोध्या में भव्य-दिव्य रामलला मन्दिर के उदघाटन की तैयारियां चल रही हैं। घोसी का जनादेश हालांकि नक्कारखाने में तूती की आवाज जैसा है, लेकिन आशंका ये है कि आने वाले दिनों में यदि पूरे उत्तर प्रदेश की जनता ने भी घोसी का ही अनुशरण किया तो भाजपा और दादा योगी आदित्यनाथ की अखण्ड सत्ता का क्या होगा? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के तीसरे टर्म में प्रधानमंत्री बनने के सपने का कया होगा? दरअसल राजनीति अब सपनों का ही तो खेल बन गई है। राजनीति में लोग सपने देखते हैं, नेता सपने दिखाते हैं और खुद भी सपने संजोते हैं। ये सपने चाहे अच्छे दिनों के हों, चाहे तीसरी बार प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बनने के हों।
उप्र देश की राजनीति में हमेशा से निर्णायक रहा है। उप्र ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को गुजरात छोडऩे पर विवश किया। वे साबरमती की गोदी छोडक़र गंगापुत्र बन गए। उन्होंने एक प्रधानमंत्री के रूप में दुनियाभर में देश के साथ ही उप्र का भी डंका बजाया है। घोसी का नतीजा इस सबको चुनौती देता प्रतीत होता है। सियासत की दृष्टि से देखें तो घोसी ने समाजवादी पार्टी को प्राणवायु दी है। और बहुजन समाज पार्टी की जान सांसत में डाल दी है। बहुजन समाज पार्टी इस समय भयभीत और भ्रमित पार्टी है। देश की सियासत जब दो ध्रुवों में बंट चुकी है, तब बहुजन समाज पार्टी अपना अलग राग अलाप रही है। बसपा ने अपने आपको किसी भी गठबंधन से नहीं जोडऩे का ऐलान किया है।
मुमकिन है कि उप्र के मुख्यमंत्री के आम चुनाव में योगीजी भाजपा के लिए आकाश कुसुम तोडक़र लाने वाले नहीं हैं। उनका आभामण्डल टूट चुका है। यूपी की जनता के दिल से बुलडोजर विधान का भय शायद निकल रहा है। राज्य की जनता रामलला के भव्य-दिव्य मन्दिर में दर्शन करने अवश्य जाएगी, लेकिन वोट रामभक्तों की पार्टी को शायद न दे। इसलिए भाजपा के लिए घोसी हर तरह से खतरे की घण्टी है। मुझे लगता है कि मोदी-शाह की जोड़ी को अब मध्य प्रदेश की ही तरह उप्र की राजनीति को अपने हाथ में लेना पडेगा अन्यथा भाजपा का सीराजा पूरी तरह से बिखर सकता है।
आम तौर पर उपचुनावों में सत्तारूढ दल को ही विजय मिलती आई है। उपचुनाव में किसी सत्तारूढ पार्टी की हार को अपवाद मानाजाता है। मैं भी घोसी में भाजपा की पराजय को अपवाद ही मानता हूं। मुमकिन है कि भाजपा इस दु:स्वप्न से बाहर भी आ जाए और मुमकिन है कि भाजपा इस हार से भीतर ही भीतर और भयभीत हो जाए, ये राज्य के नेतृत्व पर निर्भर करता है कि वो घोसी के उदघोष को किस तरीके से लेता है।
मैं ये भी मानता हूं कि घोसी पूरा उप्र नहीं है, किन्तु ये भी सच है कि घोसी उप्र की सियासी रगों में बह रहे द्रव्य में परिवर्तन का एक चिन्ह भी है। घोसी के नतीजों ने बता दिया है कि जनता एक तरफ न तो दलबदलुओं को स्वीकार करेगी। न किसी जाति आधारित दल की राजनीति करने वाले की सुनेगी। वो उसी को चुनेगी जो कि चुनने लायक है। दल कोई भी हो सकता है। समाजवादी पार्टी ने चूंकि सत्तारूढ भाजपा के सामने अभी तक घुटने नहीं टेके हैं, इसलिए जनता का सदभाव समाजवादी पार्टी की और है। घोसी के चुनाव परिणाम मप्र के सीमावर्ती इलाकों में काम करने वाले समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं को भी ताकत दे सकते हैं। इसलिए मप्र की भाजपा को भी सतर्क रहना चाहिए, क्योंकि वैसे भी मप्र में भाजपा सत्ता प्रतिष्ठान विरोधी लहर का समान कर रही है।