– राकेश अचल
राहुल गांधी आज की तारीख में कुछ भी नहीं हैं, न लोकसभा के सदस्य और न कांग्रेस के अध्यक्ष। वे पूर्व सांसद और पूर्व अध्यक्ष हैं। वे जो कुछ भी हैं, भूतपूर्व हैं। लेकिन केन्द्र सरकार राहुल गांधी को भूत के अलावा कुछ नहीं मानती। राहुल गांधी केन्द्र सरकार और भाजपा के सिर पर चढ़े ऐसे भूत हैं जो उतरने का नाम ही नहीं ले रहे। हाल ही में राहुल गांधी के काफिले को मणिपुर पुलिस ने हिंसा की आशंका के चलते विष्णुपुर में रोक दिया। मणिपुर में राहुल गांधी ही नहीं वो इनटरनेट भी प्रतिबंधित है जिसका जिक्र पिछले दिनों अमेरिका के 75 सीनेटरों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान किया था। राहुल और इंटरनेट में सरकार को फर्क करना चाहिए।
मणिपुर को जलते हुए दो महीने होने को हैं, मणिपुर में केन्द्रीय मंत्री अमित शाह के बार-बार जाने से मणिपुर सरकार और पुलिस को कोई दिक्कत नहीं है, किन्तु राहुल गांधी के जाने से है। शायद मणिपुर की सरकार शाह को ‘फायर ब्रिगेड’ और राहुल गांधी को ‘बारूद’ समझती है। मणिपुर में डबल इंजन की एक नाकाम सरकार है। राज्य और केन्द्र सरकार की नाकामी के लिए मणिपुर में बिना किसी जंग के 100 से ज्यादा लोगों की हत्या सबसे बड़ा प्रमाण है। जलते मणिपुर में जाने का साहस खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कर नहीं रहे और राहुल गांधी वहां गए तो उन्हें मणिपुर में घुसने नहीं दिया गया। मोदी जी को मणिपुर के बजाय मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में डूबती भाजपा की फिक्र है। जबकि बेचारे राहुल गांधी इन तीनों राज्यों को छोडक़र मणिपुर को लेकर फिक्रमंद हैं।
कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने ट्वीट कर राहुल गांधी का रास्ता रोकने का विरोध किया और कहा कि ये स्वीकार्य नहीं है। खडग़े इससे ज्यादा और क्या कर सकते थे? राहुल हिंसा प्रभावित मणिपुर के अपने दो दिवसीय दौरे के लिए बृहस्पतिवार को इंफाल पहुंचने के बाद चुराचांदपुर जिले के लिए रवाना हुए थे। हालांकि पुलिस द्वारा रोके जाने के बाद राहुल गांधी काफिले के साथ वापस लौट गए। उन्होंने सरकार के फैसले के खिलाफ विष्णुपुर में धरना नहीं दिया, वे ऐसा कर सकते थे लेकिन उन्होंने कानून का सम्मान किया। राहुल जिले में हिंसा के कारण विस्थापित हुए लोगों से राहत शिविरों में मिलने जाना चाहते थे। अपने दो दिवसीय दौरे पर वह नागरिक संगठनों के प्रतिनिधियों, बुद्धिजीवियों और अन्य लोगों से भी बातचीत करने का भी विचार था।
राहुल का मणिपुर प्रवेश रोकना अघोषित आपातकाल का उदाहरण है। यदि देश में अघोषित आपातकाल नहीं है तो राहुल गांधी को रोकने का क्या औचित्य है। राहुल गांधी वहां पीडि़त जनता से बात ही तो करते। बातचीत से समस्याएं सुलझती है। सरकार ने भी राज्य में शांति स्थापना के लिए शांति समिति बनाई किन्तु इस समिति को शांति स्थापना में कोई कामयाबी नहीं मिली, क्योंकि शांति समिति भरोसे के लायक नहीं है। ऐसे अवसरों पर केवल सरकार ही नहीं बल्कि सभी दलों के प्रयासों से शांति स्थापना में कामयाबी मिलती है, किन्तु केन्द्र और राज्य सरकार को ये काम अकेले ही करना है। दुर्भाग्य से केन्द्र और राज्य सरकार को मणिपुर में शांति स्थापना में अब तक तो कामयाबी नहीं मिली। सरकार ने राहुल को शांतिदूत बनने नहीं दिया।
कोई माने या न माने लेकिन राहुल कुछ भी न होते हुए भी देश की सियासत में अपनी मौजूदगी बनाए हुए हैं। वे अमेरिका जाते हैं तो सत्तारूढ़ दल को उदरशूल होता है। वे मणिपुर जाना चाहते हैं तो सत्तारूढ़ दल का आधाशीशी का दर्द होने लगता है। जबकि राहुल के पास देश की जनता को जोडऩे का तजुर्बा है। वे बीते नौ साल में देश के अकेले ऐसे राजनेता हैं जो लगातार छह माह तक 3500 किमी की पदयात्रा कर देश को एक सूत्र में जोडऩे का प्रयास कर चुके हैं। हाल ही में कर्नाटक की जनता ने उन्हें और उनकी पार्टी को राज्य विधानसभा में विजयश्री देकर सम्मानित भी किया है। भाजपा में फिलहाल राहुल की तरह जनता से संवाद कायम करने वाला कोई दूसरा नेता नहीं है। भाजपा में नेताओं की कमी नहीं है। भाजपा के पास राहुल गांधी के मुकाबले एक से बढक़र एक दिग्गज नेता हैं, लेकिन वे इस समय सत्ता सुख में आकंठ डूबे है। जनता से सीधे संवाद करना वे लगभग भूल गए है। खुद प्रधानमंत्री जी को जनता से सीधे संवाद करने के बजाय आकाशवाणी से संवाद करना ज्यादा आसान लगता है।
कांग्रेस की गलती सिर्फ इतनी है कि उसकी राज्य इकाई ने कहा है कि सरकार को लोगों की बात सुननी चाहिए। मणिपुर के मुख्यमंत्री बीरेन सिंह सरकार को हटाया जाना चाहिए। इस मांग में कुछ भी अनुचित नहीं है। बीरेन यदि नाकाम मुख्यमंत्री साबित हुए हैं तो उन्हें हटाकर भाजपा किसी दूसरे को मुख्यमंत्री बना सकती है। किन्तु लगता है कि केन्द्र ने डबल इंजन की सरकार के मुख्यमंत्री को हटाने के प्रश्न को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लिया है। सरकार की प्रतिष्ठा मुख्यमंत्री को हटाने से गिरेगी नहीं अपितु बढ़ेगी। राज्य में शांति बहाली के लिए एक या दस मुख्यमंत्री कुर्बान किए जा सकते हैं, किन्तु सवाल प्राथमिकता का है। सरकार की प्राथमिकता क्या है ये आप खुद समझ सकते हैं। मणिपुर का दुर्भाग्य ये है कि इस समय न देश की संसद चल रही है और न सियासत। अन्यथा मणिपुर को लेकर देश कुछ न कुछ अवश्य विचार करता। लेकिन सरकार मणिपुर की आग बुझाने के लिए न सर्वदलीय प्रयास कर रही है और न किसी और को पहल करने दे रही है। सरकार इस समय मणिपुर में आग बुझाने के लिए क्या कर रही है, ये देश और दुनिया नहीं जानती। केवल केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह और मणिपुर के मुख्यमंत्री बीइरेन बाबू को इसकी माहिती है।
मणिपुर इस देश का अखण्ड हिस्सा है, वहां क्या और योन हो रहा है, इसकी जानकारी पूरे देश को होना चाहिए। केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री जी विपक्ष को जितना मर्जी आए कोसें, लेकिन उन्हें इस समय मणिपुर के मसले पर सभी दलों के साथ बैठकर सूचनाओं का आदान-प्रदान करना चाहिए। जलते मणिपुर में सांसदों का सर्वदलीय प्रतिनिधि मण्डल भेजना चाहिए। जाहिर है कि राहुल गांधी इस प्रतिनिधि मण्डल का हिस्सा नहीं बन पाएंगे। मणिपुर को बचाइए, राहुल गांधी का भूत सिर से उतारिये। यही समय की मांग है। समय की मांग और पुकार को सुनिए, देखिये, अन्यथा देश का बहुत बड़ा नुक्सान हो सकता है। राहुल ही क्या मणिपुर की आग बुझाने में जो सहायक हो उसे वहां जाने देना चाहिए, फिर चाहे वे अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ही क्यों न हों?