हिन्दी के वैश्वीकरण का सशक्त माध्यम हैं पत्रिकाएं

हिन्दी दिवस (14 सितंबर) पर विशेष


डॉ. सुनील त्रिपाठी निराला
भिण्ड, मो.9826236218

साहित्यिक पत्रिकाओं ने हिन्दी साहित्य को पाठकों के बीच जीवित रखा है। हिन्दी साहित्य को बनाए रखने में पत्रिकाओं का बहुत योगदान है। बहुत से लोग पत्रिकाओं को पढऩे के बाद ही पुस्तकों से मिल पाते हैं। हिन्दी की पत्रिकाओं में जो सबसे पहले नाम याद आता है वो है ‘धर्मयुग’ का। हालांकि हर किसी का विचार यहां अलग हो सकता है। पाठकों को पत्रिकाओं की प्रतीक्षा रहती है। जो लोग पत्रिकाएं पढ़ते हैं उनका एक समय के बाद संपादक से एक रिश्ता बन जाता है। ऐसा लगता है जैसे कि हाथ में पत्रिका आने के बाद संपादक आपसे बात कर रहा हो। यहां हम कुछ ऐसी ही हिन्दी पत्रिकाओं का उल्लेख होने जा रहा है, जिन्होंने हिन्दी साहित्य की ज्योति को जलाने का काम किया है। हालांकि इनमें से कुछ हमारे बीच नहीं हैं (बंद हो चुकी हैं), तो कुछ आज भी प्रकाशित हो रही हैं। यदि हिन्दी साहित्य को बचाना है, तो ऐसी पत्रिकाओं को पढऩा होगा अन्यथा फौरी बातें ही बची रह जाएंगी।
‘धर्मयुग, एक साप्ताहिक पत्रिका थी। यह पत्रिका ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ ग्रुप द्वारा मुंबई से प्रकाशित होती थी। यह पत्रिका 1949 से लेकर 1993 तक प्रकाशित हुई थी। अपने दौर में यह पत्रिका पत्रकारिता और साहित्य में रुचि रखने वालों की अलख को जिन्दा रखने का काम बख़ूबी करती थी। आज के बहुतेरे लेखक, पत्रकार और बुद्धिजीवी वर्ग से जुड़े लोग शुरुआत में कहीं न कहीं इससे जुड़े रहे थे। पहले इसके संपादक पं. सत्यकाम विद्यालंकर थे। लेकिन जब इसका संपादकिय विभाग धर्मवीर भारती के पास आया तो इसकी लोकप्रियता बढऩे लगी। धर्मवीर भारती एक साहित्यकार थे। इन्होंने ‘गुनाहों के देवता’ जैसा उपन्यास लिखने के अलावा ‘ठंडा लोहा’ जैसा कालजयी और संजीदा कविता संग्रह लिखा था। इस पत्रिका के कारण लोगों का विश्वास साहित्य और बुनियादी पत्रकारिता की ओर एक बार फिर से स्थापित हो गया था। आज ये प्रकाशित नहीं होती। इसकी कमी पाठकों को कहीं न कहीं अवश्य खटकती है।
हंस का प्रकाशन उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने किया था। इस पत्रिका के संपादक मण्डल में महात्मा गांधी भी रह चुके हैं। प्रेमचंद के देहांत के बाद हालांकि पत्रिका का कार्यभार उनके पुत्र अमृतराय ने संभाल लिया था। इसके बाद अनेक वर्षों तक हंस का प्रकाशन बंद रहा, फिर साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने प्रेमचंद के जन्मदिन के दिन ही 31 जुलाई 1986 को अक्षर प्रकाशन के तले इस पत्रिका को पुन: शुरू किया। राजेन्द्र यादव का निधन हो चुका है, इस समय हंस के संपादक संजय सहाय हैं। बीते दिनों हंस ने घुसपैठिए नाम से नया कॉलम शुरू किया गया है। इसमें साहित्यकारों की नहीं, बल्कि आमजन की कहानियों को जगह दी जाती है। हिन्दी साहित्य में ऐसी पहल लोगों के पढऩे की क्षमता को बढ़ाने का काम कर रही है।
हिन्दी साहित्य में ‘आलोचना’ को स्थापित करने का श्रेय नामवर सिंह को जाता है। आपको बता दें कि ‘आलोचना’ एक त्रैमासिक पत्रिका है एवं इसके प्रधान संपादक नामवर सिंह थे। अब इसका संपादन अरुण कमल संभाल रहे हैं। यह पत्रिका हिन्दी साहित्य में आलोचना को जिंदा रखे हुए है। यह पत्रिका राजकमल प्रकाशन समूह द्वारा प्रकाशित होती है।
‘नया ज्ञानोदय’ यह साहित्यक पत्रिका नई दिल्ली के भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित की जाती है। पहले इसका संपादन साहित्यकार रवीन्द्र कालिया देखते थे लेकिन उनके इंतकाल के बाद लीलाधर मंडलोई इसके संपादन का कार्यभार संभाल रहे हैं। इस पत्रिका में साहित्य के अलावा संस्कृति विमर्श को लेकर भी लेख छपते हैं।
मासिक पत्रिका ‘पाखी’ के संपादक प्रेम भारद्वाज हैं। सिंतबर 2008 में इसका लोकार्पण नामवर सिंह ने किया था। आज हिंदी साहित्य के प्रति लोगों की रुचि जगाने का काम ‘पाखी’ बखूबी कर रही है। इंटरनेट पर भी इसका एडिशन समय-समय पर छपता रहता है। हिन्दी साहित्य अभी इंटरनेट पर ज्यादा उपलब्ध नहीं है। ‘पाखी’ के अलावा कुछ गिनी-चुनी पत्रिकाएं ही सोशल मीडिया से अपने आप को जोड़कर काम कर रही हैं। यहां आप इस www.pakhi.in वेबसाइट पर क्लिक कर इसे पढ़ सकते हैं। यह पत्रिका ‘इंडिपेंडेंट मीडिया इनिशिएटिव सोसाइटी द्वारा प्रकाशित की जाती है।
‘परिकथा’ यह पत्रिका द्विमासिक है। इसकी एक विशेषता ये है कि इस पत्रिका में नए रचनाकारों को स्थान दिया जाता है। इसके संपादक शंकर हैं। अपने एक इंटरव्यू में शंकर बता चुके हैं कि सरकार साहित्यक पत्रिकाओं को लेकर गंभीर नहीं है। शंकर की इतनी सी बात ने सारे हिन्दी साहित्य में छाई मंदी को बयान कर दिया। न जाने क्या कारण है कि हिन्दी की साहित्यक पत्रिकाएं गंभीर आर्थिक संकट के दौर से गुजर रही हैं? सुनने में आता है कि प्रकाशन बढ़ते जा रहे हैं। सरकार की आलोचना करो, तो इन पत्रिकाओं को सरकारी विज्ञापन मिलने बंद हो जाते हैं। विज्ञापनों के अलावा पाठकों के सिर पर तो पत्रिका चलने से रही। इसी कारण बहुत सी हिन्दी साहित्यिक पत्रिकाओं की सांसें उफन रही हैं। मुद्दा गंभीर है। यदि अपनी हिन्दी को बचाना है तो इन पत्रिकाओं को बचाने का प्रयास करें। इन्हें पढ़ें, इन्हें समझें, इनके साथ बातचीत करें। बहुत से संकट पाठक की बढ़ोत्तरी होने के कारण हल हो सकते हैं। हिन्दी साहित्य को बचाने में पाठक को अपनी भागीदारी देनी होगी।
पहल हिन्दी की एक अनियतकालिक पत्रिका थी। यह पत्रिका 1973 में शुरू हुई और 2021 में अपने 125वें अंक के साथ समाप्त हो गई। प्रगतिशील वामाग्रह रखते हुए वह सर्वसंग्रहवाद और संतुलनवाद के सिद्धांत का विस्तार करने वाली यह पत्रिका 47 बरस तक छपती रही। यह जबलपुर से अपने संस्थापक ज्ञानरंजन के सम्पादन में प्रकाशित होती थी।
नवनीत हिन्दी की मासिक पत्रिका है। इसके सम्पादक वरिष्ठ लेखक-पत्रकार विश्वनाथ सचदेव हैं। इसकी शुरुआत जनवरी 1952 में स्व. श्री गोपाल नेवटिया ने की थी जो कि बाद में भारतीय विद्या भवन द्वारा अधिग्रहित कर ली गई। भारतीय विद्या भवन द्वारा इससे पूर्व हिन्दी मासिक पत्रिका भारती का प्रकाशन होता था। 69 साल बाद आज भी यह अनवरत प्रकाशित हो रही है। नवनीत एक सांस्कृतिक साहित्य पत्रिका है जो भारतीय विद्या भवन के मूल्यों और आदर्शों की संवाहक है। प्रतिवर्ष जनवरी माह में इसका विशेषांक निकलता है।
‘दिनमान’ यह हिन्दी की एक प्रमुख एवं पहली साप्ताहिक समाचार पत्रिका थी जिसे सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ ने आरंभ किया और बाद में रघुवीर सहाय ने कई वर्षों तक संपादित किया। तारसप्तक के कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के सम्पादन में इस पत्रिका ने हिन्दी को कई प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी एवं पत्रकार ही नहीं दिए बल्कि हिन्दी प्रदेश में एक विचारधारात्मक ऊर्जा का भी संचार किया। सन् 1960 में शुरू हुई कादम्बिनी पत्रिका बीते पांच दशक से में निरंतर हिन्दी जगत में एक खास मुकाम बनाए हुए हैं। राजेन्द्र अवस्थी लंबे समय तक इसके सम्पादक रहे। संस्कृति, साहित्य, कला, सेहत जैसे विषयों पर सुरुचि पूर्ण सामग्री की प्रभावी प्रस्तुति इसकी पहचान । पत्रिका में संवेदना, सरोकार और स्वस्थ मनोरंजन की सुगंध के साथ साथ जिंदगी को बेहतर बनाने का हौसला है। किशोर वय से लेकर बड़े-बुजुर्गों तक, हर किसी के लिए पठनीय है।
भिण्ड से 2017 में ए. असफल ने किस्सा कोताह त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया। पत्रिका ने कम समय में पाठकों के मध्य अच्छी पहचान बना ली है।

(लेखक राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित हैं)