स्वच्छता राष्ट्रीय मुद्दा, गंदगी राष्ट्रीय समस्या

@ राकेश अचल


इस साल एक बार फिर स्वच्छता सर्वेक्षण के लिए देश भर के स्थानीय निकाय सक्रिय हो गए हैं। ये पहला देश है जहां स्वच्छता के लिए शहरों को आपस में प्रतिस्पर्द्धा करना पड़ती है, जबकि ये मामला स्थानीय निकायों से ज्यादा स्थानीय आबादी का है। इस प्रतिस्पर्द्धा के परिणाम आने तक संस्थाओं और जन प्रतिनिधियों के सिर पर स्वच्छता का भूत सवार रहता है और सर्वेक्षण के परिणाम आने के बाद ये भूत सिर से उतर कर फिर पैरों में बैठ जाता है।
हमारे समाज, संविधान, सियासत और सिस्टम में स्वच्छता को अब तक राष्ट्रीय समस्या नहीं माना गया, हालांकि हमारे यहां सरकार ने 2014 से देश में स्वच्छता अभियान राष्ट्रीय स्तर पर चला रखा है। सियासत के लिए स्वच्छता कभी मुद्दा नहीं रही। किसी भी राजनीतिक दल के चुनावी घोषणा पत्र में स्वच्छता को शामिल नहीं किया जाता, क्योंकि सियासत जानती है कि वोट और स्वच्छता का परस्पर कोई रिश्ता नहीं है। दुर्भाग्य से हमारे देश में जो मुद्दे नहीं हैं वे मुद्दे माने जाते हैं और जो मुद्दे वास्तव में हैं उन्हें मुद्दा नहीं माना जाता।
देश की आजादी के पहले राष्ट्रपिता (जिन्हें कुछ लोग राष्ट्रपिता नहीं मानते) महात्मा गांधी ने पहली बार स्वच्छता को एक मुद्दा बनाया था। वे अपने आश्रमों में तो स्वच्छता को मुद्दा बनाने में कामयाब रहे, लेकिन पूरे देश में उन्हें इस मुद्दे पर कामयाबी नहीं मिली। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देश को दासता से मुक्त कराया, परन्तु ‘स्वच्छ भारत’ का उनका सपना पूरा नहीं हुआ। संयोग देखिये कि देश में भाजपा की सरकार बनने के बाद एक दशक पहले गांधी का ये सपना साकार करने के लिए स्वच्छ भारत अभियान भारत सरकार द्वारा आरंभ किया गया। 2 अक्टूबर 2014 को शुरू किए गए इस राष्ट्रीय अभियान का उद्देश्य गलियों, सड़कों तथा अधोसंरचना को साफ-सुथरा करना और कूड़ा साफ रखना है। यह अभियान आरंभ किया गया।
देश में स्वच्छता की जरूरत क्यों पड़ी, क्योंकि हर तरफ गंदगी ही गंदगी फैली हुई है और ये गंदगी बाहर से नहीं बल्कि भीतर से हम ही फैलाते हैं। आजादी के 75 साल बाद भी हमें इस गंदगी फैलाने के राष्ट्रीय चरित्र से निजात नहीं मिली। देश में गंदगी और मंहगाई एक रफ्तार से बढ़ी है। हमारी अपेक्षा है कि इन दोनों पर सरकार काबू करे। बेचारी सरकार असहाय है क्योंकि ‘जस-जस सुरसा वदन बढ़ावा’ वाला मामला है। सरकार जितनी कोशिश करती है उससे दोगुनी गति से देश में गंदगी फैलती है। वजह एक ही है कि हमने स्वच्छता को अपनी जीवन शैली का हिस्सा बनाया ही नहीं। हमारे लिए स्वच्छता घर की देहलीज के बाहर आकर दम तोड़ देती है।
आपको याद दिला दूं कि स्वच्छ भारत मिशन विसर्जन उपयोग की निगरानी के जवाबदेह तन्त्र को स्थापित करने की पहल करते हुए सरकार ने 2 अक्टूबर 2019, महात्मा गांधी के जन्म की 150वीं वर्षगांठ तक ग्रामीण भारत में 1.96 लाख करोड़ रुपए की अनुमानित लागत से 1.2 करोड़ शौचालयों का निर्माण करके खुले में शौंच मुक्त भारत (ओडीएफ) को हासिल करने का लक्ष्य रखा था, शौचालय बने भी किन्तु अधिकांश की दशा सोचनीय है, क्योंकि हम खुले में शौच करना छोड़ने कि लिए तैयार ही नहीं है।
हमारी सरकार देश को स्वच्छ बनाने कि लिए ज्यादा से ज्यादा जो कर सकती है सो करती है। सरकार ने सचिन तेंडुलकर, प्रियंका चोपड़ा, अनिल अंबानी, बाबा रामदेव, सलमान खान, शशि थरूर, तारक मेहता का उल्टा चश्मा धारावहिक के सदस्य मृदुला सिन्हा, कमल हसन, विराट कोहली और महेन्द्र सिंह धोनी को स्वच्छता अभियान के प्रचार के लिए चुना, लेकिन जिस देश ने गांधी की बात नहीं सुनी वो देश इन ख़ास लोगों की बात कैसे सुनता। बेचारे सभी ख़ास लोग हारकर अपने घर बैठ गए। लेकिन सरकार ने हार नहीं मानी। इनके अलावा कुछ और खास लोगों को स्वच्छ्ता कि लिए ‘ब्रांड एम्बेस्डर’ बना दिया। राज्ययोगी ब्रह्मकुमारी दादी जानकीजी, पवन कल्याण, एसपी बालासुब्रह्मण्यम, अमला (अभिनेत्री), के कविता, गुनुपति वेंकट कृष्ण रेड्डी, सुधाला अशोक तेजा, पुलेला गोपीचंद (खिलाड़ी), हम्पी कोनेरू, गैला जयदेव, नितिन, वीवीएस लक्ष्मण (खिलाड़ी), जे रामेश्वर राव, शिवलाल यादव (राजनीतिज्ञ), बीवीआर मोहन रेड्डी और लक्ष्मी मांचू भी इस अभियान से जुड़े, किन्तु जनता को स्वच्छ रहने का मन्त्र याद नहीं करा पाए।
स्वच्छता अभियान को कामयाब बनाने कि लिए जितने ठठकर्म हो सकते हैं वे किए जा रहे हैं। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस अभियान से हास्य अभिनेता कपिल शर्मा, भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान सौरव गांगुली, पूर्व आईपीएस अधिकारी किरण बेदी, नागालैंड के तत्कालीन राज्यपाल पद्मनाभ आचार्य, मशहूर नर्तकी सोनल मानसिंह, ईनाडु समूह कि प्रमुख रामोजी राव, इंडिया टुडे समूह के अरुण पुरी, अखिलेश यादव, स्वामी रामभद्राचार्य, मनोज तिवारी, मोहम्मद कैफ, देवप्रसाद द्विवेदी, राजू श्रीवास्तव, सुरेश रैना, कैलाश खेर, शिल्पा शेट्टी, शेखर गुरेरा को इस अभियान को कामयाब बनाने के लिए जोड़ा, किन्तु कोई भी काम नहीं आया। आज भी इस अभियान को कामयाब बनाने के लिए 30 लाख से अधिक सरकारी कर्मचारी और स्कूल और कॉलेज के छात्र इस अभियान में भाग ले रहे हैं। लेकिन कामयाबी है कि मीलों दूर खड़ी है।
मेरी जानकारी कि मुताबिक़ भारत सरकार ने 15 फरवरी 2016 को सफाई रैंकिंग जारी की। सफाई सेलेक्शन-2016 में 73 शहरों को सफाई और स्वच्छता के आधार पर स्थान देता है। 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की जांच के लिए सर्वेक्षण किया गया था कि वे कितने स्वच्छ या गंदे थे। सर्वाधिक स्वच्छ 10 शहरों में मध्य प्रदेश के इंदौर शहर ने इस सूची में अग्रणीय बने रहने का सूत्र तलाश लिया और लगातार नंबर बना हुआ है। राजधानी भोपाल, चंडीगढ़, नई दिल्ली, विशाखापत्तनम (आंध्र प्रदेश), सूरत (गुजरात), राजकोट (गुजरात), गंगटोक (सिक्किम), पिंपरी चिंचवड (महाराष्ट्र), ग्रेटर मुंबई (महाराष्ट्र) भी इंदौर का मुकाबला नहीं कर सके, ऐसे में हमारा शहर ग्वालियर यदि 18वे स्थान पर है तो कौन सा ताज्जुब है।
कहने का अर्थ ये है कि हम आज भी स्वच्छता को प्रतिस्पर्द्धा से बाहर नहीं ला पाए है। जीवन शैली नहीं बना पाए है। हम सब जानते हैं कि गंदगी का सह उत्पाद कचरा है। केवल दुनिया में हम ही कचरा नहीं उगलते, बल्कि पूरी दुनिया में कचरा एक समस्या है, किन्तु भारत में ये सबसे बड़ी समस्या है। दुनियाभर में कूड़े कचरे का निस्तारण एक बड़ी समस्या है। विश्व बैंक के अनुसार 2020 में दुनिया भर में 2.24 अरब टन कचरा पैदा हुआ था। इसका अर्थ यह है कि हर व्यक्ति ने प्रतिदिन 0.79 ग्राम कचरा पैदा किया। वर्ल्ड बैंक का मानना है कि जिस तेजी से आबादी बढ़ रही है, उस हिसाब से 2050 में 3.88 अरब टन कचरा पैदा हो जाएगा।
हम मनुष्य स्वस्थ्य रहने के लिए तमाम सन्देश जानवरों से सीखते हैं। हमारे हजारों साल पुराने आसनों में जानवरों की मुद्राओं का महत्वपूर्ण स्थान है। हमारे यहां कहा जाता है कि कुत्ता भी बैठने से पहले अपनी पूछ से सफाई करता है, लेकिन हम इंसान कुत्तों से भी नहीं सीखना चाहते। हमें गंदगी प्रिय है। ऐसे में बेचारे स्थानीय निकाय और महात्मा गांधी क्या कर लेंगे? जागो ! भाई जागो !! समय हाथ से निकला जा रहा है।

achalrakesh1959@gmail.com