जिंदगी है खेल, कोई पास, कोई फेल

– राकेश अचल

सीबीएसई बोर्ड द्वारा आयोजित 10वीं और 12वीं की परीक्षाओं के परिणाम आने के बाद देश में लाखों घरों में खुशी का माहौल है, लेकिन कुछ घर ऐसे भी हैं जहां ये खुशी आते-आते रह गई। खुशियों के आने-जाने और ठिठकने का ये क्रम युगों से चल रहा है। तब से जब इस तरह की परीक्षाएं नहीं होती थीं। परीक्षाओं में पास-फेल होना एक सामन्य प्रक्रिया है। इससे हताश होने की जरूरत नहीं है।
पिछले कुछ दशकों में परीक्षा पास करना छात्रों का मकसद नहीं रहा, बल्कि प्रतिस्पर्धा इस बात की है कि कौन कितने ज्यादा अंक हांसिल करे। यानि बहुत से छात्र तो 100 में से 100 अंक पाने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा देते हैं। कुछ छात्र ऐसा करने में सफल भी होते हैं, लेकिन इससे न उनकी मेधा में आठ चांद लगते हैं, हां वे औरों की तुलना में जीनियस जरूर कहे जाते हैं। हालांकि ऐसे प्रतिभाशाली छात्र आम जीवन के बारे में बहुत कुछ नहीं जानते। सीबीएसई बोर्ड की 12वीं की परीक्षा के लिए कुल 16 लाख 80 हजार 256 छात्रों ने पंजीयन कराया था, इनमें से 16 लाख 60 हजार 511 छात्र परीक्षा में शामिल हुए और 87.33 प्रतिशत उत्तीर्ण भी हो गए, यानि कुल 14 लाख 50 हजार 174 छात्र उत्तीर्ण हुए, इस लिहाज से ये एक अच्छा आंकड़ा है।
सीबीएसई बोर्ड ने अध्ययन, अध्यापन और परीक्षाओं का एक स्तर कायम किया है। इसलिए इसकी महत्ता दूसरे वोर्डों से अधिक है। इस साल सीबीएसई परीक्षा के लिए कुल 38 लाख 83 हजार 710 स्टूडेंट्स ने रजिस्ट्रेशन किया था। जिसमें से कक्षा 10वीं परीक्षा में 21 लाख 86 हजार 940 छात्र शामिल हुए थे। 10वीं में 94.25 प्रतिशत लड़कियों ने पास किया, तो वहीं लडक़ों का पास प्रतिशत 92.27 रहा। लड़कियों का पास प्रतिशत लडक़ों से 1.98 फीसदी ज्यादा रहा। वहीं 12वीं की परीक्षा में 90.68 फीसदी लड़कियां उत्तीर्ण हुईं, वहीं लडक़ों का प्रतिशत 84.67 रहा, जो 6.01 फीसदी अधिक है। यानि यहां लड़कियों ने बाजी मारी।
दरअसल परीक्षाओं को लेकर एक व्यामोह हमने ही पैदा किया है, अन्यथा ये परीक्षाएं भी जिंदगी की दूसरी परीक्षाओं जैसी ही हैं। इन परीक्षाओं की तैयारियों के लिए अभिभावक अपने बच्चों पर लाखों रुपए खर्च करते हैं। बच्चों को प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयार करने के नाम पर देश में कोचिंग का अरबों-खरबों का जो धंधा शुरू हुआ है वो ही स्वस्थ्य प्रतियोगिता के अवसरों को समाप्त कर रहा है। यदि हमारे स्कूलों में ही शिक्षा का स्तर सुधार दिया जाए तो कोचिंग की जरूरत ही न पड़े।
हमारे जमाने में इस तरह की न मारामारी थी और न छात्रों पर अधिक नंबर लाने का दबाब। ये परीक्षाएं जीवन के किसी भी क्षेत्र के लिए न अनिवार्य हैं और न अपरिहार्य। शिक्षा को छोड़ किसी भी क्षेत्र में इन परीक्षाओं से निकले छात्रों को कुछ हासिल नहीं होता। आज भी भारत जैसे देश में राजनीति, व्यवसाय और प्रबंधन के क्षेत्र में ऐसे लोग शीर्ष पर हैं जिन्होंने सीबीएसई बोर्ड जैसी कठिन परीक्षाएं पास नहीं कीं। ऐसे लोग भारत भाग्य विधाता है। ऐसे में इन परीक्षाओं में उत्तीर्ण न होने वाले और कम अंक लाने वालों को निराश नहीं होना चाहिए। उनका भविष्य कल भी बेहतर था, आज भी बेहतर है। जरूरत इस बात की है कि वे अपनी पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान दें।
हमारे शिक्षक कहा करते थे कि 24 घण्टे में से आठ घण्टे सोने के लिए, आठ घण्टे पढऩे के लिए और आठ घण्टे सामन्य जीवन की दीगर गतिविधियों में व्यस्त रहने के लिए बनाए गए हैं। अर्थात आपको परीक्षाएं पास करने के लिए 18 घण्टे पढऩे की जरूरत नहीं है। आप जो काम 18 घण्टे में करते हैं वो ही काम आठ घण्टे में भी हो सकता है, लेकिन शर्त है कि ये आठ घण्टे एकाग्रता के हों। इनमें कोई मोबाइल न हो, कोई मित्र न हो। लेकिन आमतौर पर ऐसा नहीं होता। बल्कि इसका उलटा होता है। बेहतर अंक लाने के फेर में छात्र मशीन बना दिए जाते हैं। सुबह जागने से लेकर सोने तक पढ़ाई ही पढ़ाई होती है। न खेल, न दूसरा और कोई काम। ऐसे में छात्र अपनी एकाग्रता खो बैठते हैं। भटक जाते हैं। रात को उल्लू की तरह जागते हैं और हांसिल क्या होता है?
10वीं और 12वीं की परीक्षाएं भावी जीवन की आधार शिला होती हैं, इसलिए इन्हें गंभीरता से लेने की जरूरत तो है, लेकिन इनको लेकर दीवाना होने की कोई जरूरत नहीं है। यदि आप उत्तीर्ण नहीं हो पाए हैं या आपके अंक आपकी अपेक्षा के अनुसार नहीं आए हैं तो स्यापा मत कीजिए। नए सिरे से अगली परीक्षा की तैयारी में जुट जाइये। कम अंक आने या अनुत्तीर्ण होने से ग्लानि पैदा मत होने दीजिए। सफलता और असफलता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो आज असफल है, उसका कल सफल होना तय है। असफलता की वजह से भविष्य का सफर रोका नहीं जाना चाहिए। सो बच्चो खूब पढ़ो, खूब खेलो, सब ठीक हो जाएगा।
मेरा अपना अनुभव ये है कि ज्यादा अंक लाने वाले तमाम छात्र जिंदगी की परीक्षा में अक्सर फेल हो जाते हैं। वे स्नातक और परा स्नातक परीक्षाएं उत्तीर्ण कर अच्छी नौकरियां तो हासिल कर लेते हैं किन्तु निजी जीवन में घोंचू साबित होते है। और जो सामन्य छात्र होते हैं वे ही असामान्य उपलब्धियां करके दिखते हैं। मैं खुद बोर्ड परीक्षा में नाकाम हो गया था। लेकिन मेरे बेटे ने मुझे पीछे छोड़ा। मेरी दोहती ने मेरे बेटे को भी पीछे छोड़ दिया। यानि ये सिलसिला चलता ही रहता है। मेरा बेटा देश के किसी बहुत स्थापित संस्थान से नहीं पढ़ा, लेकिन आज वो दूसरों से बेहतर है। बेहतर होने के लिए अंक नहीं विवेक काम आता है और विवेक का इन परीक्षाओं से कोई लेना देना नहीं है।
सवाल ये है कि ये परीक्षाएं आपको क्या बनाती हैं? ज्यादा से जायदा नामचीन संस्थानों में प्रवेश दिलाती हैं। लेकिन बाद जो हांसिल करना है आपको ही करना है। लक्ष्य साफ हो तो वो किसी संस्थान का मोहताज नहीं होता। क्योंकि ऐसे संस्थानों में बच्चों को कोई स्वर्णभस्म नहीं खिलाई जाती। वो ही सब पढ़ाया जाता है जो दूसरे संस्थानों में पढ़ाया जाता है। इसलिए ‘नर हो, न निराश करो मन को, आराम करो, आराम करो’ और नई परीक्षाओं कि लिए खुद को तैयार करो। सभी को बधाई और शुभकामनाएं।