– राकश अचल
जुबान की फिसलन आपसे लोकसभा की सदस्यता छीन सकती है, ये जानते हुए भी मल्लिकार्जुन खडग़े साहब की जुबान का फिसलना कुछ जमा नहीं। खडग़े को मैंने खडग़े साहब इसलिए कहा, क्योंकि वे देश की सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस के निर्वाचित अध्यक्ष हैं। पकी उम्र के हैं, सो उनकी जुबान सरस होना चाहिए।
कहते हैं कि जुबान भले ही खडग़ की भांति चले किंतु रहे हमेशा सरस, शहद में लिपटी हुई। जुबान खडग़ भी है और कैंची भी। अगर चली तो कुछ न कुछ कटेगा जरूर। कुछ नहीं तो जनता की अदालत में नंबर ही कट सकते हैं। खडग़े जी समझदार हैं सो उन्होंने फौरन खेद जताया और स्पष्ट भी किया कि उनका आशय क्या था? राजनीति में सारा खेल आशय और महाशय का ही है। हमारी हिन्दी और संस्कृत इतनी संपन्न भाषा है जिसमें अंधे को अंधा और जहरीले को जहरीला कहने की आवश्यकता ही नहीं है। अवधी और बुंदेली में जहर के लिए बड़ा ही मधुर शब्द ‘माहुर’ है। आप जहरीले के लिए हलाहल, गरल, कालकूट, विष का इस्तेमाल कर सकते थे। लेकिन नहीं किया। मेरे ख्याल से तो जुबान का पर्यायवाची भी खडग़ होना चाहिए। कतरनी भी बुरा शब्द नहीं है। लेकिन नेता लोग पढ़ते-लिखते नहीं है। उनका शब्द कोश बहुत छोटा है। इसीलिए अक्सर फंस जाते हैं। मामला अदालत तक पहुंच जाता है। कभी माफी मांगी जाती है तो कभी सजा भी भुगतनी पड़ती है। अदालतें भी सजा उन्हें सुनाती हैं, जिनसे उन्हें सभ्य होने की अपेक्षा होती है। दुर्भाग्य ये कि अब खडग़े ही नहीं बल्कि राजा-महाराजा तक टपोरी शब्दावली पर आश्रित हो गए हैं।
वैसे भी सांप को सांप, बिच्छू को बिच्छू, गधे को गधा, चोर को चोर कहना अब मानहानिकारक माना जाता है। आखिर सांप, बिच्छू, गधे, चोर और चूहे की भी अपने समय और समाज में इज्जत होती है। साख होती है। अब आप कोबरा को कउचलएंड़ या तक्षक को दोमुंहा सांप कहेंगे तो सांप और उसके चाहने वाले बुरा तो मानेंगे न। राजनीति में भाषा और भाषण का बड़ा महत्व है। जो अच्छा भाषण, अच्छी भाषा में नहीं दे सकता उसे जनता की अदालत में पेश ही नहीं किया जाता। ऐसे नेताओं को पिछले दरवाजे से यानि राज्यसभा से संसद में भेजा जाता है। जैसे हमारे डॉक्टर मनमोहन सिंह जी। बढिय़ा भाषा और भाषण वीर हमेशा लोकसभा से संसद में आते हैं, जैसे अटल बिहारी वाजपेई आदि। इसलिए राजनीति में आने से पहले भाषा का अभ्यास भी जरूरी है।
खडग़े जी की तरह अतीत में भी लगभग सभी महान राष्ट्रवादी, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के नेताओं की जुबानें फिसलती रहीं हैं। मैं भी इस विषय पर लगातार लिखता ही रहता हूं। क्योंकि मैं शुरू से भाषा के प्रति संवेदनशील रहा हूं। मैंने सदैव भाषा की सुचिता की हिमायत की है। खडग़े जी हों या मोदी जी, सभी से देश, दुनिया श्रेष्ठ भाषा और भाषणों की अपेक्षा करता है। करना चाहिए। ‘महाजनो येन गत: से पंथ:’ का निहितार्थ भी यही है। लेकिन कोई इस सत्य को तैयार ही नहीं है। देश की संसद ने तो अपने लिए संसदीय और असंसदीय शब्दों की सूची बना ली है, किंतु संसद के बाहर के लिए कोई शब्दावली तय नहीं की। इसीलिए नेताओं की जुबान फिसलती ही रहती है। जुबान को लगाम देना आसान काम नहीं। ये सतत साधना का काम है। हर कोई राजनीति में आ तो जाता हैं किंतु भाषा की साधना सबके लिए संभव नहीं। संविद पात्रा और सुरजेवाला ब्रांड नेताओं के लिए तो बिल्कुल भी नहीं।
खडग़े ने भूल सुधार ली, वरना कुछ भी हो सकता था। वे भी राहुल गांधी की गति को प्राप्त हो सकते थे। भूल सुधार करना, खेद प्रकट करना और माफी मांगना वीरों के आभूषण हैं। लगाने को तो घोड़े जैसी लगाम आदमी की जुबान में भी लगाई जा सकती है, किंतु इसे तालिबानी तरीका माना जाएगा। हालांकि अवाम की जुबान पर परोक्ष रूप से तमाम लगामें लगाई जा रही हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि वे लोहे की नहीं कानून की हैं, लेकिन हैं लोहे की लगामों से भी ज्यादा सख्त और कसैली।
कहने को तो भाषा, मुख से उच्चारित होने वाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह है, जिनके द्वारा मन की बात बताई जाती है। किसी भाषा की सभी ध्वनियों के प्रतिनिधि स्वर एक व्यवस्था में मिलकर एक सम्पूर्ण भाषा की अवधारणा बनाते हैं। व्यक्त नाद की वह समष्टि जिसकी सहायता से किसी एक समाज या देश के लोग अपने मनोगत भाव तथा विचार एक दूसरे से प्रकट करते हैं। मुख से उच्चारित होने वाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह जिनके द्वारा मन की बात बताई जाती है जैसे- बोली, जबान, वाणी विशेष और समझना हो तो भाषा को वैचारिक आदान-प्रदान का माध्यम भी कहा जाता है। भाषा आभ्यंतर अभिव्यक्ति का सर्वाधिक विश्वसनीय माध्यम है। यही नहीं वह हमारे आभ्यंतर के निर्माण, विकास, हमारी अस्मिता, सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान का भी साधन है। भाषा के बिना मनुष्य सर्वथा अपूर्ण है और अपने इतिहास तथा परम्परा से विच्छिन्न है।
भाषाविद् बताते हैं कि इस समय सारे संसार में प्राय: हजारों प्रकार की भाषाएं बोली जाती हैं, जो साधारणत: अपने भाषियों को छोड़ और लोगों की समझ में नहीं आतीं। अपने समाज या देश की भाषा तो लोग बचपन से ही अभ्यस्त होने के कारण अच्छी तरह जानते हैं, पर दूसरे देशों या समाजों की भाषा बिना अच्छी तरह सीखे नहीं आती। चलिए मामला बोझिल हो रहा है। इसलिए
ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोए।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।