ऋषितुल्य प्राचार्य डॉ. श्रीधर गोपाल कुंटे, जिन्हें हम भूल गए

– अनिल अग्निहोत्री
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तो उन दिनों माधव महाविद्यालय शहर का क्या कहें पूरे संभाग के उत्पाती छात्रों का केन्द्र था, जिन्हें कहीं प्रवेश नहीं मिलता वे इस महाविद्यालय में प्रवेश पा जाते। इस महाविद्यालय में सुविधाएं बहुत थीं। नौकरी पेशा लोग सुबह महाविद्यालय की कक्षाएं अटेंड कर अपने दफ्तर जा सकते थे। विधि संकाय में पढने वाले छात्र दिनभर नौकरी कर शाम को एलएलबी की कक्षाएं अटेंड कर सकते थे। महाविद्यालय में तत्समय दो प्रकार के छात्र थे। एक संसाधनहीन मध्यम वर्गीय प्रतिभाशाली छात्र जिन्हें अपना भविष्य गढना था और दूसरे वे जिन्हें राजनीति से बहुत लगाव था। इसमें भी दो धाराएं थीं- एक उच्छृंखल छात्र नेता और दूसरे विनयशील। सबके अपने-अपने खेमे थे। छात्र संख्या भी कोई तत्समय तकरीबन अढाई हजार से अधिक होगी।
ऐसी विषम परिस्थितियों में महाविद्यालयीन कक्षाएं सुचारू रूप से संचालन करने और छात्रों पर अचूक नियंत्रण रखने का दायित्व कीर्तिशेष प्राचार्य श्रीधर गोपाल कुंटे पर था। वे बहुत विनम्र थे और यही विनम्रता उन विपरीत परिस्थितियों में जहां स्थिति नियंत्रण से बाहर हो चुकी होती थी, उनका अमोघ अस्त्र बनती। वे विचलित नहीं होते थे पर अपनी कार्यशैली से छात्रों पर ऐसा प्रभाव डालते थे कि छात्र पानी-पानी हो जाते। अपने कृत्यों की क्षमा मांगते और भविष्य में ऐसी गलतियां न होने का संकल्प भी दोहराते।
माधव महाविद्यालय का उन दिनों शैक्षणिक स्टाफ उच्च कोटि का था। प्रो. हरिराम वर्मा, डॉ. विजय बापट, प्रभुदयाल शर्मा (हिन्दी), श्रीमती वाकणकर, प्रो. सुरेश अग्निहोत्री (अंग्रेजी), डॉ. श्रीमती कुदेशिया और सचदेवा सा (राजनीति विज्ञान), प्रो. मुनीन्द्र मोहन चतुर्वेदी (समाजशास्त्र), डूंगरवाल सा (वाणिज्य), श्रीमती सविता शेव डे (मराठी), चिंबा केलकर (संस्कृत) के अतिरिक्त बहुतेरी विद्वान विभूतियां थीं। डॉ. गोविन्द प्रसाद शर्मा (राजनीति विज्ञान) और डॉ. द्वारिकादास गोयल (समाजशास्त्र) जैसे प्रभृति विद्वान कुछ समय पहले ही महाविद्यालय छोडकर क्रमश: मुरैना और मथुरा के महाविद्यालयों में अपनी उपस्थिति दे चुके थे।
छात्र नेताओं में डॉ. कृष्णगोपाल गोस्वामी, मुकेश सिंह कुशवाह, कृष्णकांत समाधिया, राजेन्द्र शर्मा, कल्याण सिंह कौरव, रघुवीर सिंह तोमर सहित केशव सिंह तोमर (नगरा वाले) की महाविद्यालय में तूती बोल रही थी। विनम्र धारा के राजनैतिक छात्रों में गोस्वामी, समाधिया, मदन मोहन श्रीवास्तव, नारायण शर्मा और गंगाजली वाले जैसे छात्र नेता थे। डॉ. गोस्वामी अपनी विनयशीलता के कारण महा सचिव से लेकर अध्यक्ष तक के कई चुनाव वर्षों से जीतते चले आ रहे थे और उनका तिलिस्म तोडना उन छात्र नेताओं को बहुत दुष्कर जा रहा था जिन्हें अहिंसा का पथ बिल्कुल पसंद नहीं था (बाद में यह टूटा भी)। यही कारण था कि कृष्णगोपाल गोस्वामी प्राचार्य कुंटे जी के अंतत: विश्वास भाजक बने रहे। कई लोग विनोद में उन्हें कुंटे जी का दत्तक पुत्र भी कहते।
कुंटे जी का निवास ठीक माधव महाविद्यालय के सामने ‘परमात्म छाया’ में था। यह भव्य भवन उनका स्वयं का था। बस उन्हें सडक पार करनी होती थी। वे प्रात:काल अपने नित्य नैमित्तिक क्रिया कलापों से निवृत होकर सर्वप्रथम हनुमान चौराहे पर मारुति दर्शन लेते और समय के पूर्व महाविद्यालय पहुंच जाते। वे प्राचार्य की कुर्सी पर अधिक बैठने के अभ्यस्त नहीं थे। वे उठते और देखते कि कक्षाएं ठीक से चल रही हैं या नहीं। प्रत्येक कक्षा का निरीक्षण करते। जो प्राध्यापक अनुपस्थित रहते उनकी वैकल्पिक व्यवस्था करते और यदि वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो सकी तो स्वयं पढाने लगते। उन्हें आंगन में घूमते हुए लडके अप्रिय लगते और वे उनसे अपनी कक्षाओं में जाने और पढने की गुहार लगाते। ऐसा सब करते-करते उनके दो तीन घण्टे कब, कैसे और कहां निकल जाते, उन्हें स्वयं ही पता न चलता। वे सहिष्णु और दयालु थे। वे फूल से कोमल थे पर वज्रादपि कठोर कतई नहीं। प्रत्येक छात्र को अपना पुत्र समझने का भाव रखते और बिना आक्रोशित हुए छात्रों की समस्याओं का समाधान करते।
माधव महाविद्यालय (पुराने भवन) में पहले घुसते ही एक विशाल आंगन होता था। उसमें चार कतारों में क्रमबद्ध साइकिलें रखी जाती थीं। छात्रों को रखने के लिए वहीं जगह निर्धारित थी। कुछ उद्दण्ड छात्र एक साइकिल में लात मारते और भरभरा कर बीसियों साइकिल एक दूसरे पर गिर पडती और चले जाते। कुंटे सा वहां से निकलते और एक-एक साइकिल को उठाते और उसे क्रमबद्ध स्वरूप में पूर्ववत आकार देते। कुछ सदाशयी छात्र गुजरते और कहते- सर! रहने दीजिए। उनका प्रत्युत्तर रहता- कोई बात नहीं। आप कक्षा में जाकर पढाई कीजिए। मैं यह सारा काम कर लूंगा। उनकी इस विनयशीलता का छात्रों पर प्रभाव पडता। वे पानी-पानी हो जाते और प्रयास करते कि कोई अक्षम्य चूक महाविद्यालय परिसर न होने पाए जिससे ऋषितुल्य गुरुदेव को कष्ट पहुंचे।
कुंटे जी नियम और अनुशासन की पालना बडी दृढता से करते थे। वे कोई बात कहने से पहले अपने आचरण में उतारते थे तदोपरांत ही। वे अपने शिष्यों को उस पर चलने का आग्रह और अनुग्रह करते। वे महाविद्यालय में नंगे सिर कभी नहीं आए। हमेशा उनका व्यक्तित्व टोपी से ही दीप्तिमंत होता था। विप्रभाल चंदन बिना की अनुपालना हेतु एक कुमकुम का टीका भी होता। वे छात्रों के प्रति अनुराग रखते। वे यह भी चाहते थे कि प्रत्येक छात्र यहां से शिक्षा ग्रहण कर सामाजिक जीवन में ऊंचाईयों का संस्पर्श करे। वे अपने तइं एक संस्कारक्षम पीढी तैयार करना चाहते थे, जिससे वे राष्ट्र निर्माण में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर सकें।
वे संघ के निष्ठावान स्वयंसेवक आजीवन रहे। भारत के पूर्व पंत प्रधान अटलजी उनके सखा थे और मुझे याद पडता है कि उनकी 75वी सालगिरह के कार्यक्रम में अटलजी ने अपनी उपस्थिति से कार्यक्रम को गौरव गरिमा प्रदान की थी। स्मृतिशेष कुंटे जी जैसा आदर्श अध्यापक/ प्राचार्य मिलना अब बहुत मुश्किल काम है। जिन्होंने उन्हें देखा है या तत्समय महाविद्यालय में शिक्षा ग्रहण की होगी वे जानते होंगे कि इतने आत्मीय, पुत्रवत स्नेह करने वाले अध्यापक अब मिलने से रहे। अब न महाविद्यालयों में वैसे प्राचार्य हैं और न वैसे छात्र। श्रद्धेय कुंटे जी की स्मृतियों को अशेष प्रणाम और वंदन।