राजा-रानियों पर लट्टू मोहन बाबू की सरकार

– राकेश अचल


मप्र में भाजपा सरकार राजा और रानियों पर लट्टू है। मप्र में भाजपा 2003 में सत्ता में आई थी, जनता ने भाजपा को 20018 के विधानसभा चुनाव में उखाड फेंका था, लेकिन मात्र 19 महीने बाद ही एक स्वयंभू महाराज की कृपा से भाजपा पुन: सत्ता में लौट आई तो भाजपा का राजा-रानी प्रेम और बढ गया। आज-कल भाजपा प्रदेश के अनेक राजा-रानियों को सम्मानित करने में खजाना लुटा रही है।
आपको याद होगा कि भाजपा सरकार ने सबसे पहले भोपाल के हबीबगंज स्टेशन का नाम बदलकर एक आदिवासी गोंड रानी कमलापति को सम्मान देते हुए हबीबगंज स्टेशन का नाम रानी कमलापति स्टेशन कर दिया। मप्र के लोग रानी कमलापति को भूल चुके थे, लेकिन भाजपा ने उन्हें खोज निकाला। रानी कमलापति 18वीं शताब्दी की भोपाल की अंतिम गोंड रानी थीं। उनका विवाह गिन्नौरगढ़ के गोंड राजा निजाम शाह से हुआ था, जिनकी सात पत्नियों में से कमलापति सबसे प्रिय थीं। वे सीहोर के सलकनपुर रियासत के राजा कृपाल सिंह सरौतिया की बेटी थीं और अपनी सुंदरता, बुद्धिमत्ता और साहस के लिए जानी जाती थीं। कमलापति कुशल घुड़सवार, धनुर्धर और सेनापति थीं, जिन्होंने अपने पिता की सेना के साथ युद्धों में हिस्सा लिया। 1720 में निजाम शाह की उनके भतीजे आलम शाह (या कुछ स्त्रोतों में चैन सिंह) द्वारा जहर देकर हत्या के बाद रानी कमलापति अपने बेटे नवल शाह के साथ भोपाल के कमलापति महल में आ गईं। उन्होंने अपने पति की हत्या का बदला लेने के लिए अफगान सरदार दोस्त मोहम्मद खान से मदद मांगी, जिसके बदले में उन्होंने एक लाख रुपए देने का वादा किया। दोस्त मोहम्मद ने आलम शाह को मार दिया, लेकिन रानी पूरी राशि नहीं दे पाईं और भोपाल का हिस्सा देना पड़ा। बाद में दोस्त मोहम्मद ने भोपाल पर कब्जा करने की कोशिश की और रानी को अपने हरम में शामिल करने का प्रस्ताव रखा। अपनी और अपने बेटे की रक्षा के लिए रानी ने विरोध किया। 1723 में जब दोस्त मोहम्मद ने हमला किया, रानी के 14 वर्षीय बेटे नवल शाह ने लाल घाटी में युद्ध लड़ा, जिसमें उनकी मृत्यु हो गई। रानी ने अपनी आबरू और भोपाल को बचाने के लिए महल के पास तालाब में अपनी संपत्ति डालकर जल समाधि ले ली। उनके बलिदान के बाद भोपाल में नवाबों का शासन शुरू हुआ। रानी कमलापति की वीरता और साहस के सम्मान में भोपाल के हबीबगंज स्टेशन का नाम 2021 में उनके नाम पर रखा गया।
रानी कमलापति के बाद हाल ही में इंदौर की रानी अहिल्या बाई को सम्मान देने के लिए मप्र सरकार ने अहिल्या बाई होलकर की 300वीं सालगिरह पर इंदौर के राजवाडा में मंत्रिमण्डल की बैठक पर करोडों रुपए फूंक दिए। अहिल्या बाई होल्कर (31 मई 1725-13 अगस्त 1795) मराठा साम्राज्य की होल्कर रियासत की रानी थीं, जिन्हें उनकी प्रशासनिक कुशलता, साहस और समाज सुधार के लिए जाना जाता है। वे मालवा की रानी थीं और अपने पति खांडेराव होल्कर की मृत्यु के बाद उन्होंने होल्कर राज्य का नेतृत्व संभाला।
अहिल्या बाई ने अपने शासनकाल में मालवा को समृद्ध और सुव्यवस्थित बनाया। उन्होंने न्याय, व्यापार और कृषि को बढ़ावा दिया। उन्होंने विधवाओं के पुनर्विवाह को प्रोत्साहन दिया और सामाजिक भेदभाव को कम करने के प्रयास किए। धार्मिक और सांस्कृतिक कार्य: अहिल्या बाई ने कई मन्दिरों, घाटों और धर्मशालाओं का निर्माण करवाया, जिनमें काशी विश्वनाथ मन्दिर का पुनर्निर्माण और सोमनाथ मन्दिर की मरम्मत शामिल हैं। उन्होंने होल्कर सेना को मजबूत किया और कई युद्धों में अपनी रणनीतिक कुशलता दिखाई। अहिल्या बाई को उनकी सादगी, धर्मनिष्ठा और जनता के प्रति समर्पण के लिए याद किया जाता है। उन्हें पुण्यश्लोक (पवित्र ख्याति वाली) कहा जाता है।
अहिल्या बाई को सम्मान देने के बाद राज्य सरकार को अचानक एक और आदिवासी राजा भभूत सिंह को सम्मानित करने की याद आ गई। राज्य सरकार न राजा भभूत सिंह को सम्मानित करने के लिए मंत्रिमण्डल की बैठक पचमढी में आयोजित कर डाली। अब आप कहेंगे कि ये कौन से राजा हैं, तो आपको बता दें कि राजा भभूत सिंह मध्य प्रदेश के पचमढ़ी क्षेत्र के एक जनजातीय शासक थे, जिन्होंने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के खिलाफ महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सतपुड़ा की वादियों में उन्होंने तात्या टोपे के साथ मिलकर अंग्रेजी शासन का मुकाबला किया। वे हर्राकोट के जागीरदार थे और जनजातीय समाज पर उनका गहरा प्रभाव था।
राजा भभूत सिंह ने गुरिल्ला युद्ध पद्धति का उपयोग कर अंग्रेजों को परेशान किया, खासकर देनवा घाटी में, जहां उनकी सेना ने अंग्रेजी फौज को हराया। उनकी रणनीति शिवाजी महाराज की छापामार युद्ध शैली से मिलती-जुलती थी। 1858 में तात्या टोपे के साथ नर्मदा नदी पार करने और स्वतंत्रता संग्राम को मजबूत करने में उनकी भूमिका उल्लेखनीय थी। हालांकि 1860 तक वे अंग्रेजों से सशस्त्र संघर्ष करते रहे, लेकिन अंतत: उन्हें पकडऩे के लिए ब्रिटिश सेना को विशेष प्रयास करने पड़े। उनकी वीरता और नेतृत्व को मध्य प्रदेश सरकार द्वारा हाल के वर्षों में सम्मानित किया गया है, जैसे कि 3 जून 2025 को पचमढ़ी में उनकी स्मृति में आयोजित कैबिनेट बैठक और पौधरोपण कार्यक्रम।
भाजपा दरअसल राजा-रानियों की अनुकंपाओं से उऋण होना चाहती है। पूर्व में भाजपा ने ग्वालियर की राजमाता के नाम से कृषि विश्वविद्यालय बनाया तो राजा मानसिंह तोमर के नाम से संगीत विश्वविद्यालय बना दिया। पूरे प्रदेश में राजा-रानियों की दर्जनों प्रतिमाएं लगी हैं। ग्वालियर में सिंधिया, जबलपुर में रानी दुर्गावती, रानी लक्ष्मीबाई, अहिल्या देवी की प्रतिमाएं बनाने में भाजपा की तरह कांग्रेस ने भी कभी कंजूसी नहीं दिखाई।
आने वाले दिनों में पता नहीं किस राजा या रानी को सम्मान देने के लिए खोज लिया जाए। मप्र सरकार राजा-रानियों के बिना शायद चल ही नहीं सकती। कांग्रेस ने भी दशकों तक राजा-रानियों को झेला। राजा नरेन्द्र सिंह, अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह, महाराज माधवराव सिंधिया कांग्रेस के लिए पूजनीय रहे थे। भाजपा ने भी अनेक राजा मंत्रिमण्डल में रखे। एक थे मानवेन्द्र सिंह जो मंत्री बनाए गए थे। एक हो तो गिनाएं भी, मप्र में तो राजा-रानियों की इफरात है।