समाजसेवी जेठानंद की पुण्यतिथि पर विशेष-
भिण्ड, 24 दिसम्बर। एक समय में भिण्ड जातिवादी नहीं वैचारिक सियासत का गढ़ हुआ करता था। समाजवाद के पेड़ पर बाबू रघुवीर सिंह कुशवाह, चौधरी दिलीप सिंह, भूपत सिंह, श्याम सुंदर जादौन, कांग्रेस के वृक्ष पर राव साहब यानी नरसिंह राव दीक्षित, गोपाल मिश्रा, कम्युनिस्ट पार्टी से स्वाधीनता सेनानी श्रीनाथ गुरू और कामरेड गंगाशंकर मिश्रा और जनसंघ फिर भाजपा से शिवशंकर समाधिया, रामकुमार चौधरी, रामकिशन जादौन और वैचारिक पृष्ठभूमि पर रामभुवन सिंह कुशवाह, केपी सिंह, आलोक तोमर और देव श्रीमाली जैसे पत्रकार अपना शैशव गढ़ रहे थे। ये नाम प्रतीकात्मक है संख्या सैकड़ों में है। वोटर से लेकर वोट देने वाला तक बागी तेबर में रहता था। सरकार किसी की बने यहां से अपवाद को छोड़कर विपक्षी ही जीत का वरण करते थे। दिल्ली भोपाल के अपने संसद भवन थे लेकिन भिण्ड का संसद भवन था गांधी मार्केट स्थित जेठा का होटल।
जेठानंद विभाजन का दंश लेकर पाकिस्तान से भारत आए और फिर इस अनजान शहर में कैसे आए? नहीं पता, लेकिन वे यहां के एक स्तंभ बन गए। गांधी मार्केट पर एक कोने पर सार्वजनिक वाचनालय एवं पुस्तकालय था। जहां सरकारी नौकरी की चाह रखने वालों की भीड़ रहती थी क्योंकि सभी अखबार वहां आते थे और तब सबकी अखबार खरीदने की क्षमता नहीं थी लिहाजा अमीर का हो या गरीब का सबके बेटे एक छत के नीचे घण्टों रहते थे और अखबार पढ़ते थे, यहां समाजवाद था। एक और जगह थी जहां सभी अखबार आते थे। वह था मार्केट के दूसरे सिरे पर बना जेठा का होटल।
यह देश का संभवत पहला होटल था जहां सत्तर-अस्सी के दशक में भी आरक्षण था। होटल का एक हिस्सा सिर्फ सफाई कर्मियों के लिए आरक्षित था। होटल तड़के चार बजे इसलिए खुलता था ताकि सड़कों की सफाई करने वाले भाई और उनके सहकर्मी परिजन चाय पी सकें, अखबार पढ़ सकें। तब भिण्ड में दो मुख्य नेता और थे, एक थे अरेले यानी रामेश्वर दयाल अरेले जो कांग्रेस से विधायक बने थे और दूसरे थे चतुर्भुज फरेले जो सफाई कर्मियों के नेता थे। हर सफाई कर्मी अपने वेतन से उन्हें एक से लेकर पांच रुपए माहवार देता था जिससे उनका घर खर्च और राजनीति चलती थी। जेठा का होटल खचाखच भरा रहता था। उनकी एक पीतल की बड़ी टंकी नुमा कोई चीज थी, जिसमें पानी खौलता रहता था। उनकी चाय की खुशबू डोर से आने लगती थी। वे कप प्लेट में ही चाय देते थे। कम बोलते थे लेकिन सुनते खूब थे। वकील हो या पत्रकार, नेता हो या स्टूडेंट, व्यापारी हो या समाजसेवी हर हस्ती वहां चक्कर जरूर मारती थी। देश में, प्रदेश में और अंचल में क्या हुआ? और क्या संभावित है? इसका अंदाजा सिर्फ जेठा के होटल पर कुछ क्षण गुजारने पर ही लग जाता था, यह वौद्धिक थियेटर भी था। यहां आने वाले 99 फीसदी स्थाई ग्राहक थे। हर टेबल पर किसी अखबार के दफ्तर की तरह अखबार बिछे रहते थे। जेठा ही नहीं उनके कर्मचारियों तक को पता था कि कौन आगंतुक कौन सा अखबार पढ़ता है? उसे तत्काल मुहैया कराया जाता था। पैसे कोई नहीं मांगता था। देने वाला खुद हिसाब रखता था हालांकि जेठा की पैनी नजर भी रहती थी, वे कॉपी पर खाते में लिख भी लेते थे, मांगते नहीं थे।
जेठा का होटल सिर्फ चाय बेचने की दुकान नहीं थी बल्कि वैचारिक रूप से मजबूत करने की ऐसी पाठशाला थी जिसमे जाति-पांत से इतर भाईचारे से रहने की सीख मिलती थी। परस्पर विरोधी विचार तो मिलते ही थे बल्कि उनको सुनने की सहिष्णुता भी जीवित होती थी। वह सेलेब्रिटी केम्पस था तो सफाई कर्मियों का फक्र भरा अड्डा। यह भिण्ड के सुनहरे अतीत के दिनों की बात है। तब बहस तो होती थी लेकिन विवाद और मतभेद के लिए रत्तीभर भी स्पेश नही था। आज जेठानंद कटारिया की पुण्यतिथि है। अब भिण्ड में वैचारिकता की तरह जेठा के होटल का भी कोई अस्तित्व नहीं बचा। उनके बेटे रमेश कटारिया पारस अच्छे कवि है और ग्वालियर में रहते हैं। ये कहानी नहीं हकीकत है उस दौर की, जब दिल्ली के कनाट प्लेस स्थित इंडियन कॉफी हाउस वुद्धिजीवियों का अड्डा होता था और भिण्ड शहर में जेठा का होटल।