– राकेश अचल
जैसे सरकारी दफ्तरों में फाइलों पर बंधा एक लालफीता होता है, ठीक वैसे ही हमारी सरकारों, राजनीतिक दलों और निर्णायक संस्थाओं के पास एक ठण्डा बस्ता होता है। इस ठण्डे बस्ते में वे गर्म मुद्दे डाले जाते हैं जिनसे मुल्क में, समाज में आग लगने की आशंका होती है।
‘ठण्डा बस्ता’ एक हिन्दी मुहावरा है, जिसका अर्थ है किसी काम, योजना या मुद्दे को अनिश्चितकाल के लिए टाल देना या उसे नजरअंदाज करना। जब कोई चीज ठण्डे बस्ते में डाल दी जाती है तो इसका मतलब है कि उस पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही और वह प्राथमिकता से हट चुकी है। ठण्डे बस्ते का इस्तेमाल हर सरकार करती है। फिर चाहे सरकार किसी भी दल की हो। सरकारों की देखादेखी ठण्डे बस्ते का चलन हर संस्था में बढ गया है। हमारी कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका तक में ठण्डे बस्ते को पूरा पूरा सम्मान मिलता आया है।
ठण्डे बस्ते के आविष्कारक का पता नहीं है। इस पर शोध होना बांकी है। लगता है इस काम को भी ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया है। ठण्डा बस्ता दो शब्दों से मिलकर बनता है। एक शब्द है ‘ठण्डा’ और दूसरा है ‘बस्ता’। ठण्डा को हिन्दी में शीतल कहते हैं और बस्ते को पटका। ठण्डे बस्ते के शब्द को लेकर गफलत है। कोई इसे हिन्दी का शब्द मानता है तो कोई उर्दू का। लेकिन मैं इसे हिन्दुस्तानी शब्द मानता हूं। मैं ठण्डे बस्ते की ‘कूलिंग’ क्षमता का मुरीद हूं। मेरी अखण्ड मान्यता है कि यदि हमारे पास ठण्डा बस्ता न होता तो लोकतंत्र खतरे में पड जाता। लोकतंत्र को खतरे से बचाने के लिए हमारे यहां इमरजेंसी का इस्तेमाल किया गया, लेकिन दांव उलटा पडा। लोगों ने इमरजेंसी को ही लोकतंत्र के लिए खतरा मान लिया और इसके खिलाफ जनादेश दिया, लेकिन ठण्डे बस्ते के साथ ऐसा नहीं है।
देश में पिछले 11 साल में ऐसे दर्जनों नजीरें सामने आई हैं, जहां लोकतंत्र बचाने के नाम पर इमरजेंसी के बजाय ठण्डे बस्ते का इस्तेमाल किया गया और एक भी जनादेश ठण्डे बस्ते के खिलाफ नहीं आया। ठण्डे बस्ते का सर्वाधिक इस्तेमाल हमारे लोकप्रिय नेता और सरकारें करती हैं। आपको याद होगा कि देश में किसानों ने सालों साल चलने वाला एक आंदोलन 3 कृषि कानूनों के खिलाफ किया था। आंदोलन में 700 से ज्यादा किसान शहीद हुए थे। हार कर सरकार ने तीनों कानूनों को वापस लेकर ठण्डे बस्ते में डाल दिया और आज तक उन्हें बाहर नहीं निकाला। सरकार जो भी नया कानून बनाती है उसमें से अधिकांश को ठण्डे बस्ते में जाना ही पडता है। जो कानून और जो फैसले ठण्डे बस्ते में नहीं जाते उन्हें बाद में मुसीबतों का सामना करना पडता है।
सरकार की तरह देश की तमाम छोटी बडी अदालतें भी ठण्डे बस्ते का इस्तेमाल करती हैं। अदालतों में तमाम मामलों में सुनवाई पूरी होने के बाद फैसले सुरक्षित रख लिए जाते हैं। ये फैसले ठण्डे बस्तों में ही तो रखे जाते हैं। ताजा फैसला वक्फ बोर्ड कानून का है। आप सरकार हो या अदालत किसी को भी ठण्डा बस्ता खोलने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। ये सभी निर्णायक संस्थाओं का संवैधानिक अधिकार है। अभी तक इस अधिकार को किसी अदालत में चुनौती नहीं दी गई। इसीलिए ठण्डे बस्ते वजूद में हैं।
हमारे यहां जितनी भी छोटी-बडी जांच एजेंसियां हैं वे ठण्डे बस्तों का इस्तेमाल करती हैं। पुलिस, ईडी, सीबीआई सभी को ठण्डे बस्ते प्रिय हैं। ये जांच एजेंसियां देश काल, परिस्थिति के अनुरूप ठण्डे बस्तों का इस्तेमाल करती आई हैं। आगे भी करती रहेंगी। देश के ठण्डे बस्ते हमेशा सार्थक साबित होते हैं। ठण्डे बस्तों को बांधना और खोलना भी एक ललित कला है। कब किस मुद्दे को ठण्डे बस्ते में डालना और कब, किस मुद्दे को ठण्डे बस्ते से निकालना है।
भारत में ऐसे कई मामले हैं, जिनमें आपराधिक, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, और सामाजिक मुद्दों से जुडे मामले शामिल हैं। 1984 सिख विरोधी दंगों के कई मामले आज भी पूरी तरह सुलझे नहीं हैं। कई पीडितों को अभी तक न्याय नहीं मिला, और कुछ प्रमुख आरोपी कानूनी प्रक्रिया की जटिलताओं के कारण सजा से बचते रहे। हाई-प्रोफाइल हत्याएं जेसिका लाल हत्याकाण्ड (1999) और प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकाण्ड (1996), लंबे समय तक लंबित रहे। हालांकि इनमें अंतत: सजा हुई, लेकिन देरी ने सिस्टम की कमियों को उजागर किया। नदिमार्ग नरसंहार (2003) के मामले में, 2022 में जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट ने फिर से सुनवाई शुरू करने के निर्देश दिए, क्योंकि यह मामला लंबे समय तक ठण्डे बस्ते में रहा। बोफोर्स घोटाला (1980-90) बोफोर्स तोप सौदे में कथित रिश्वत के मामले की जांच दशकों तक चली, लेकिन कोई बडा दोषी सजा नहीं पाया। यह मामला समय के साथ ठंडा पड गया। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला (2008) इस बडे भ्रष्टाचार मामले में कई आरोपियों को अंतत: बरी कर दिया गया और जांच की धीमी गति ने इसे ठण्डे बस्ते में डाल दिया। कोयला घोटाला (कोलगेट) कोयला ब्लॉक आवंटन में अनियमितताओं के मामले में कई जांचें शुरू हुईं, लेकिन अधिकांश मामलों में ठोस परिणाम नहीं मिले।
आतंकवाद और सुरक्षा से जुडे मामले जैसे 1993 मुंबई बम धमाके के मामले में हालांकि कुछ मुख्य आरोपियों को सजा हुई, कई सह-आरोपी अभी भी फरार हैं, और कुछ पहलुओं की जांच अधूरी है। पठानकोट हमले (2016) की जांच में कई सवाल अनुत्तरित रहे, और मामला धीरे-धीरे सुर्खियों से बाहर हो गया। राजस्थान और अन्य राज्यों में दलितों के खिलाफ अत्याचार के कई मामले, जैसे करौली में दलित युवती की हत्या (2023), अभी तक पूरी तरह सुलझे नहीं हैं। महिलाओं के खिलाफ अपराध : कई बलात्कार और हिंसा के मामले, जैसे निर्भया केस के बाद के कुछ मामले, जांच और सुनवाई में देरी के कारण लंबित रहते हैं।
भारत में इंटरनेट शटडाउन के कई मामले, जैसे कश्मीर में 2019 के बाद हुए शटडाउन, कानूनी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, लेकिन कई याचिकाएं कोर्ट में लंबित हैं। दिल्ली शराब घोटाला (2021-22) : इस मामले में कुछ आरोपियों को राहत मिली, लेकिन जांच अभी भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुई। ठण्डे बस्ते में जाने के कारणन्यायिक प्रक्रिया में देरी : भारत में कोर्ट में लाखों मामले लंबित हैं। 2023 तक सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट्स में करीब 50 लाख मामले पेंडिंग थे। जांच एजेंसियों की सुस्ती : सीबीआई, एनआईए जैसी एजेंसियों पर संसाधनों की कमी और राजनीतिक दबाव के आरोप लगते हैं। साक्ष्यों का अभाव : कई मामलों में साक्ष्य एकत्र करने में देरी या गवाहों का सहयोग न मिलना। राजनीतिक हस्तक्षेप : कुछ मामलों में राजनीतिक प्रभाव के कारण जांच रुक जाती है। वर्तमान स्थिति कई संगठन और कार्यकर्ता इन मामलों को फिर से उठाने की कोशिश करते हैं। उदाहरण के लिए 2024 में दलित और आदिवासी संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट के आरक्षण से जुडे फैसले के खिलाफ भारत बंद का आह्वान किया, जिससे कुछ पुराने मुद्दों पर फिर से ध्यान गया।
यानि ठण्डे बस्तों की कथा अनंत है, अनादि है। मैं इसे यहीं समाप्त करता हूं, यानि ठण्डे बस्ते में डालता हूं। शुक्र मनाइये कि लालफीताशाही की तरह अभी देश में ठण्डा बस्ताशाही जैसी कोई चीज मुहावरा नहीं बनी है।