सन्यास लेने से क्यों डरते हैं हमारे नेता?

– राकेश अचल


ऑस्ट्रेलिया के धाकढ बल्लेबाज स्टीव स्मिथ ने वन-डे क्रिकेट से सन्यास लेकर सभी को चौंका दिया। दुनिया के तमाम क्रिकेटर स्मिथ की तरह ही क्रिकेट से एक तय समय के बाद खुद सन्यास लेने का सार्वजनिक ऐलान करते हैं, लेकिन दुनिया में खासतौर पर भारत में ऐसे बहुत कम नेता हैं जो स्वेच्छा से राजनीति से सन्यास लेने का ऐलान करते हों। भारतीय परम्परा में तो सन्यास जीवन की सर्वोत्कृष्ट अवस्था है। सन्यास की सनातन परम्परा सामंतकाल में भी थी, लेकिन लोकतंत्र में इसका परित्याग कार दिया। अकेली राजनीति ऐसी है जिसमें आश्रम व्यवस्था लागू नहीं होती। यानि न नेता ब्रह्मचर्य का पालन करता है, न गृहस्थ रहना चाहता है और न वानप्रस्थ में जाना चाहता है, सन्यास लेना तो बहुत दूर की बात है। राजनीति में जब कोई सन्यास नहीं लेता तो उसे मार्गदर्शक मण्डल में डाल दिया जाता है।
मैंने जब से होश सम्हाला है तभी से राजनीति में सक्रिय बहुत कम लोगों को राजनीति से सन्यास लेने की घोषणा करते देखा है, उलटे सन्यास ले चुके लोग राजनीति में घुसपैठ करते जरूर देखे हैं और इस समय तो राजनीति में सन्यासियों की पौ-बारह है। वे केन्द्र में भी मंत्री हैं और मुख्यमंत्री भी। खिलाडियों में सन्यास लेना आम बात है, लेकिन राजनीति में सन्यास लेना खास घटना मानी जाती है। नेताओं को उनकी अपनी पार्टियां जबरन हाशिये पर डाल देती हैं, क्योंकि वे खिलाढियों की तरह खेल भावना से राजनीयति से सन्यास नहीं लेते। किसी भी दल में सन्यासी न हों ऐसी बात नहीं है, लेकिन उनकी संख्या न के बराबर है। नानाजी देशमुख या कामराज या ज्योति बसु जैसे बहुत कम नेता हुए हैं जिन्होंने स्वेच्छा से सन्यास लिया हो। सवाल ये है कि आखिर राजनीति में ऐसा क्या है जो नेता उससे सन्यास नहीं लेना नहीं चाहते? इस विषय पर न किसी ने शोध किया है और न पीएचडी की उपाधि हासिल की है, क्योंकि इस विषय पर शोध करने की न फुरसत है और न इजाजत। मान लीजिए इजाजत मिल भी जाए तो गाइड नहीं मिलेगा। क्योंकि विषय ही अछूत है।
राजनीति से सन्यास लेने वाले भारत के प्रमुख नेताओं पर यदि आपको निबंध लिखने के लिए कह दिया जाए तो आप मुश्किल से एक-दो पृष्ठ ही लिख पाएंगे, क्योंकि राजनीति से ससम्मान सन्यास लेने वाले हैं ही गिने चुने। देश के पहले प्रधानमंत्री से लेकर आज के प्रधानमंत्री तक किसी ने राजनीति से सन्यास लेने के बारे में कार्ययोजना बनाना तो दूर, कभी सोचा तक नहीं। इस मामले में हर विचारधारा के नेता एक जैसा सोचते हैं। राजनीति में व्यक्ति जीवन पर्यन्त सक्रिय रहना चाहता है। कुर्सी के बिना जीवित रहना किसी भी नेता के लिए असंभव काम है। भारतीय राजनीति में कोई सन्यास नहीं लेता, लेकिन शारीरिक अस्वस्थता की वजह से उसे घर बैठना पढे तो अलग बात है। मिसाल के तौर पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी।
दुनिया में राजनीति ही एक मात्र ऐसा क्षेत्र है जहां सन्यास का न कोई लिखित विधान है और न कोई विवादास्पद इतिहास। राजनीति में कोई औरंगजेब भी तो नहीं है, जिसने कम से कम 50 साल शासन किया हो। हमारे सनातन में तो राजा-महाराजा अपने जीते जी अपने उत्तराधिकारी की न सिर्फ घोषणा कर देते थे बल्कि उनका राज्याभिषेक भी करा देते थे। राजनीति में नेता अपना उत्तराधिकारी तो घोषत करते हैं लेकिन खुद सन्यास नहीं लेते। हमारी संसद और विधानसभाओं में पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-भाई साथ-साथ मिल जाएंगे। राजनीति से नेताओं को सन्यास केवल मृत्यु ही दिलाती है। मुमकिन है कि मैं गलत होऊं, लेकिन मैंने तो अपनी स्मृति में अपवादों को छोढ किसी को औपचारिक रूप से सन्यास लेते नहीं देखा। आपने देखा हो तो जरूर बताएं।
मौजूदा राजनीति में हमारे तमाम नेता 80 पार कर चुके हैं, लेकिन राजनीति छोढने को तैयार नहीं हैं, ये भी पता नहीं चल पता कि राजनीति ने नेताओं को पकढ रखा है या नेताओं ने राजनीति को? अब कांग्रेस से ही शुरू कीजिए। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे हो या श्रीमती सोनिया गांधी सन्यास के बारे में कोई योजना अभी तक नहीं बना पाई हैं। भाजपा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भी राजनीति से सन्यास से कोई इरादा नहीं है। एनसीपी के शरद पंवार हर बार आखरी बार कहते हैं और हर बार राजनीति से चिपके दिखाई देते हैं। राजद के लालू प्रसाद जी ने अपनी पत्नी और बेटे-बेटियों को भी स्थापित कर दिया, लेकिन सन्यास की घोषणा नहीं की।
बहन मायावती तो किसी आश्रम में रहीं ही नहीं, इसलिए उनके सन्यास आश्रम में जाने का सवाल ही नहीं उठता। सन्यास की उम्र तो बहन ममता बनर्जी की भी हो गई है लेकिन वे भी इस बारे में शायद सोच नहीं पाई हैं। नीतीश कुमार भी सन्यासी नहीं बनना चाहते। समाजवादियों में भी कोई सन्यासी हो तो आप बताइये? वामपंथियों में एक ज्योति बासु अपवाद रहे, उन्होंने स्वास्थ्य कारणों से राजनीति से सन्यास लेकर बुद्धदेव भट्टाचार्य को अपना उत्तराधिकारी बना दिया था, अन्यथा वामपंथी भी आजन्म नेता होते हैं और मरते समय तक पोलित ब्यूरो सम्हालने का हौसला रखते हैं।
मुझे लगता है कि राजनीति में सन्यास शब्द से चिढने वाले, सन्यास को फालतू की चीज मानने वालों की संख्या लगातार बढ रही है। किसी दल में कोई ऐसा नेता नहीं है जो स्मिथ की तरह, सचिन तेंदुलकर, कपिल देव की तरह अपने सक्रिय जीवन से सन्यास लेने की घोषणा कर अपने चाहने वालों को चौंकाए। अमेरिका में जो वाइडन 80 पार कर भी सन्यासी नहीं बने, वे तो ईसाई हैं, उनके यहां शायद सन्यास की व्यवस्था नहीं है। वहां शायद रिटायरमेंट चलता हो, लेकिन हम भारतियों की जीवनशैली में सन्यास एक खास व्यवस्था है, लेकिन हमारे नेता सन्यास के नाम से ही बिदक जाते हैं। आपको यकीन न हो तो अपने क्षेत्र के किसी विधायक, सांसद, मंत्री या प्रधानमंत्री से राजनीति से सन्यास लेने के बारे में प्रश्न करके देख लीजिए? हकीकत समझ जाएंगे।