– राकेश अचल
ये खबर है भी और नहीं भी कि ग्वालियर के स्वयंभू महाराज, केन्द्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा के लिए अप्रयोज्य हो गए हैं? यदि नहीं हैं तो उनका महाराष्ट्र और झारखण्ड के अलावा दूसरे चुनावों में इस्तेमाल नहीं किया जा रहा, जबकि सिंधिया मध्य प्रदेश के गिने-चुने चमत्कारी नेता हैं, जो भीड को खींचने में समर्थ हैं। आज-कल मप्र में ये सवाल बार-बार उठ रहा है कि क्या भाजपा नेतृत्व ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को ‘घर की मुर्गी’ समझ लिया है?
जन्मजात कांग्रेसी रहे केन्द्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया वर्ष 2020 में अपने दल-बल के साथ कांग्रेस छोड भाजपा में शामिल हुए थे। सिंधिया 2019 का लोकसभा चुनाव हार गए थे किन्तु उसी साल हुए विधानसभा चुनाव में सिंधिया के अथक प्रयासों से मप्र में कांग्रेस की सरकार बन गई थी। कांग्रेस की सरकार में सिंधिया को अपेक्षित महत्व नहीं मिला। तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के साथ अनबन के बाद उन्होंने कांग्रेस छोड दी थी। सिंधिया परिवार को कांग्रेस से अलग होने में 46 साल लग गए। ज्योतिरादित्य सिंधिया से पहले 1967 में उनकी दादी राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने कांग्रेस से छोड-छुट्टी की थी।
बात आज की हो रही है। भाजपा ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को पार्टी में शामिल करने के बाद सबसे पहले राज्यसभा भेजा, फिर केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में शामिल किया और बाद में 2023 के आम चुनाव में गुना लोकसभा चुनाव में टिकिट दिया। वे जीते तो उन्हें दोबारा केन्द्रीय मंत्री बना दिया गया। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने संघ की शाखाओं में जाए बिना ही अपने आपको पूरी तरह से भाजपाई बनने का उपक्रम किया, लेकिन आज 4 साल बाद भी भाजपा का मूल कार्यकार्ता सिंधिया को अपना नेता मानने की स्थिति में नहीं है। सिंधिया ने 2023 के मप्र विधानसभा चुनाव में भी बेहिसाब मेहनत की और इसके फलस्वरूप मप्र में एक बार फिर भाजपा की सरकार बनी।
भाजपा के प्रादेशिक नेताओं और कार्यकर्ताओं की असहमति के बावजूद प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी और केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने सिंधिया पर खूब कृपा बरसाई। अमित शाह ने तो सिंधिया के शाही जयविलास महल में जाकर शाही भोज का आनंद उठाया और खुद प्रधानमंत्री मोदी ने सिंधिया स्कूल के समारोह में उपस्थित होकर सिंधिया को अपना दामाद बताकर उनके नंबर बढाए। पार्टी हाईकमान के संरक्षण के बावजूद पहली बार सिंधिया की उपेक्षा किसी के गले नहीं उत्तर रही है। सिंधिया महाराष्ट्र और झारखण्ड के विधानसभा चुनावों के साथ ही हो रहे अन्य उपचुनावों में भी कहीं प्रचार के लिए नहीं बुलाए गए।
ज्योतिरादित्य सिंधिया से पहले भाजपा ऐसा ही उपेक्षापूर्ण व्यवहार उनकी सगी बुआ राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती बसुंधरा राजे के साथ भी कर चुकी है। उन्हें 2023 के विधानसभा चुनावों के बाद राजस्थान का मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया। लोकसभा चुनावों के बाद केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में नहीं लिया गया। और तो और पार्टी संगठन में भी उन्हें कोई तरजीह नहीं दी गई। जबकि उनका नाम अनेक अवसरों पर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए भी चला। भाजपा सिंधिया से ज्यादा तवज्जो मप्र के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव और पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एवं उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को दे रही है।
आज स्थिति ये है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया की दशा उस मुर्गी जैसी हो गई है जिसकी हैसियत अरहर की दाल जैसी होती है। सिंधिया को महाराष्ट्र और झारखण्ड या उप्र तो छोडिए अपने गृह प्रदेश मप्र में हो रहे विधानसभा के दो उपचुनावों में भी इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। मप्र की विजयपुर सीट तो सिंधिया के अपने इलाके में है और इस सीट से उनके पुराने समार्थक पूर्व मंत्री रामनिवास रावत विधानसभा का चुनाव लड रहे हैं। रावत 2020 में सिंधिया के साथ भाजपा में नहीं आए थे। वे पिछले महीनों ही भाजपा में शामिल हुए हैं। आपको याद होगा कि सिंधिया को लेकर गुना के पूर्व सांसद केपी यादव और ग्वालियर के वर्तमान सांसद भारत सिंह भी असहज हैं। सिंधिया लगातार ग्वालियर के सांसद भारत सिंह के क्षेत्र में मदाखलत कर रहे हैं। भारत सिंह प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर के समर्थक और छात्र हैं।
सिंधिया की उपेक्षा जानबूझकर की जा रही है या संयोगवश पार्टी हाईकमान को उनकी याद नहीं रही ये कहना कठिन है। सिंधिया का चेहरा चाकलेटी है, वे ओजस्वी वक्ता हैं और योगी आदित्यनाथ से ज्यादा आग उगल सकते हैं और सबसे बडी बात ये कि वे महाराष्ट्र में जाकर मराठी में भाषण भी दे सकते थे, किन्तु उनकी ये तमाम प्रतिभा धरी की धरी रह गई। मुमकिन है कि मेरी सूचनाएं आंशिक रूप से सही न भी हों किन्तु मुझे जो दिख रहा है, वो ही मैं लिख रहा हूं। सिंधिया परिवार की पिछली दो पीढियों से मेरी निकटता रही है, इसलिए मुझे तीसरी पीढी के ज्योतिरादित्य सिंधिया की उपेक्षा हजम नहीं हो रही। मैं ज्योतिरादित्य सिंधिया का समर्थक भले न होऊं, लेकिन विरोधी भी तो नहीं हूं। अलबत्ता उनकी सामंती मानसिकता को लेकर मैं हमेशा मुखर रहा हूं। बहरहाल ज्योतिरादित्य का सूर्य फिर चमके तो बेहतर है। आखिर सिंधिया राजघराने के ग्वालियर अंचल से तीन सौ साल पुराने रिश्ते जो है।