– राकेश अचल
जाना सभी को है, लेकिन जिस दौर में कामरेड सीताराम येचुरी गए हैं वो सबसे कठिन दौर है और इस दौर में कामरेड सीताराम येचुरी की बहुत जरूरत थी। सीताराम येचुरी का जाना फिलाहल एक बडा शून्य पैदा कर गया है, जिसे भरने में कुछ वक्त तो लगेगा ही। माक्र्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी के सर्वाधिक लोकप्रिय नेताओं में से एक थे सीताराम येचुरी। सीताराम से पहली राम-राम कब हुई मुझे याद नहीं, लेकिन वे जब भी ग्वालियर आए ऐसे मिले जैसे बरसों से बिछुडे हुए हों। सहज, सरल, सौम्य सीतारम येचुरी से मिलना सुखानुभूति से भर देता था। वे भयंकर अध्येता थे और भाषण देते-देते उनके भीतर का आक्रोश कब उनकी मोटी नाक पर झलकने लगता था उनकी उत्तेजना में भी सौम्यता टपकती थी।
कोई माने या न माने, लेकिन मुझे वे वामपंथियों के अटल बिहारी बाजपेयी लगते थे। उनकी सभी दलों के नेताओं से दोस्ती थी, जिनसे दोस्ती नहीं थी उनसे भी उनका संवाद था, लेकिन वे अपनी विचारधारा पर हिमालय की तरह डटे रहने वाले कम्युनिष्ट थे। मैं तमाम कम्युनिष्ट नेताओं से मिला हूं। पुरानी पीढी के कॉमरेड वीटी रणदिवे और कॉमरेड हरिकिशन सिंह सुरजीत से भी मैं मिला हूं। उनके साथ लम्बी गपशप की है, लेकिन सीतारम येचुरी इस कडी में सबसे अलग कॉमरेड थे। कोई आधी सदी तक उन्होंने अपनी पार्टी के माध्यम से देश की सेवा की और जमकर की।
मुझे याद आता है इमरजेंसी का वो दौर जब सीताराम येचुरी माकपा के मंच पर एक युवा नेता के रूप में उभरे थे। आपाताकाल में वे जेल गए और उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के सामने निंदा पत्र पढा था। अब न इन्दिरा गांधी जैसा कोई प्रधानमंत्री हो सकता है और न सीता जैसा कोई युवा नेता। कम्युनिस्ट रहने के बावजूद सीताराम येचुरी सिद्धांतवादी रहे, लेकिन उन्होंने कभी भी हठधर्मी नहीं नहीं दिखाई। उन्होंने 2015 से पार्टी की अगुवाई कर रहे थे। मुझे याद आता है कि सीताराम 1992 से पार्टी के पोलित ब्यूरो के सदस्य थे। कम्युनिस्ट होते हुए भी वो एक मध्यमार्गी नेता की तरह थे जिन्हें थोडा उदारवादी और बीच का रास्ता अपनाने वाला माना जाता था।
सीताराम ने अपनी पार्टी का नेतृव उस समय सम्हाला था जब पूरे देश में माकपा का सूरज ढल रहा था, लेकिन वे निराश नहीं थे। मैं जब भी उनसे मिला वे कहते थे कि सिर्फ पार्टी के सामने ही नहीं बल्कि देश के सामने भी बडी चुनौतियां हैं। हाल के दिनों में जो हमारी हार हुई है उसके सुधारने के लिए हमें जनाधार सुधारने की जरूरत है। जब वे पहली बार पार्टी के मुखिया बने तब उन्होंने कहा था कि हमें पार्टी को स्वतंत्र रूप से और मजबूत करना होगा यही हमारी प्राथमिकता होगी। हमें इसके आधार पर जनआंदोलन छेडते हुए जनता के साथ जुडाव को और मजबूत करना है। सीताराम येचुरी राजनीति में गठबंधन के धर्म और उसकी जरूरत को समझते थे। वे अक्सर कहते थे कि देश के अलग-अलग प्रांतों में हालात समान नहीं हैं, ना ही मुद्दे समान हैं। इसीलिए अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग गठबंधन की गुंजाइश है। उन्होंने इस दिशा में कोशिश भी की।
सीताराम येचुरी जमीन की हकीकत से वाकिफ थे, उन्हें अपनी पार्टी की ताकत का भी अहसास था। उन्होंने कहा था कि 2024 के चुनावों में हमारा पहला लक्ष्य है कि आरएसएस और भाजपा की सत्ता को हटाना है, हम समझते हैं देश की जनता और एकता और अखण्डता के लिए ये अनिवार्य है। यही बात इन्होंने 2019 के आम चुनावों से पहले भी दोहराई थी, लेकिन इत्तफाक देखिए कि दोनों ही आम चुनावों में उनका सपना पूरा नहीं हो पाया, लेकिन वे विपक्ष की मजबूती से खुश भी थे और उत्साहित भी थे।
मुझसे उम्र में कोई सात साल बडे कॉमरेड सीताराम येचुरी से मेरी मुलाकात एक पत्रकार के रूप में दर्जनों बार हुई। वे जब भी ग्वालियर आते थे, तब शायद ही कोई ऐसा अवसर रहा हो जब मैं उनसे न मिला हूं। माकपा के हमारे पुराने साथी कॉमरेड शैलेन्द्र शैली और बदल सरोज ने उन्हें न जाने कितनी बार ग्वालियर बुलाया। वे हर संघर्ष में ग्वालियर के साथ रहे। जैसा कि मैंने कहा कि सीताराम येचुरी से मिलना अपने किसी सखा से मिलने जैसा था। वे बातचीत में कभी ये महसूस ही नहीं होने देते की वे एक बडे नेता हैं। उनका पहनावा, उनका खानपान एकदम सहज था। अक्सर ऐसा लगता कि सीताराम येचुरी बोलते रहें और हम सुनते रहें। उनकी हिन्दी का उच्चारण बडा मीठा था। हिन्दी उनकी मातृभाषा नहीं थी, लेकिन उन्होंने हिन्दी को कभी अपने संपर्कों में अवरोध नहीं बनने दिया। वे देश के राजनीतिक मंचों पर सभी के साथ खडे नजर आते थे। विपक्षी एकता के लिए उनकी कोशिशें अविस्मरणीय मानी जाएंगी। इस कोशिश में यदाकदा उन्हें अपनी पार्टी में असहमतियों का समाना करना पडा होगा, लेकिन वे रुके नहीं, थके नहीं।
दिल्ली में दो सीतारमण को जानता था। दोनों ही जेएनयू के थे। एक सीतराम बिहारी थे और एक तमिलनाडु के। कॉमरेड सीताराम येचुरी जल्दी चले गए। अभी उनके जाने की उम्र नहीं थी, लेकिन उन्हें जाना था। वे अपने साथ यश, कीर्ति के अलावा कुछ नहीं ले गए। अपनी देह भी नहीं। उनकी इच्छा के अनुसार इनकी पार्थिव देह भी एम्स के छात्रों के शोध अध्ययन के लिए समर्पित कर दी गई। वैसे भी उनके पास अपना कुछ था भी नहीं। उनका छोटा और सुखी परिवार जरूर था। लेकिन कोरोना ने उनके इस सुख को छीन लिया था। कोरोना से सीताराम येचुरी के बडे बेटे आशीष का निधन हो गया था, वह महज 35 साल के थे। दीगर नेताओं की तरह उनका परिवार कभी उनके आगे-पीछे नजर नहीं आता था। सब अपने-अपने काम में व्यस्त रहते थे।
कॉमरेड सीताराम येचुरी केवल एक राजनेता ही नहीं थे बल्कि वह अर्थशास्त्री, सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार और लेखक भी थे। वह विभिन्न अखबारों को लगातार कॉलम लिखते रहे। राजनीति में भी उनकी राय को अहम माना माना जाता है। उन्होंने कई किताबें लिखी हैं, इसमें ‘यह हिन्दू राष्ट्र क्या है’, ‘घृणा की राजनीति’, ‘21वीं सदी का समाजवाद’ जैसी किताबें अहम मानी जा रही हैं। मेरी स्मृतियों में वे लमबे समय तक रहने वाले हैं। विनम्र श्रृद्धांजलि।