– राकेश अचल
मैं एक जमाने में दुर्दान्त डकैतों के लिए बदनाम चंबल इलाके से आता हूं। मैंने अपने पत्रकारिता के कार्यकाल में डाकुओं की जितनी कहानियां बनाईं और बेचीं, उतनी शायद मुंबई के डॉन की कहानियां भी नहीं बिकी होंगी। चंबल के डाकू दो दशक पहले हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो गए। लेकिन मुंबई के डॉन आज भी जिंदा हैं। मुंबई के डॉन और चंबल के डाकुओं में बहुत फर्क है। डाकू कभी किसी की हत्या के लिए सुपारी नहीं लेते थे, लेकिन डॉन सुपारी लेते भी हैं और देते भी हैं।
डाकू हों या डॉन मीडिया के लिए हमेशा ‘हॉट केक’ की तरह बिकने वाले कथानक रहे हैं। आज-कल मुंबई में ही नहीं पूरे देश में डाकुओं से ज्यादा डॉन की चर्चा है। डॉन लारेंस विश्नोई द्वारा हाल ही में दिल्ली और मुंबई में सुपारी देकर कराई गई हत्याओं के बाद सुर्खियों में हैं। भ्रष्ट नेताओं से ज्यादा खूखार डॉन सुर्खियों में है। विश्नोईयों के बारे में धारणा है कि वे न केवल पर्यावरण प्रेमी होते हैं बल्कि काले हिरणों के सबसे बडे संरक्षक भी होते हैं, लेकिन इस विश्नोई समाज से यदि लारेंस डॉन बनकर निकला है तो हैरानी होती है। पता नहीं लारेंस का राजस्थान के विश्नोई समाज से कोई वास्ता है भी या नहीं।
मैंने अपने पत्रकारिता के जीवन में देश के इस सदी के सबसे कुख्यात और रॉबिन हुड रहे डकैत देखे है। उनसे मिला हूं। माधौसिंह, मोहर सिंह, तहसीलदार सिंह, पानसिंह तोमर, निर्भय गुर्जर से लेकर फूलन देवी तक को मैं खूब जानता था, लेकिन कोई इतना नृशंस नहीं था जितना कि आज-कल के डॉन हैं। डाकुओं ने हत्याएं कीं, अपहरण किए, गांव के गांव जलाए, लेकिन उनकी करतूतों के पीछे की कहानियां कुछ और हुआ करती थीं। उनके मन में हिंसा के साथ दया-माया भी थी। वे रॉबिन हुड की तरह गरीबों की मदद भी करते थे और आताताइयों को सबक भी सिखाते थे। डाकुओं ने कभी प्रदेश में बैठकर अपने गिरोह नहीं चलाए, लेकिन मोदी काल के डाकू अमेरिका में बैठकर अपने गिरोह चला रहे हैं। बीहडों के बजाय वातानुकूलित जेलों में रह कर गिरोह चला रहे है।
बात नए-नए डॉन लारेंस विश्नोई की हो रही थी। लारेंस विश्नोई हाल ही में एनसीपी (अजित गुट) के नेता बाबा सिद्दीकी की हत्या के बाद सुर्खियों में है। उसके निशाने पर एक लोकप्रिय अभिनेता सलमान खान के अलावा अनेक खान हैं। ये महज संयोग है या कोई नियोजित अभियान कि लारेंस और सत्तारूढ दल के लक्ष्य एक जैसे ही हैं। कभी-कभी लगता है कि लारेंस ने या तो संघ और भाजपा का एजेंडा चुरा लिया है या वो इन संगठनों और दलों का अंधभक्त बन गया है। दोनों के निशाने पर अल्प संख्यक ज्यादा हैं, दूसरे लोग भी हैं लेकिन अल्प संख्यक सबसे ऊपर है। कहने को तो बाबा सिद्दीकी जैसे लोग संजय दत्त के भी खैरख्वाह थे।
दरअसल मैं अपने नई पीढी के पाठकों को डॉन और डाकुओं में फर्क बताने की कोशिश कर रहा था। डाकू विषम परिस्थितियों में बीहड का रास्ता पकडते थे और डॉन सुनियोजित तरीके से मुंबई का रुख करते हैं। डॉन और डाकू पहले छोटी वारदात करते हैं, बाद में किसी स्थापित गिरोह में शामिल होते हैं। लेकिन बाद में अनुभव हांसिल होते ही डॉन अपने स्वतंत्र गिरोह बना लेते हैं। जाति डॉन की भी होती है और डाकू की भी। हाजी मस्तान से लारेंस तक और मानसिंह से लेकर जगजीवन परिहार तक कहानियां एक जैसी हैं। दोनों की जीवन पर फिल्में भी खूब बनती और चलती हैं। लेकिन डाकू दिलेर होते हैं और डॉन कायर। डाकू पुलिस से सीधे मुठभेड करते हुए मारे जाते हैं, लेकिन डॉन कभी पुलिस से सीधे मोर्चा नहीं लेते। डाकुओं के गुर्गे नहीं होते, लेकिन डॉन के होते हैं। डॉन विलासता का जीवन जीते हैं, बडे शहरों और बडे देशों में रहते हैं, किन्तु डाकू बीहडों में विषम परिस्थितयों में रहते हैं और उनके जीवन में विलासता भी बडे ही निम्न स्तर को होती थी।
डॉन और डाकुओं में महिलाओं का प्रतिशत बहुत कम रहा है। गुजरात की लेडी डॉन की तरह एक जमाने में चंबल की महिला डाकू पुतलीबाई एक किवदंती बन गई थी। फूलन तो डाकू जीवन से मुक्त होकर संसद तक पहुंची। एक डाकू सरगना मलखान सिंह भी फूलन का अनुशरण करते हुए विधानसभा में पहुंचने के लिए बार-बार चुनाव लडा, लेकिन कामयाब नहीं हुआ। डॉन भी किवदंती बने हैं, लेकिन शायद ही कोई डॉन हो जो संसद तक पहुंचा हो, हालांकि हाजी मस्तान ने डॉन बनने के बाद गांधी टोपी पहनकर नेतागीरी की थी, लारेंस को भविष्य में कोई हिन्दूवादी पार्टी लोकसभा या विधानसभा चुनाव में टिकिट दे दे तो मैं जानता नहीं। हां डाकुओं के मन्दिर हैं लेकिन डॉन के नहीं।
लोकतंत्र के लिए डाकू और डॉन समान रूप से उपयोगी रहे हैं। मैं ऐसे तमाम नेताओं को जानता हूं जो एक जमाने में चुनावों के वक्त चंबल में डाकुओं के प्रभाव, आतंक का इस्तेमाल खुलेआम करते थे। चंबल की ये कहानी मैं महाराष्ट्र, गुजरात और देश के हर हिस्से में दुहराते हुए देख रहा हूं। अब हर राज्य में कोई न कोई डॉन किसी न किसी नेता को चुनाव जितने के लिए अपने प्रभाव और आतंक का इस्तेमाल करता है। डॉन और डाकू आतंक के कारण ही समाज में जिंदा हैं। अब डॉन और डाकुओं ने अपनी वर्दी बदल ली है। वे खादी से लेकर हुडी तक पहनने लगे हैं।
डाकुओं के समर्पण के लिए विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण से लेकर अर्जुन सिंह तक ने अथक प्रयास किए थे, लेकिन डॉन को समाज की मुख्यधारा में लाने का काम किसी नेता ने किए हों तो मुझे मालूम नहीं। डॉन आज भी सुपारी ले और दे रहा है। हत्याएं करा रहा है, चौथ वसूली कर रहा है। डाकू ये सब छोड चुके हैं। वे या तो खेती कर रहे हैं या राजनीति या समाजसेवा। दुर्भाग्य कहूं या सौभाग्य कि मुझे आज तक किसी डॉन से मिलने का सौभाग्य नहीं मिला, हालांकि हमारे पूर्वज कहें या अग्रज स्व. वेदप्रताप वैदिक सीमा पर जाकर पाकिस्तान के डॉन हाफिज सईद से मिल आए थे। उनका और हाफिज का इंटरव्यू ठीक उसी तरह से सुर्खियां बना था जैसा कि एक जमाने में फूलन और निर्भय के इंटरव्यू।
बहरहाल डाकुओं की कहानी तो लगभग समाप्त हो चुकी है, किन्तु डॉन की फिल्म खत्म होने का नाम नहीं ले रही। डॉन की कहानी ने सीक्वल का रूप ले लिया है। एक जाता है तो दूसरा आ जाता है। ये तब तक चलेगा जब तक सियासत चाहेगी। जिस दिन सियासत और डॉन का रिश्ता दरकेगा, डॉन की कहानी भी उसी तरह समाप्त हो जाएगी जैसे कि डाकुओं की हुई है। डॉन, डाकू और डाकिया तंत्र लोकतंत्र के लिए अभिशाप है। इनका खात्मा जितनी जल्द हो उतना अच्छा है। अन्यथा न मुंबई चैन से रह पाएगी और न दिल्ली।