गुरू के साथ गुरू घण्टालों को भी पूजिये

– राकेश अचल


गुरू पूर्णिमा हमारे यहां गुरूजनों को पूजने के लिए मुकर्रर की गई तारीख है। कहते हैं कि इस तारीख को महाभारत के रचयिता महर्षि वेदव्यास जी का जन्म हुआ था। इस लिहाज से गुरू पूर्णिमा वेदव्यास जी की ‘हैप्पी वर्थडे’ भी है। चूंकि हमारे कान में किसी ने कोई मंत्र नहीं फूंका इसलिए हम ‘निगुरू’ हैं। यानि हमारा कोई संवैधानिक या सनातन गुरू नहीं है। ये हमारी बदनसीबी है या खुशनसीबी? इसके बारे में हमने न कभी सोचा और न हमें इसकी जरूरत पडी। लेकिन 140 करोड लोगों के इस देश में असंख्य लोगों के गुरू भी हैं और असंख्य के गुरू घण्टाल भी। आज के दिन उनकी भी पूजा होती है।
गुरू पूर्णिमा को हमारे यहां ‘व्यास पूर्णिमा’ भी कहा जाता है। जब हमारे आरंभिक शिक्षक लंकेश पंडित जी थे, पत्रकारिता का ककहरा पढ़ाने वाले काशीनाथ चतुर्वेदी और साहित्य का सबक सिखाने वाले प्रो. प्रकाश दीक्षित थे, तब हम भी गुरू पूर्णिमा के दिन इन सभी का वंदन-अभिनदंन कर लेते थे। इनके चरण ही हमारे लिए कमल सदृश्य थे। अब कोई नहीं है, इसलिए हम भी गुरू पूर्णिमा के उत्स से मुक्त हो गए हैं। चूंकि हमने कोई भगवा वस्त्रधारी गरू बनाया नहीं, इसलिए हम आज के दिन गुरुओं से ज्यादा गुरू घण्टालों पर नजर रखते हैं। नजर रखना कोई बुरी बात नहीं है। यदि आप अपनी दृष्टि से सब कुछ ओझल हो जाने देते हैं तो बुरी बात है।
गुरू पूर्णमा के दिन मैंने ऐसे-ऐसे गुरुओं और गुरू घण्टालों को पुजते देखा है जो पूजा के लायक कम से कम मेरी नजर में तो नहीं हैं। अब गुरू पूर्णिमा के दिन को बाबा आसाराम, राम-रहीम जैसी बिरादरी को पूजते हैं तो मुझे तकलीफ होती है। लेकिन मेरी तकलीफ मेरी अपनी है। जिसे व्यभिचारियों और पाखण्डियों की पूजा से सुख मिलता है उन्हें मैं उनके सुख से वंचित नहीं करना चाहता। मैं नहीं चाहता की इस तरह के गुरुओं और शिष्यों कके बीच ‘दाल-भात में मूसलचंद’ बना जाएं।
गुरू का कोई न कोई रिश्ता गुरुता से भी होता है। हल्का आदमी किसी का गुरू नहीं हो सकता। हमारे यहां बाल्यावस्था में ही एक सूत्र रटा दिया जाता है कि ‘गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु: गुरूर्देवो महेश्वर:। गुरूर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नम:।।’ हमारे जीवन पर इस सूत्र का गहरा प्रभाव है। हम किसी चौथे को गुरू मानते ही नहीं। हमारे लंकेश जी ने हमें बचपन में ही बता दिया था कि गुरु-गोविन्द दोनों खडे, का के लागूं पांव। बलिहारी गुरु आपनो गोविन्द दियो बताय। गुरू ही गोविन्द की पहचान करता है, इसलिए गुरू को श्रृद्धा से पूजिये। दुर्भाग्य से हमारे यहां गुरू भी ऐसे हुए हैं जो सबको दीक्षा नहीं देते। देते हैं तो शिष्य से गुरू-दक्षिणा में उसका अंगूठा मांग लेते हैं। ऐसे गुरुओं की आज-कल भरमार है। आज के दिन मैं अपने सभी मित्रों, पाठकों और शुभचिंतकों से अंगूठा मांगने वाले गुरुओं से सावधान करता रहता हूं। मैं इसे ही अपना लोकधर्म मानता हूं।
कलियुग में गुरुओं और गुरूकुलों की कोई कमी नहीं है। कुछ राज सहायता प्राप्त गुरूकुल होते हैं कुछ सेठ सहायता प्राप्त। आज-कल के गुरू धन-पशुओं के यहां शादी-विवाह में वर-वधू के साथ अपनी शैली में नृत्य करते हुए दिखाई दे सकते हैं। क्योंकि ऐसे शिष्यों के यहां गुरू-दक्षिणा में अंगूठा दखाया नहीं जाता, बल्कि विदाई में झोलियां भर दी जाती हैं। यदि आप आम आदमी हैं और आपका कोई गुरू है तो आपको उसकी पूजा करने उसके थान पर ही जाना पडेगा। वो अपनी पीठ पर अपनी पीठ लादकर आपके घर आने से रहा। आधुनिक गुरुओं के लिए तो आधुनिक शिष्य ऑस्ट्रेलिया तक चीलगाडी (हवाई जहाज) तक भेज देते हैं। तेरा तुझको अर्पण की मुद्रा में।
मेरा कोई गुरू नहीं है फिर भी मैं हमेशा आब्जर्बेशन करता रहता हूं। मेरे शोध का निष्कर्ष ये है कि आज-कल के गुरू अपने शिष्य से अंगूठा मांगने की हिमाकत नहीं कर सकते, क्योंकि आज-कल के शिष्य खुद गुरू का अंगूठा काटकर अपनी शिष्य दक्षिणा मानकर जेब में रख लेते हैं। उन्हें गोविन्द के दर्शन के लिए गुरू की नहीं, गुरू घण्टालों की जरूरत होती है। आज-कल गुरू घण्टाल पूर्व के गुरुओं से ज्यादा भारी-भरकम हो गए हैं। वे राजनीती में दखल करते हैं। राजनीतिक मुद्दों पार बोलते हैं, लेकिन सबकी फीस मुकर्रर है। फीस दीजिये और जिस विषय पर जो बुलवाना है बुलवा लीजिये।
कलियुग में गुरू और चेलों के रिश्तों में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया है। कहीं गुरू और चेले दोनों शक्कर हो गए हैं और कहीं-कहीं गुरू गुड ही रह गए और चेले शक्कर, मिश्री या शहद तक हो गए हैं। आज-कल के गुरू दीक्षा देने के अलावा सब कुछ दे सकते हैं। आपको योग विद्या सिखा सकते हैं। स्लिम ट्रिम करने के लिए, गोरा होने के लिए दवाएं दे सकते हैं। आपकी कामशक्ति बढ़ा सकते हैं। आपके लिए बार्गेनिंग भी कर सकते हैं और जरूरत पडने पर आपके शत्रुओं के खिलाफ मोर्चा भी खोल सकते हैं। आपके लिए चुनाव में प्रचार कर सकते हैं। उनके लिए कुछ भी वर्जित नहीं है। आप यकीन कीजिये कि मैं अक्सर गुरुओं के गुरुत्वाकर्षण से बचने के लिए उन्हें दूर से ही प्रणाम कर लेता हूं। उन्हें कभी अपने घर नहीं बुलाता। वे यदि भण्डारा खिलाने के लिए बुलाते हैं तो हंसी-खुशी चला जाता हूं। आखिर आज के महंगाई के दौर में एक वक्त का नि:शुल्क भोजन मिलना भी एक तरह की अल्प बचत है। मैं तो कहता हूं कि महंगाई की मार से बचना है तो सप्ताह में कम से कम तीन दिन मन्दिरों में जाकर भण्डारा या लंगर का प्रसाद ही ग्रहण करना चाहिए।
आप मुझे गुरू नाम की संस्था का विरोधी बिल्कुल मत मानिये, मैं तो गुरू और गुरुकुलों को दूर से ही प्रणाम करता हों। ये दोनों मिलकर देश में कांवड यात्रियों की एक नई पीढ़ी तैयार कर रहे हैं। देश को इंजीनियरों, डाक्टरों, शिक्षकों की कम कांवड यात्रियों की ज्यादा जरूरत है, क्योंकि सनातन को कंधे पर ये बेचारे ही तो धारण कर सकते हैं। ऐसे लोगों पर हेलीकॉप्टर से पुष्प वर्षा करना ही सच्चा राजधर्म है। इस मामले में मैं अपने गृह प्रदेश यूपी को आदर्श मानता हूं। हमारी यूपी के मुख्यमंत्री खुद गुरू हैं। वे जानते हैं कि शिष्यों के लिए क्या उचित है और क्या अनुचित है? गुरू और संतों के बारे में सबकी अपनी-अपनी व्याख्या है। लेकिन हमारे कुलगुरू कबीर कहते हैं कि

गुरू के लक्षण चार बखाना, प्रथम वेद शास्त्र को ज्ञाना।।
दुजे हरि भक्ति मन कर्म बानि, तीजे समदृष्टि करि जानी।।
चौथे वेद विधि सब कर्मा, ये चार गुरू गुण जानों मर्मा।।

अगर आपके लिए कबीर कुछ काम आ जाएं तो इसे भी आप अपने गुरू की कृपा मान लें। कलियुग में गुरू का जटा-जूटधारी होना कोई अनिवार्य शर्त नहीं है। जटा-जूट हो तो सोने में सुहागा और न हो तो और भी बढिय़ा। वैसे हम हिन्दुओं और मुसलमानों के गुरू दाढियां और तिलकधारियां जरूर रखते हैं। ईसाईयों के गुरुओं की अपनी पोशाक और वेशभूषा है। आदिवासियों के गुरू आदिवासियों जैसे होते हैं। आप सभी को गुरू पर्व की बधाई। दुर्भाग्य से गुरू पूर्णिमा के दिन हमारे यहां एक शोक प्रसंग हुआ था, इसलिए हम इस दिन मौन रहना ही श्रेयस्कर समझते हैं। अपने पिता को याद करते हैं। अपने दिवंगत रिश्तेदारों को याद करते हैं।