– राकेश अचल
कुर्सी क्या इतनी महत्वपूर्ण वस्तु बन गई है कि उसके पीछे लोग अपना सब कुछ गवां देने पर उतारू हैं? ये सवाल आपके मन में आये या न आए, किन्तु मेरे मन में बार-बार आ-जा रहा है। कनाडा से बिगाड के बाद अब पडौसी मालदीव से भी हमारे लिए अच्छी खबर नहीं आ रही। मालदीव में ‘इंडिया आउट’ का नारा देने वाले चीन समर्थक उम्मीदवार मुइज्जू राष्ट्रपति का चुनाव जीत गए हैं। मालदीव जनसंख्या और क्षेत्र दोनों ही प्रकार से एशिया का सबसे छोटा देश है और 1965 में आजाद हुआ है।
मालदीव है तो इस्लामिक देश किन्तु भारत के साथ मालदीव के रिश्ते पारम्परिक और भौगोलिक रूप से नए नहीं है। मालदीव की आजादी के पहले से भारत का मालदीव के घरेलू मामलों में दखल रहा, लेकिन अचानक भारत ने मालदीव की उपेक्षा करना शुरू कर दी, नतीजा ये हुआ कि अब मालदीव चीन की और झुका चुका है। भारत बीते एक दशक से मालदीव के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप करने से बच रहा है, इसका सीधा फायदा चीन को मिलता दिख रहा है। राष्ट्रपति शी जिनपिंग जब भारत आए थे तब वे मालदीव और श्रीलंका होते हुए आए थे। दोनों देशों में मैरीटाइम सिल्क रूट से जुडे एमओयू पर हस्ताक्षर किए गए, लेकिन जब राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत आए तो इस मुद्दे पर पूरी तरह से चुप्पी रही।
एक जमाना था जब दक्षिण एशिया को लेकर भारतीय विदेश नीति बेहद आक्रामक थी। ये स्थिति राजीव गांधी सरकार से लेकर नरसिम्हा राव सरकार तक रही। भारत ने साल 1988 में मालदीव में तख्ता पलट की कोशिशों को नाकाम किया। लेकिन इसके बाद से भारत का प्रभाव बेहद कम होता गया है। इसके स्थानीय कारण भी हैं, क्योंकि मालदीव के पूर्व राष्ट्र्रपति मामून अब्दुल गयूम भारत के अच्छे दोस्त थे। ये दोनों देशों के बीच गहरे संबंध का कारण था। भारत का प्रभाव इस क्षेत्र में कम हुआ है, लेकिन ये कमी चीन के बढते प्रभाव की वजह से ज़्यादा दिखाई पडती है।
भारत के खिलाफ खडा होने वाला मालदीव एक नया देश है। पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश, अफगानिस्तान में इन दिनों भारत का नहीं चीन का डंका बज रहा है। सुदूर कनाडा तक में भारत विरोधी खालिस्तानी आंदोलन ने नए सिरे से सर उठा लिया है और हम हैं कि हमें अपनी विदेश नीति की समीक्षा करने की आवश्यकता ही महसूस नहीं हो रही। हम इस मुद्दे पर कभी घर के भीतर आपस में बैठकर बात ही नहीं करना चाहते। विपक्ष से हमारा अनबोला है। पडौसियों से भी हमारा अनबोला बढता ही जा रहा है।
हमारी हर नीति में अदावत और अकड भर गई है। विदेश नीति को भूल भी जाइये तो घरेलू नीति में भी हम अपने रिश्तों में कडवाहट भरते जा रहे हैं। कितनी हैरानी की बात है कि तेलंगाना में राजनीतिक अदावत की वजह से तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर लगातार छह बार प्रधानमंत्री की अगवानी करने तक नहीं गए। ये कौन सी सियासत है। भारत एक गणराज्य है, स्वायत्तता सबके लिए महत्वपूर्ण है। एक प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी है कि वो कम से कम देश के भीतर तो कुर्सी की खातिर रंजिशें न पाले। आज जो तेलंगाना में हो रहा है वो सब पहले पश्चिम बंगाल में हो चुका है। बंगाल की मुख्यमंत्री को अपमानित करने का कोई मौका प्रधानमंत्री जी ने नहीं छोडा।
कभी-कभी देश के भविष्य को देखकर चिंता और घबडाहट होती है। हम न देश के भीतर सामंजस्य स्थापित कर पा रहे हैं और न देश के बाहर। ऊपर से तुर्रा ये है कि हम विश्व मित्र बन गए है। मौजूदा हालात को देखकर तो ये लगता है कि हम विश्व मित्र नहीं विश्व शत्रु बन गए हैं। हमारा शत्रुता का स्वभाव हमसे सब कुछ छीने ले रहा है। हम न अपनी अकड छोडने को राजी हैं और न सौजन्य बनाने के लिए। हम अहंकार के आठवें आसमान पर हैं। जहां हमारे बराबर कोई दूसरा है ही नहीं।
कनाडा तो चलिए सात समंदर पार है, लेकिन नेपाल और मालदीव तो हमारे आस-पास हैं। हमारी भौगोलिक सीमाएं इन दोनों देशों से जुडी हैं। इन दोनों देशों में भारत विरोधी माहौल बना हुआ है। भूटान जैसे देश से हमारे पारम्परिक दोस्ताना रिश्ते बिगाड पर हैं। श्रीलंका हमारे न प्रभाव में है और न दबाब में। बांग्लादेश हमें रोज अपनी अनदेखी का उलाहना दे रहा है। अब हमारे सिर पर न लाल टोपी है और न पांवों में जापानी जूता। हमारी इंग्लिस्तानी पतलून का भी आता-पता नहीं है। फिर भी हम हिन्दुस्तानी हैं। अलग-थलग पडते हिन्दुस्तानी। हम अपने पारम्परिक मित्र खोते जा रहे हैं और नए मित्र हमसे बनाए नहीं जा रहे। न घर के भीतर और न घर के बाहर। हमारी तमाम नीतियों का ही नतीजा है कि पंजाब फिर से उडता दिखाई दे रहा है और इस सबके पीछे एक दिल्ली की कुर्सी है। हम कुर्सी को लात नहीं मार सकते। दोस्ती को लात मार सकते हैं, लगातार मार रहे हैं।
देश इस समय जिन दुर्दिनों से गुजर रहा है उनकी चर्चा करना भी अब राष्ट्र द्रोह है। हम गांधी के भारत हैं। हमारी पहचान ही सहिष्णुता और संभव है, जिसे अब संकीर्णता और अदावत में बदल दिया गया है। मालदीव के नए चीन समर्थक राष्ट्रपति भविष्य में भारत के साथ कैसे निभाएंगे ये हमारी चिंता का विषय होना चाहिए, किन्तु हम पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव जीतने की जुगत में बहुत कुछ दांव पर लगा रहे हैं। ईश्वर यदि कहीं है तो हमें देश के लिए प्रार्थना करना चाहिए। अब देश प्रार्थनाओं से ही बच सकता है। देश की राजनीति में भरी कडवाहट करेले से भी ज्यादा कडवी हो गई है। हो भी क्यों न? करेला भी तो नीम पर चढा हुआ है। हमें याद रखना चाहिए कि मालदीव के भारत के साथ पहले से ही सांस्कृतिक और आर्थिक संबंध रहे हैं। मालदीव लंबे समय से भारत के प्रभाव में रहा है। ये माना जाता है कि मालदीव में अपनी मौजूदगी बनाए रखकर भारत हिन्द महासागर के बडे हिस्से पर निगरानी रखता रहा है। इसलिए हमें मालदीव की फिक्र करना चाहिए।