पावस गीत

– राकेश अचल


मेरी छतरी नीले रंग की
नभ का रंग काला काला है
कुछ गडबड होने वाला है

गरज रहीं वारिद मालाएं
पवन कर रही हा हा, हूं हूं
जल प्लावित है देह धरा की
चौतरफा मिट्टी की खुश्बू

मृग मरीचिकाएं गायब हैं
मोरों का दल मतवाला है
कुछ गडबड होने वाला है

वेगवती नदियों की कलकल
डगमग करती हैं नौकाएं
झरनों का आलाप सुरीला
गाते जैसे वेद ऋचाएं

सबने अपने रूप-रंग को
सांचे में जैसे ढाला है
कुछ गडबड होने वाला है

टपक रहीं टूटी खपरैलें
दादुर बेसुर में गाते हैं
रिमझिम से बचना है मुश्किल
घर-घर में टूटे छाते हैं

चूल्हे सब अलसाए से हैं
ईंधन भी गीलागाला है
कुछ गडबड होने वाला है