भानुमतियों के बीच कुनबा बढ़ाने की होड

– राकेश अचल


कहीं की ईंट, कहीं का रोडा, भानुमति ने कुनबा जोडा। ये कहावत महाभारत काल में बनीं और आज भी चरितार्थ हो रही है। सत्ता सुंदरी यानि आज की भानुमति को हथियाने के लिए सियासत के दुर्योधनों के बीच जंग है। इस जंग में कई जरासंध भी हैं और अनेक कर्ण भी। अनेक तर्क हैं और अनेक कुतर्क। सब मिलकर अपने-अपने लिए चूं-चूं का मुरब्बा बना रहे हैं। आज की महाभारत में एक और एनडीए है और दूसरी तरफ यूपीए। दोनों अपना-अपना कुनबा बढ़ाने के लिए एडी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। नतीजा एक-दो दिन में सबके सामने होगा।
सत्ता की भानुमति अब अकेले नहीं हथियाई जा सकती। इसका अपहरण करने के लिए कुनबा बढ़ाना पहली शर्त है। कुनबे में इजाफा अब गठबंधन कहलाता है। गठबंधन कलिकाल में सियासत की जरूरत भी है और धर्म भी। ये नया धर्म आज की राजनीति का दीन-ए-इलाही धर्म है। इस धर्म का प्रतिपादन करने के लिए आज सत्ता के अनेक मुगल हैं। आपको इन्हें पहचानना है कि कौन अकबर है और कौन अबुल फजल? अकबर का दीन-ए-इलाही धर्म फ्लॉप हो गया था, लेकिन आज का गठबंधन धर्म सुपरहिट है। इसमें आप कहीं से ईंट लाइए, कहीं से रोडा लाइए और सत्ता का किला बना लीजिये। हालांकि गठबंधन से बने किले कब भरभरा कर गिर जाएं कोई नहीं जानता। कभी-कभी ये लम्बे चलते भी हैं और कभी तेरह दिन भी नहीं।
बहरहाल सत्तारूढ़ एनडीए को मजबूत बनाने के लिए भाजपा अपने गठबंधन में उन सभी को दोबारा शामिल कर रही है जिन्हें उसने अतीत में लतियाकर भगा दिया था। एनडीए के लिए अब जीतनराम माझी भी महत्वपूर्ण हैं और बुझे हुए चिराग पासवान ही नहीं बल्कि राजभर साहब भी। ये सभी संख्या बढ़ाने के अलावा किसी काम के नहीं है। एनडीए में जो कुछ है सो भाजपा है। बांकी एकनाथ शिंदे की शिवसेना है। अब शायद अजित पंवार की एनसीपी भी थोडा-बहुत काम आ जाए लेकिन बांकी के सब नाम के दरोगा है। एनडीए गठबंधन के सदस्यों में किसी के पास पांच तो किसी के पास लोकसभा की एक भी सीट नहीं है। एनडीए के तमाम पुराने साथी अब यूपीए के साथ हैं।
यूपीए में सबसे बडा दल कांग्रेस है। कांग्रेस की जडें जितनी हवा-हवाई हैं उतनी जमीन में भी हैं। भाजपा एक दशक कडी मशक्कत के बाद भी कांग्रेस को निर्मूल नहीं कर पाई है। कांग्रेस को निर्मूल करने की भाजपा और उसके गठबंधन ने जितनी भी कोशिशें की उनका नतीजा उल्टा ही हुआ। कांग्रेस मर-मर कर जी उठती है। भाजपा कांग्रेस की पूंछ पर पांव रखती है तो उसका सिर बाहर आ जाता है और सिर पर पांव रखती है तो पूंछ बाहर निकल आती है। भाजपा के गठबंधन में शामिल दल कांग्रेस को निर्मूल करने के अभियान में भाजपा की मदद ही नहीं कर पा रहे। यहां तक की बिहार में भी एनडीए गठबंधन इस काम में नाकाम साबित हुआ। बिहार में भाजपा के शत्रु नंबर दो यानि राजद की सरकार ठप्पे से चल रही है।
गठबंधन में अग्नि की साक्षी नहीं होती, इसलिए सभी को ये अधिकार है कि वो जब चाहे तब गठबंधन से बाहर जा सकता है या अंदर आ सकता है। अर्थात ये सात जन्मों का नहीं, बल्कि एक जन्म का भी साथ नहीं है। उदाहरण के लिए एनडीए के साथ रहे तृमूकां हो या जेडीयू हो आज यूपीए के साथ हैं। किसान आंदोलन के समय अकालीदल ने भी एनडीए का साथ छोड दिया था। एनडीए में आज-कल में शामिल हुए बिहार के संभागीय हैसियत के दल दोबारा एनडीए का झण्डा उठाने के लिए तैयार हैं। तैयार क्या मजबूर हैं, क्योंकि यदि वे ऐसा नहीं करते तो यूपीए उन्हें समाप्त कर सकती है। वे घर और घाट दोनों से जा सकते हैं। लेकिन एनडीए के दुस्साहस की सराहना करना पडेगी कि वो अपना संख्या बल बढ़ाकर दिखाने के लिए ईंटें तो छोडिये रोडे से भी छोटे टुकडों को भी इस्तेमाल कर रही है।
अब यूपीए की ओर देखिए, यूपीए के पाले में वे तमाम दल हैं जो कल तक एनडीए में थे। हैरानी तो ये है कि कल तक भाजपा की बी टीम माने जाने वाली आम आदमी पार्टी भी अब यूपीए गठबंधन का हिस्सा है। ‘आप’ बुझता हुआ चिराग नहीं है और न जीतनराम माझी या राजभर है। आप की दो राज्यों में सरकार है और पास में राष्ट्रीय दल का तमगा भी, जो दुर्भाग्य से तृमूकां तक गंवा चुकी है। लेकिन त्रिमुका के पास एक बडे राज्य बंगाल की सरकार है। राजद और जेडीयू के पास भी एक बडे राज्य बिहार की सरकार है। यानि यूपीए के साथी निहत्थे नहीं है। सबके पास सत्ता का हथियार है और जिनके पास नहीं है वे भी कम से कम बुझते हुए चिराग से तो बेहतर हैसियत में हैं। एनडीए और यूपीए की अक्षोहणी सेनाएं जब 2024 के महासमर में आमने-सामने खडी होंगी तब पता चलेगा की युद्ध का ऊंट किस करवट बैठने वाला है। अभी तो केवल कवायदें चल रही हैं।
यूपीए के गठबंधन में संख्या के हिसाब से नफरी एनडीए के मुकाबले कम नजर आएगी, किन्तु शक्ति के हिसाब से नहीं। मजे की बात ये है कि एनडीए देश की जनता को शक्ति का नहीं, संख्या का खेल दिखाकर सत्ता की भानुमती का वरण या अपहरण करना चाहती है। देश की जनता इस समय अभिभूत होने के बजाय विस्मय में है। तमाशा देख रही है, क्योंकि पहले ऐसे तमाशे कम ही होते थे। तमाशबीन जनता को नीर-क्षीर विवेक से काम लेना है। नहीं लेगी तो गडबड हो जाएगी। ये जनता के ऊपर है कि वो ‘अहो रूपम, अहो ध्वनि’ के साथ कब तक अपना काम चला सकती है। उसे तय करना है कि उसे सस्ता टमाटर और रसोई गैस चाहिए या नहीं?
भारत को विश्व गुरू बनाने वाले गुरूघण्टालों की कमी नहीं है। कायदे से वे भी अब मार्गदर्शक मण्डल में सजाये जाने लायक हो गए हैं। जनता के सामने एक तरफ टेलीप्रॉपटर नेता है और दूसरी तरफ खेतों में धान रोपते नेता। एक तरफ देश को डराते, धमकाते नेता हैं और दूसरी तरफ प्यार बांटते चलो का आलाप करते नेता। एक तरफ ब्लैक कैट कमाण्डोज के साथ चलते नेता हैं, तो दूसरी तरफ आम आदमी के साथ सडकें नापते हुए नेता। बहरहाल बात गंठबंधनों की है। भानुमतियों के कुनबों की है। वंशवाद के बाद अब कुनबा परस्ती का दौर है। कोई इससे बचा नहीं है, न कांग्रेस और न भाजपा। सियासत की ये कुनबा परस्ती देश को किस दिशा में ले जाएगी ये आयोध्या में बैठे रामलला ही जानते हैं। वे अपने मन की बात कभी आकाशवाणी पर करते नहीं हैं।
देश की राजनीति आजादी के 75 साल बाद आज एक ऐसे मुकाम पर है जहां कोई भी दल अकेले दम पर सत्ता सम्हालने की स्थिति में नहीं है। इसके लिए समय दोषी है या दलों के नेता कहना कठिन है। अब लडाई विचारधारों के बीच है, दलों के बीच नहीं। समान विचारधारा के लोग मिल-जुलकर देश की सेवा करना चाहते हैं। ये एक तरह से अच्छी बात भी है और नहीं भी। सबका साथ और सबका विकास करने के लिए ‘विविधता में एकता’ के मान्य सिद्धांत के साथ चलना ही श्रेयस्कर है। गठबंधन धर्म की एक सबसे बडी उपलब्धि यही है कि अब कोई राजनीतिक दल और विचारधारा अस्पृश्य नहीं रही। आज की राजनीति में सभी के लिए स्थान है। प्रगतिशील हो या घोर साम्प्रदायिक, जातिवादी हो या एकदम पोंगापंथी सब राजनीति की जरूरत हैं। एकनाथ हों या अठावले सब चल रहे हैं और सब चलेंगे। क्योंकि ये पब्लिक है, ये सबको चला रही है। जनता का मन चलायमान है, दक्षिण की जनता पूर्व और पश्चिम की जनता से भिन्न है। दक्षिण में सबके अपने-अपने किले हैं, किलेदार हैं, लेकिन वे सब भाजपा और कांग्रेस के सहारे के अपने आपको महफूज नहीं रख सकते। उन्हें भी चाहे-अनचाहे गठबंधन धर्म का साथ देना ही पडता है। इस मामले में कोई अपवाद नहीं है। न वाम, न दक्षिण, न पूर्व और न पश्चिम। तो आइये हम और आप इन भानुमतियों की सदबुद्धि के लिए प्रार्थना करें। हमारे हिस्से में प्रार्थना के अलावा कुछ बचा ही कहां है?