अब सावन को बरस जाने दो

– राकेश अचल

भारत में जितना इंतजार चुनावों का किया जाता है, उससे कहीं ज्यादा इंतजार सावन माह का किया जाता है। सावन का महीना शिव की आराधना का माह भी है। सावन मेघ-मालाओं के उमड-घुमड कर बरसने का माह भी है। सावन मनुष्यों से ज्यादा गदर्भों को पसंद है, क्योंकि इस महीने में उन्हें चारों तरफ हरा-हरा ही दिखाई देता है। सावन लाडली बहनों के लिए एक बहु प्रतीक्षित महीना है, क्योंकि इस महीने में उन्हें अपने मायके जाने का मौका मिलता है। वे इसी महीने में अपने भाइयों की कलाई पर रक्षासूत्र बांध कर अपनी सुरक्षा के लिए आश्वस्त होती हैं।
सावन को कहीं श्रावण भी कहते हैं। सावन आषाढ़ के बाद और भादों यानि भाद्रपद के बाद आता है। श्रवण यानि सावन झूमता जाता-आता है। अपने साथ मेघ-मालाएं, वर्षा, बाढ़, हरियाली और न जाने क्या-क्या लाता है। स्वयं आता है तो सूखे खेतों की प्यास और तीव्र हो जाती है। पोखर भरने के लिए उतावले हो जाते है। क्यारियां इतराने लगती हैं। दादुर टर्राने लगते हैं और गायक कजरी गाने लगते हैं। कवियों के लिए सावन प्रेरक महीना है। सिनेमा के लिए एक जमाने में सावन सब कुछ था। सावन में केवल गीत ही नहीं बल्कि राग भी रचे गए है। सावनी कल्याण इन्हीं रगों में से एक है।
सावन का महीना लाडली बहनों को ही नहीं भगवान शिव को भी प्रिय है। शिव जी को प्रसन्न करने के लिए सरकारें तो लोक और कोरिडोर बना देती हैं, लेकिन आम जनता व्रत-उपवास कर काम चला लेती है। सावन माह भगवान शिव को अति प्रिय है। सावन के महीने में ही शिवजी को प्रसन्न करने के लिए शिवभक्त सावन सोमवार का व्रत करते हैं। कांवड में गंगाजल भरकर सैंकडों किमी की पैदल यात्रा करते हैं और फिर उस जल से भोले बाबा का अभिषेक करते हैं। बेरोजगारी का दंश भूलकर भक्ति रास में डूबे युवाओं को श्रवन कुमार की तरह कांवर ले जाते बडा सुखद लगता है, सरकारें इन युवाओं पर हैलिकॉप्टरों से पुष्पवर्षा कर पूण अर्जित करती हैं।
एक जमाना था तब मुगलों के आक्रमण से बचने के लिए योद्धा अपनी पत्नियों के जरिये मुगल शासकों को राखी भिजवाकर भाई-बहन का रिश्ता स्थापित कर लेते थे। उस समय हिन्दुत्व से ज्यादा रियासतें संकट में होती थीं। उस समय के राजा-महाराजाओं को आज की सरकार की तरह अक्ल नहीं थी, अन्यथा उसी समय विहिप और बजरंग दल की स्थापना हो गई होती। ये दोनों संगठन होते तो रानियों को क्यों मुगलों को राखीबंद भाई बनाना पडता? अच्छा ये है कि उस समय कांग्रेस का जन्म नहीं हुआ था, अन्यथा आज उसे ही पुराने इतिहास के लिए गालियां खाना पडतीं।
भारत में भले ही वसंत को ऋतुराज कहा जाता है लेकिन असली राजा तो सावन ही होता है। सावन न आए तो न गर्मी की त्रासदी से मुक्ति मिलती है और न शरद का मजा आता है। सावन न आए तो न मयूर नर्तन देखने को मिले और न नीम और बरगद पर झूले पडें। सावन अपने साथ केवल नभजल ही नहीं लाता बल्कि ढेर सारी खुशियां भी लाता है। ये खाली हाथ आने वाला महीना नहीं है। सावन आखिर सावन है। यही वो महीना है जब पवन शोर करती है, जियरा ऐसे झूमता है जैसे वन में मोर नाचता है। पुरवैया ऐसे चलती है कि जीवन की नैया डोलने लगती है। प्रेमिकाएं अपने खिवैयों को याद करने लगती हैं।
सावन मुझे ही नहीं, मोरों और चातकों को ही नहीं बल्कि कवियों को भी खूब पसंद है। वे सावन पर लट्टू हो जाते हैं। बचपन में हमने सावन पर कवि सेनापति को पढ़ा था। वे थे तो रीतकालीन कवि लेकिन मुगलों के दरबार में भी रहे। उन्होंने राम-कृष्ण की भक्ति में डूबकर खूब लिखा, लेकिन सावन पर जो लिखा वो अदभुत है। वे लिखते हैं-
सेनापति उनए गए जल्द सावन कै,
चारिह दिसनि घुमरत भरे तोई के।
सोभा सरसाने, न बखाने जात कहूं भांति,
आने हैं पहार मानो काजर कै ढोइ कै।
धन सों गगन छ्यों, तिमिर सघन भयो,
देखि न् परत मानो रवि गयो खोई कै।
चारि मासि भरि स्याम निशा को भरम मानि,
मेरी जान, याही ते रहत हरि सोई कै।
सेनापति लिखें तो कविवर तुलसीदास पीछे क्यों रहते? उन्होंने भी सावन पर रामचरित मानस में ऐसा लिखा कि पढक़र मन प्रफुल्लित हो जाए। रामचरित मानस में ऋतु वर्णन के लिए बाबा तुलसीदास ने अपने आपको पीछे रखा और सावन के बाबद सब कुछ रामजी से कहलवा दिए। वे लिखते हैं-
कहत अनुज सन कथा अनेका। भगति बिरत नृपनीति बिबेका॥
बरषा काल मेघ नभ छाए। गरजत लागत परम सुहाए॥
लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पेखि।
गृही बिरति रत हरष जस बिष्नुभगत कहुं देखि॥
घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥
दामिनि दमक रह नघन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं।।
बरषहिं जलद भूमि निअराएं। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएं।
बूंद अघात सहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सह जैसें।।
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुं धन खल इतराई॥
भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी॥
समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा॥
सरिता जल जलनिधि महुं जोई। होइ अचल जिमि जिव हरि पाई॥
हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ।
जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ॥
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई॥
नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका॥
अर्क जवास पात बिनु भयऊ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ॥
खोजत कतहुं मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी॥
ससि संपन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै संपति जैसी॥
निसि तम घन खद्योत बिराजा। जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा॥
महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं। जिमि सुतंत्र भएं बिगरहिं नारीं॥
कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना॥
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं॥
ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियं उपज न कामा॥
बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा। प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा॥
जहं तहं रहे पथिक थकि नाना। जिमि इन्द्रिय गन उपजें ग्याना॥
कबहुं प्रबल बह मारुत जहं तहं मेघ बिलाहिं।
जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं॥
कबहु दिवस महं निबिड तम कबहुंक प्रगट पतंग।
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग॥
सावन को लेकर सियासी लोग अलग तरह से सोचते है। वे इस महीने में अपने विरोधियों की कमर तोडने के लिए उनके दलों में तोडफोड करते है। सत्तारूढ़ दलों को ये अधिकार होता है कि वे सावन में महाभ्रष्टों को माफ कर उन्हें अपने दल में शामिल कर पवित्र घोषित कर दें। जैसे दादा अजित पंवार और उनके साथियों को किया। उनके खिलाफ चाहें तो आरोप पात्र दाखिल कर मुकद्दमों में उलझा दें। जैसे लालू यादव के पुत्रों के खिलाफ किए। यानि सावन सबको अपने-आपने ढंग से कुछ न कुछ देता ही है। लेता कुछ नहीं है। सावन न आए तो नेताओं को बाढग़्रस्त क्षेत्रों का हवाई निरीक्षण करने का मौका न मिले। नौकरशाही को राहत शिविर लगाकर कमाने का मौका न मिले।
सावन के आते ही चौमासा शुरू हो जाता है। चौमासा यानि चातुर्मास। इस काल में जो जहां है वहीं रम जाना चाहता है। साधू-संत इस महीने में प्रवचन कर शेष वर्ष के लिए अपनी रोटी-पानी का इंतजाम कर लेते हैं। किसानों के लिए भी ये चौमासा अलग तरह से काम का होता है। किसान सावन का स्वागत अपने छान-छप्पर की खपरैल और घास-फूस बदलकर करता है। शहरों में छतों की वाटर प्रूफिंग कराई जाती है। लोनिवि वाले सडकों का संधारण बंद कर आपात स्थितियों के लिए कमर कसकर तैयार हो जाते हैं। मतलब सावन सभी के लिए महत्वपूर्ण है। सावन के महीने में इतनी छुट्टियां होती हैं कि सरकारी सेवकों की बल्ले-बल्ले हो जाती है। बिना काम के पगार पाने का महीना भी है सावन। इस साल सावन में सरकारी सेवकों को कम से कम 15 अवकाश मिल रहे हैं।
सावन को लेकर मैंने अपनी बात कह दी। आपको इसमें से जितनी पसंद आए अपने लिए रख लें और बांकी दूसरों के लिए छोड दें, जैसे आज-कल फिल्म और साहित्य वालों ने सावन को छोड दिया है। अब फिल्मों में सावन के गीत सुनाई ही नहीं देते। हीरो-हीरोइन सावन में न झूले झूलते हैं और न प्रियतम का इंतजार करते हैं। उनके लिए तो सावन कभी भी हाजिर होता है। सावन की फुहारों का इंतजार फिल्म वाले नहीं करते। वे फव्वारे चलकर रेनडांस कर लेते हैं। अब कोई नहीं गाता- बरखा रानी जरा जम के/ थम के बरसो। सावन से समाज का टूटता रिश्ता एक गंभीर बात है। लेकिन दुर्भाग्य कि कोई इसे गंभीरता से ले ही नहीं रहा।