– राकेश अचल
इतिहास मेरा प्रिय विषय रहा है, आधी सदी पहले जब मैं ग्वालियर आया था उसी समय से स्थानीय इतिहास को खंगालता रहा, मैं न इतिहास में विशेषज्ञ हूं और न मेरे पास तत्संबंधी कोई उपाधि है, किन्तु इतिहास के भीतर झांकने की वजह से मुझे कभी कोई परेशानी नहीं हुई।
मैं जब 1857 में झांसी की रानी के विद्रोह पर उपन्यास ‘गद्दार’ लिखने की कोशिश कर रहा था, उस समय सिंधिया वंश की एक राजमाता बार-बार मेरे सामने आ खड़ी होती थी और वो थीं बायजाबाई शिंदे। उनके नाम के आगे ‘श्रीमंत’ शब्द न टांकना एक तरह की अशिष्टता है। लेकिन इसके बिना भी अपने समय की एक विदुषी और बहादुर प्रशासक रहीं सिंधिया राजघराने के इतिहास में उन्होंने अपनी एक अनूठी जगह बनाई। मेरे अग्रज और इतिहास के विद्वान डॉ. अजय अग्निहोत्री की पुस्तक ‘राजमाता श्रीमंत बायजाबाई शिंदे’ जब मेरे हाथ लगी तो मेरे लिए इतहास का एक नया पन्ना खुल गया।
इतिहास लेखन एक अलग विधा है, उपन्यास से अलग। यदि मैं बायजाबाई पर लिखता तो शायद उतना प्रामाणिक न होता जितना की डॉ. अजय अग्निहोत्री का लिखा है। कुल आठ अध्यायों की इस पुस्तक में बायजाबाई के व्यक्तित्व, कृतत्व और चरित्र को सप्रमाण इस तरह से उकेरा गया है कि आपके सामने बायजाबाई शिंदे खुद प्रकट होती सी प्रतीत होती हैं। बायजाबाई की कुल परम्परा से लेकर उनके पाणिग्रहण तक के बारे में सप्रमाण लिखना आसान काम नहीं है, लेकिन डॉ. अजय अग्निहोत्री ने इस काम को अपने परिश्रम से आसान ही नहीं अपितु सरस बना दिया।
ग्वालियर के बहुत कम लोग जानते हैं, लेकिन यदि जानते तो उन्हें पता चलता कि राजकाज में केवल पुरुष ही नहीं अपितु बायजाबाई जैसी विदुषी महिलाओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। बायजाबाई गदर के पहले सिंधिया परिवार में उपस्थित होती हैं और ताउम्र मौजूद रहतीं हैं। वे अपने पति दौलतराव सिंधिया का राजकाज में जिस प्रतिबद्धत्ता से साथ निभाती हैं उसे देखकर अंग्रेज तक दंग रह जाते हैं और नि:संतान महाराज को चाहकर भी दत्तक पुत्र लेने के लिए विवश नहीं कर पाते। अंग्रेजों ने ये उदारता बाद में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ नहीं बरती, बहरहाल बायजाबाई को दत्तक पुत्र गोद लेने का अवसर भी मिला और राजकाज चलाने का भी, वे अंग्रेजों से लड़ी भीं और उनके साथ जूझी भीं, कुल छह वर्ष के अपने कार्यकाल में बायजाबाई ने जो किया वो ही सबसे ज्यादा रोचक इतिहास है।
बायजाबाई को जहां पति का समर्थन हासिल था, वहीं अपने बेटे जनकोजीराव से उनका मतभेद ताउम्र रहा। सत्ता दोनों के बीच केन्द्र में थी। जनकोजीराव को राजकाज सम्हालने का उतावलापन था जबकि बायजाबाई में धैर्य। बायजाबाई ने जहां सत्ता सुख भोगा, वहीं निष्काशन का दंश भी उनके हिस्से में आया। उनका वनवास समाप्त भी हुआ लेकिन तब तक बहुत समय बीत चुका था। उन्हें उनके पौत्र ने वापस ग्वालियर बुलाया। उनके पौत्र जयाजीराव पर ही बाद में गद्दारी का आरोप लगा। खैर वो अलग किस्सा है। इस पुस्तक को आप एक शोध ग्रंथ के रूप में भी पढ़ सकते हैं और एक उपन्यास के रूप में, हालांकि दोनों में भेद है, लेकिन जब आप बायजाबाई को जानने लगेंगें तो मुझे यकीन है कि पुस्तक के 115 पृष्ठ आपको भारी नहीं लगेंगे। खास बात ये है कि डॉ. अग्निहोत्री ने बायजाबाई को समझने के लिए सात परिशिष्ट लगाकर इसे और आसान बना दिया है। पुस्तक में रंगीन चित्र भी हैं जो बायजाबाई को एक संपूर्ण राजनायिका के रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत करते हैं। पुस्तक की भाषा बेहद सरल है, हां कुछ खास अनुवाद और उद्धरण कहीं-कहीं आपको बोझिल लग सकते हैं, किन्तु इनके बिना बायजाबाई शिंदे को समझा भी नहीं जा सकता। यानि ये एक जरूरत हैं पुस्तक की।
यश पब्लिकेशन ने अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप इस पुस्तक को छापा है। भाषा की गलतियां खोजने पर भी नहीं मिलतीं, हां पुस्तक का मूल्य (495 रुपया) तनिक अधिक जान पड़ता है। लेकिन जिनके पास इतिहास दृष्टि है उनके लिए ये कीमत बहुत ज्यादा भी नहीं है। डॉ. अजय अग्निहोत्री की इस पांचवीं रचना के लिए मैं उन्हें बधाई देता हूं। मुझे उम्मीद है कि ग्वालियर और सिंधिया वंश में दिलचस्पी रखने वालों के लिए ‘राजमाता श्रीमंत बायजाबाई शिंदे’ पुस्तक बेहद उपयोगी साबित होगी।