बहुत हो गया, आ अब लौट चलें!

– राकेश अचल


कल एक पुराने मित्र का फोन आया, उसका सुझाव था कि मुझे अब रोज की राजनीति पर लिखना बंद कर कविताएं, कहानी और उपन्यास लिखना चाहिए। क्योंकि जो देश की सियासत के खलनायक हैं वे सुरक्षित घेरे में पहुंच चुके हैं। उनका आप और हम सब कुछ नहीं बिगाड सकते। सुझाव अच्छा है, लेकिन मन है कि मानता नहीं। न लिखूं तो अपराध-बोध होता है और लिखूं तो सियासी लोग अपराधी समझते हैं। यानि धर्म-संकट है। धर्म अकेला मेरा नहीं बल्कि पूरे देश का संकट बन गया है। धर्म के नाम पर अब देश में जो हो रहा है उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं है।
देश आजादी के अमृतकाल के बाहर निकल चुका है। अब हम धर्मयुग में प्रवेश कर चुके हैं। इस धर्मयुग से बाहर निकलने में देश को एक लंबा संघर्ष करना पडा था। आजादी के पहले के धर्मयुग ने देश को दो भागों में बांट दिया था। शेष बचे देश को धर्म-निरपेक्षता ने नए सिरे से सम्हाला, सजाया, संवारा। किन्तु दुर्भाग्य ये है कि अब इस प्रयास को ही अपराध की श्रेणी में डालकर दोबारा से देश को धर्मयुग में वापस ले जाने की सुनियोजित कोशिश की जा रही है। दुर्भाग्य ये भी है कि इस कोशिश को कामयाबी भी मिल रही है, जबकि इस कोशिश में देश की आधी से ज्यादा आबादी शामिल नहीं है।
नए भारत के जीवन मूल्य पुराने भारत के जीवन मूल्यों से अलग नहीं हैं, लेकिन उनमें समयानुसार तब्दीली की गई थी। देश के नायकों की जुबान पर आजादी की लडाई के समय भी राम थे और आज धर्मयुग के नायकों कि मुंह में भी राम हैं, किन्तु दोनों के राम एक नहीं है। एक के राम मन-मन्दिर में बसते थे और दूसरे के राम करोडों की रकम खर्च करके बनाए गए मन्दिर में विराजने वाले हैं। पहले के राम आसरा थे, आज के राम खुद आश्रित हैं। वे अपने नाम के दुरुपयोग को रोक नहीं पा रहे। वे अपने नाम पर समाज के ध्रुवीकरण के खिलाफ बोल नहीं पा रहे। सामने जब क्रूर सियासत हो तो अच्छे-अच्छों की बोलती बंद हो जाती है। जिनकी बोलती बंद नहीं होती, उनकी बंद कर दी जाती है।
इस देश में आजादी के बाद पहला मौका है कि कोई राजनीतिक दल किसी ट्रेवल एजेंसी की तरह रामजी के दर्शन करने कि लिए अपने कार्यकर्ताओं को बूथ स्तर पर तैनात कर रहा है। ये पहली बार हो रहा है कि कोई राजनीतिक दल किसी धार्मिक स्थल पर हर दिन 50 हजार लोगों के रहने, खाने, पीने और ठहरने की व्यवस्था करने जा रहा है। ये पहला मौका है जब किसी राजनीतिक दल की सरकार सरकारी खजाने से किसी धार्मिक स्थल को पर्यटन केन्द्र के रूप में बदलने के लिए सरकारी खजाने का बेहिसाब इस्तेमाल कर रही है। देश ने धर्मनिरपेक्षता के जिस रास्ते को अपनाया था उस पर कांटे बो दिए गए हैं। यानि देश वासियों से कहा जा रहा है कि वे केवल धर्म के रास्ते पर चलें।
दुनिया के तमाम देशों में लोग धर्मध्वजाएं उठाकर चल रहे हैं, लेकिन उनकी क्या दशा है, ये किसी से छिपी नहीं है। लेकिन जो देश धर्मनिरपेक्षता के पथ पर अग्रसर हैं, वहां विकास भी है और सदभाव भी। सहकर भी है और शांति भी। लेकिन ये सब केवल राम भरोसे मुमकिन नहीं है। इसके लिए दरियादिली जरूरी है। दरियादिली का अर्थ सभी धर्मों के प्रति उदारता और समान सम्मान की भावना है। जिन देशों में संविधान काम कर रहा है वहां स्थितियां अलग हैं और जिन देशों में संविधान को ताक पर रखकर सरकारें चलाई जा रही हैं, वहां जनता अवसाद में है।
छात्र जीवन में मैं जब कार्ल माकर््स को पढता था तब मुझे लगता कि धर्म आखिर अफीम कैसे हो सकती है? अफीम तो खेतों में पैदा होती है। लेकिन अब मुझे समझ आने लगा है कि माकर््स सही कहता था कि धर्म अफीम है और अफीम का नशा अपना असर किस तरह से दिखाता है, ये साफ नजर आ रहा है। दुर्भाग्य ये है कि धर्म की अफीम खुद निर्वाचित और संविधान के तहत गठित सरकारें उठा रही हैं। सरकारों की प्राथमिकता में धर्मनिरपेक्षता, साम्प्रदायिक सदभाव, विकास बहुत पीछे है। धार्मिक उन्नयन सबसे ऊपर है। एक तरफ सरकार रेलों के किराये बढाकर यात्राओं को महंगा कर रही है, दूसरी तरफ सरकारें ही तीर्थ यात्राओं के लिए अपने खजाने खाली करने में संकोच नहीं कर रहीं।
बहरहाल अपने मित्र की सलाह पर मैं लिखना बंद नहीं कर रहा। हां ये बात और है कि मैं दोबारा से कविता, कहानी, उपन्यास और यात्रा संस्मरणों की और लौटूंगा। मुझे इस बात की फिक्र नहीं है कि मेरा लिखा कालजयी नहीं है। मुझे इस बात का संतोष है कि मुझे जिस काल में लिखना था उस समय में लिख रहा हूं, मौन नहीं हूं। मैंने अपनी आंखें बंद नहीं कीं। शतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर नहीं छिपाया। मैं किसी की तर्जनी देखकर कुम्हडे के फूल की तरह मुरझाया या भयभीत नहीं हुआ। इस देश में सियासतदां राजधर्म नहीं निभाते ये अलग बात है, किन्तु जनता को भी कालधर्म तो निभाना चाहिए। समय आपसे क्या अपेक्षा करता है, ये जानना बहुत जरूरी है। ये समय धर्मांध होने का नहीं, धर्म से चेतना ग्रहण कर जागते रहने का है। उन कोशिशों को नाकाम करने की है जो देश में धर्मान्धता फैलाने की है।
संविधान ने आपको आजादी दी है कि आप कसी धर्म में आस्था रखें, संविधान ने ये आजादी नहीं दी है कि आप किसी धर्म के अपने पडौसी से धर्म के आधार पर वैरभाव रखें। आपकी जेब में पैसे हों आप तब अपने इष्ट के दर्शन करने जाएं, आपको किसी राजनीतिक दल की ओर से धर्मयात्राओं के लिए मुफ्त में किए जाने वाले इंतजामों से बचना चाहिए। इनका इस्तेमाल करने से आपको पुण्य हासिल होने वाला नहीं है, उलटे आप इन राजनीतिक दलों के ऋणी हो जाएंगे। आपको उनका कर्ज अपना कीमती वोट देकर उतारना होगा। इसलिए अपने कीमती वोट को इतने सस्ते में बर्बाद मत कीजिए। वैसे मर्जी आपकी है, क्योंकि वोट आपका है।