संसद है कोई कब्रस्तान नहीं, साहब आइये!

– राकेश अचल


लोकसभा का मानसून सत्र शुरू हुए 19 दिन हो गए लेकिन देश के प्रधानमंत्री जी इतने व्यस्त हैं कि एक दिन भी संसद में दर्शन देने नहीं आए। जो व्यक्ति संसद की सीढिय़ों पर माथा टेकता हो उसे अचानक संसद से इतनी वितृष्णा क्यों हो गई ये शोध का विषय है। संसद का मानसून सत्र 11 अगस्त को समाप्त होगा, मुमकिन है कि अंतिम दिन देश और दुनिया को देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दर्शन सुलभ हो जाएं। मोदी जी के दर्शन देश ने सत्र के आरंभ में पहले दिन किए थे।
प्रधानमंत्री देश में लोकतंत्र के सबसे बढ़ पहरुए हैं, किन्तु इन दिनों वे संसद सके भीतर कम बाहर जायदा नजर आते हैं। संसद में उनकी अनुपस्थिति देखकर लगता है कि वे संसद से या तो डरने लगे हैं या फिर उन्हें संसद से अनुख (एलर्जी) हो गई है या वे संसद को लोकतंत्र का कब्रस्तान समझने लगे हैं। देशभर से चुनकर आए सांसद प्रधानमंत्री जी को दूरबीन लेकर खोज रहे हैं, लेकिन वे संसद में कहीं नजर नहीं आ रहे। संसद में आकर वे करें भी तो क्या करें? सांसद संसद में हंगामा करने आते हैं और हंगामा माननीय को रत्ती भर पसंद नहीं। माननीय को सांसदों के सवाल पसंद नहीं, उनकी टिप्पणियां पसंद नहीं। हालांकि वे संसद को लोकतंत्र का मन्दिर मानते हैं और जब वे पहली बार संसद की सीढिय़ां चढ़े थे तो संसद के प्रति श्रृद्धा से लंबलेट हो गए थे। पिछले नौ साल में पता नहीं क्या हुआ कि प्रधानमंत्री की संसद के प्रति विरक्ति बढ़ती ही जा रही है। वे संसद में न अपनी पार्टी के सांसदों को सुनना पसंद करते हां और न दूसरे दलों के सांसदों को। जब सुनेंगे नहीं तो सिरदर्द भी नहीं होगा। सुनेंगे नहीं तो किसी के प्रति जबाबदेह भी नहीं होंगे। लोकसभा का मान बढ़ाने का शायद ये नया तरीका है। संसद की कार्रवाई जबसे टीवी के पर्दे पर दिखाई जाने लगी है तभी से मैं तो सब काम-काज छोडकर सदन की कार्रवाई को देखता ही हूं। कभी-कभी इस वजह से मेरे घर में झगडे भी हो जाते हैं, लेकिन लोकतंत्र के लिए मैं इन झगडों को भी बर्दाश्त कर लेता हूं। लेकिन संसद के भीतर के झगडे बर्दाश्त करना प्रधानमंत्री जी के बूते की बात नहीं। उन्होंने इस काम के लिए अपने हनुमान यानि गृहमंत्री अमित शाह को छोडा हुआ है।
देश को नवगठित इंडिया का शुक्रगुजार होना चाहिए कि वो सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव ले आई। कम से कम इस प्रस्ताव का जबाब देने तो प्रधानममंत्री जी सदन में आएंगे ही। भले ही उन्होंने विपक्ष को गागरोनी गाते हुए न सुना हो, लेकिन उनकी इंटेलिजेंस ने उन्हें सब कुछ बता ही दिया है कि किसने क्या कहा? वैसे सुनने की कूबत मोदी जी से कहीं ज्यादा अटल बिहारी बाजपेयी जी में थी। डॉ. मनमोहन सिंह तो सिर्फ सुनते ही थे, बोलते बहुत कम थे। कोई कम सुनता है तो कोई कम बोलता है। जो सुनता है, उसे बोलना भी आता है, लेकिन हमारे प्रधानमंत्री जी टेलीप्रॉम्प्टर युग के हैं। हर समय लिखा हुआ बोलते हैं ताकि सनद रहे कि उन्होंने क्या बोला? मुश्किल ये है कि संसद में सरकार प्रधानमंत्री जी के लिए टेलीप्रॉम्पटर नहीं लगा सकती। संसद में तो विपक्ष के आरोपों का जबाब प्रधानमंत्री जी को अपनी मेधा से देना होता है। प्रधानमंत्री जी की मेधा असंदिग्ध है। उन्होंने इसी के बल पर दुनिया को लट्टू बना रखा है। अपने पडौस के चीन के प्रधानमंत्री की तरह हमारे प्रधानमंत्री जी घर-घुस्सू नहीं हैं। हमारे प्रधानमंत्री जी के पास भले ही संसद में आने और मणिपुर जाने का समय न हो किन्तु वे लगातार विदेश यात्राएं करते रहते हैं। आंधी-तूफान आए, मणिपुर पूरा और हरियाणा आधा जल जाए, लेकिन उनकी विदेश यात्राएं नहीं रुकतीं। ये जज्बा दुनिया के बहुत कम प्रधानमंत्रियों के पास होता है। इसके लिए कलेजा भी चाहिए और चौडा सीना भी।
बहरहाल बात प्रधानमंत्री जी के संसद में उपस्थित न होने की चल रही थी। बेचारे प्रधानमंत्री जी क्या करें? उनके कार्यालय ने पहले से ही उनके इतने चुनावी दौरे और रैलियां, उदघाटन और पार्टी की सभाएं तय कर दी होती हैं कि वे संसद के लिए समय नहीं निकाल पाते। चाहकर भी नहीं निकाल पाते। संसद के पीठासीन अधिकारियों की इतनी जुर्रत नहीं कि वो गैरहाजरी के लिए प्रधानमंत्री जी से कुछ कह सकें। लोकतंत्र में प्रधानमंत्री सबसे ऊपर होता है। कभी-कभी तो लोकतंत्र से भी ऊपर। इतना ऊपर कि आप उसकी परछाई भी नहीं छू सकते। लोकतंत्र में प्रधानमंत्री तो क्या उनकी परछाई को भी छूना एक बहुत बडी उपलब्धि है। पूरा देश प्रधानमंत्री जी की और टकटकी लगाए देख रहा है कि वे अविश्वास प्रस्ताव के जबाब में क्या बोलते है। प्रधानमंत्री जी का बोलना एक ऐतिहासिक घटना है। प्रधानमंत्री जी को पता है की विपक्ष का अविश्वास प्रस्ताव उनके बोलने के पहले ही औंधे मुंह गिरने वाला है, इसलिए फिक्र की कोई बात नहीं है। फिक्र की बात ये है कि वे ऐसा क्या बोलें जो सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। वैसे प्रधानमंत्री जी जानते हैं कि विपक्ष जो बोलेगा सो बोलेगा। विपक्ष का काम ही बोलना है। सरकार का काम उसे सुनना या अनसुना करना है। यदि सरकार केवल सुनती ही रहेगी तो अपना काम आखिर कब करेगी?
अविश्वास प्रस्ताव पर सत्ता पक्ष के पास सरकार की उपलब्धियां गिनाने और विपक्ष को गरियाने के आलावा कुछ नहीं है और विपक्ष के पास भी प्रधानमंत्री जी को कटघरे में खडा करने के अलावा कुछ बचा नहीं है। प्रधानमंत्री जी को कटघरों से कोई भय नहीं लगता। वे हमेशा से कटघरों का सम्मान करते हैं। उनकी खुशनसीबी है कि गुजरात दंगों के समय खुद उनकी पार्टी के नेता अटल बिहारी बाजपेयी ने उन्हें कटघरे में खडा किया था। यही बात मणिपुर को लेकर है। विपक्ष बेकार हलकान है कि प्रधानमंत्री जी मणिपुर क्यों नहीं गए? मणिपुर पर क्यों नहीं बोले? विपक्ष नहीं जानता कि जो ताकत मौन में हैं वो बोलने में नहीं है। मौन रहना ही सच्चा गांधीवाद है। मुखर होना गांधीवाद के खिलाफ है। ये देश आखिर गांधी का देश है। ये बात और है कि सरकार साबरमती में गांधी आश्रम को भी भाजपा के आलिशान दफ्तरों की तरह फाइव स्टार आश्रम में तब्दील करने में लगी है।
मेरी शुभकामनाएं हैं कि संसद में अविश्वास प्रस्ताव औंधे मुंह ऐसा गिरे कि फिर अगले आम चुनाव तक उठ ही न पाए। अविश्वास प्रस्ताव के गिरने में ही उसकी भलाई है। कोई भी हो गिरकर ही उठता है। ये नियम व्यक्ति, संस्था और प्रस्ताव तीनों पर लागू होता है। बहरहाल हम सब देश के प्रधानमंत्री जी के श्रीमुख के खुलने का बेताबी से इंतजार कर रहे है। संसद की दीवारों के कान भी खडे हैं। टीवी चैनलों का उतावलापन भी उत्ताल तरंगे ले रहा है। प्रधानमंत्री जी बोलेंगे तो विपक्ष के साथ ही योरोप और इंग्लैंड को भी जबाब मिल जाएगा। मणिपुर वालों को तो जबाब की जरूरत है ही नहीं। वहां तो वैसे ही इंटरनेट बंद है।