– राकेश अचल
बंगाल में पंचायत चुनाव के दौरान हुई हिंसा से एक बात तो साफ हो गई कि राज्य की तृणमूल सरकार अपने राज्य में लोकतंत्र को या तो खून से सींच रही है या फिर राज्य में लोकतंत्र अलोकतंत्र में तब्दील हो चुका है। राज्य में चुनावी हिंसा में कम से कम 18 लोग तो मारे ही गए हैं, मुमकिन है कि मरने वालों का ये आखरी आंकडा न हो। बंगाल का अतीत ही खून-आलूदा रहा है। इस सुसंस्कृत सूबे में आजादी से लेकर 1977 तक कांग्रेस और कांग्रेस की कोख से तृणमूल कांग्रेस की तरह बनी बंगाल कांग्रेस सत्ता में रही। 1977 में वामपंथियों के हाथ में सूबे की सत्ता आई तो लगातार 33 साल हिली नहीं। इस लम्बे कार्यकाल में वामपंथियों ने सूबे के लोकतंत्र को अपने हिसाब से लाल रंग में रंग लिया था। कोई उनके सामने टिका नहीं। किन्तु 2011 में तृणमूल कांग्रेस ने वामपंथ को जमीदोज किया और तब से अब तक लगातार तृणमूल कांग्रेस ही सत्ता में है। तृणमूल को न कांग्रेसी नेस्तनाबूद कर पाए न भाजपाई और न वामपंथी।
किसी भी एक दल के लगातार सत्ता में रहने से जहां कुछ फायदे होते हैं, वहीं कुछ नुक्सान भी होते हैं। तृणमूल कांग्रेस भले ही कांग्रेस की कोख से जन्मा राजनीतिक दल है, लेकिन उसके संस्कारों में कांग्रेस से ज्यादा वामपंथी जज्बा दिखाई देता है। तृणमूल कांग्रेस ने वामपंथियों की तर्ज पर अपने तमाम विरोधियों को गाजर-मूली की तरह काटा-मारा है। हाल की पंचायत हिंसा में भी ये साबित हो गया है कि तृणमूल कांग्रेस भी गांधीवादी आदर्शों पर चलने वाली पार्टी नहीं है। बंगाल के पंचायत चुनावों में इतनी व्यापक हिंसा का आदेश पहले से था। दुर्भाग्य ये है कि राज्य सरकार इस हिंसा को रोकने में पूरी तरह नाकाम रही। मुमकिन है कि इस हिंसा के पीछे भाजपा और वामपंथियों का भी हाथ हो लेकिन इसी वजह से राज्य की तृमूकां सरकार को क्षमादान नहीं मिल सकता। राज्य में हुई हिंसा का पूरा दायित्व मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी का है। मैं उन्हें एक मजबूत प्रशासक कहने के बजाय एक नाकाम और क्रूर प्रशासक कहने में भी संकोच नहीं कर सकता।
पंचायत चुनावों में कल जो हुआ वो ही सब अतीत में बिहार जैसे राज्यों में होता था, लेकिन दूसरे राज्यों में स्थितियां बदल गईं पर बंगाल का चरित्र नहीं बदला। यहां की सत्तारूढ़ पार्टियों की दाढ़ में लगा आदमी का खून आज भी साफ दिखाई देता है। लगता है कि सुसंस्कृत कहलाने वाले बंगाली खून बहाए बिना सरकारें चला ही नहीं सकते। आजादी के अमृतकाल में ये सवाल किया जा सकता है कि आखिर हम किस तरह की आजादी के वारिस हैं? बंगाल की हिंसा पर विभिन्न राजनितिक दलों की बेहद तल्ख प्रतिक्रियाएं आई हैं, आना भी चाहिए। किन्तु सबसे हास्यास्पद प्रतिक्रिया भाजपा की है, भाजपा कहती है कि हम बंगाल में लोकतंत्र को मरने नहीं देंगे।
भाजपा लोकतंत्र की सच्ची हिमायती पार्टी है। उसे बंगाल में चुनावी हिंसा में 18 लोगों के मारे जाने पर लोकतंत्र मरता दिखाई देने लगता है, किन्तु मणिपुर में सौ से ज्यादा लोगों की हत्या के बावजूद वहां लोकतंत्र को कोई खतरा महसूस नहीं होता, क्योंकि मणिपुर में भाजपा की डबल इंजिन की सरकार है। किसी भी देश या राज्य में चुनावों के दौरान हिंसा तब होती है जब लोगों का या तो लोकतंत्र से विश्वास उठ जाता है या सत्तारूढ़ दल की जमीन खिसकने लगती है। सत्ता को बचाने या हासिल करने के लिए निर्दोष लोगों के प्राणों की बलि लिए बिना लोकतंत्र की रक्षा आखिर क्यों नहीं हो पाती?
आजादी के बाद से बंगाल इसी तरह की हिंसा और राज्य सरकारों की नाकामी की वजह से एक बार नहीं बल्कि चार बार राष्ट्रपति शासन का दंश झेल चुका है। बंगाल में तीन बार तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने और अंतिम बार जनता पार्टी की सरकार ने राष्ट्रपति शासन लगाया था। बंगाल की किस्मत है कि भाजपा सरकार ने राज्य की सरकार को अपदस्थ नहीं किया। चुनावों के जरिये सत्ता हासिल करने की कोशिश की, लेकिन कामयाब नहीं हुई। भाजपा राज्य में तीन विधानसभा चुनावों में मुंह की खा चुकी है। कांग्रेस 12 साल में खुद को अपने पांवों पर खडा नहीं कर पाई है और वामपंथियों ने तो शायद खुद को चुनावी राजनीति से एक तरह से अलग ही कर लिया है।
मुझे लगता है कि बंगाल में बहता खून अब बंगाल की जनता खुद ही रोकेगी। बंगाल में खून-खराबे के लिए अकेले राज्य सरकार के ऊपर ठीकरा नहीं फोडा जा सकता। केन्द्र भी इसके लिए जिम्मेदार है। केन्द्र को पहले से सूबे के पंचायत चुनावों में हिंसा का अंदेशा था तो उसे भी एहतियात बरतना चाहिए थी। मुमकिन है कि केन्द्र खुद इस खून-खराबे का इंतजार कर रहा हो, ताकि सूबे की मुख्यमंत्री को घेरा जा सके। देश में गैर भाजपा दलों के बीच पक रही एकता की खिचडी पकाने में शामिल ममता बनर्जी को बदनाम करने के लिए आखिर केन्द्र को भी तो कुछ लाली चाहिए न? देश के पांच राज्यों में इसी साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों में भी बंगाल की हिंसा की अनुगूंज सुनाई देगी। भाजपा इस दुर्भाग्यपूर्ण हिंसा का राजनीतिक लाभ लेने से पीछे हटने वाली नहीं है। कांग्रेस भी इसी ताक में है कि ममता बनर्जी खलनायिका के रूप में देश को नजर आएं, ताकि उन्हें विपक्षी एकता की कमान न मिल सके। भाजपा विपक्षी एकता के एक और नायक शरद पंवार की कमर तोड ही चुकी है। उसके निशाने पर और भी दूसरे लोग और पार्टियां हैं।
ममता बनर्जी को बंगाल की हिंसा के लिए केन्द्र या किसी अन्य पर दोषारोपण करने के बजाय खुद जिम्मेदारी लेते हुए न सिर्फ राज्य की जनता से क्षमा मांगना चाहिए, बल्कि सुनिश्चित करना चाहिए कि अगले साल देश में होने वाले लोकसभा चुनावों में उनके सूबे में एक बूंद खून नहीं बहेगा। यदि ऐसा नहीं होता तो वे भी लोकतंत्र की हत्या की उसी तरह भागीदार बनेंगी जिस तरह से आज केन्द्र में बैठी भाजपा को लोकतंत्र का गला घोंटने वाला माना जा रहा है। बंगाल की चुनावी हिंसा में मारे गए लोगों के परिजनों के प्रति मेरी पूरी सहानुभूति है। मेरी मांग है कि राज्य सरकार इस हिंसा की उच्च स्तरीय जांच कराएं और मृतकों के आश्रितों को हर संभव राज सहायता प्रदान करें।