देश की फिक्र कीजिए, दलों की नहीं

– राकेश अचल


इस समय देश की सत्ता देश से ज्यादा दलों की चिंता में दुह्वबली हो रही है। सत्तारूढ़ दल के सामने देश से पहले चुह्वनाव है। देश का पूर्वी हिस्सा जल रहा है, लेकिन हमारी सरकार महाराष्ट्र के रण में उलझी है। सत्तारूढ़ दल की ये कामयाबी है कि नाकामी, ये जब तय होगा, तब होगा। लेकिन तब तक देश का बहुत बडा नुक्सान हो चुका होगा।
महाराष्ट्र और मणिपुर की राशि एक ही है। महाराष्ट्र भाजपा की लगाई आग में जल रहा है और मणिपुर भी। मणिपुर को जलते हुए दो महीना दो दिन हो चुके हैं, लेकिन वहां कानून का शासन स्थापित नहीं हो पा रहा है। केन्द्र सरकार की ओर से राज्य में शांति स्थापना के अब तक किए गए सारे जतन नाकाम हो चुके हैं। यहां तक की सेना और अद्र्ध सैनिक बल भी मणिपुर की आग नहीं बुझा पा रहे हैं और सूबे की डबल इंजिन की सरकार बेशर्मी के साथ तमाशबीन बनी बैठी है। मणिपुर की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार कांग्रेस नहीं है, बल्कि सत्तारूढ़ दल है। अपनी नाकामी पर पर्दा डालने के लिए ही लगता है कि केन्द्र सरकार ने महाराष्ट्र में चिंगारी सुलगाई है।
सच कहें तो महाराष्ट्र देश के लिए उतनी बडी चिंता नहीं है, जितनी बडी चिंता मणिपुर है। मणिपुर में जातीय हिंसा के साथ अलगाव की आग फिर भडक उठी है। मणिपुर में कुछ लोग फिर से अलग राष्ट्र का मुद्दा उठा चुके हैं, लेकिन केन्द्र सरकार गुड खाकर बैठी है। चार साल पहले जम्मू-कश्मीर में एक विधान, दो निशान का मुद्दा उछाल कर सूबे की अस्मिता से खलवाड करते हुए जम्मू-कश्मीर को तीन हिस्सों में विभाजित करने वाली केन्द्र सरकार के लिए मणिपुर गले की हड्डी बनकर रह गया है। मणिपुर पर न हमारे देश के प्रधानमंत्री किसी मंच से बोल रहे हैं और न किसी को बोलने दे रहे हैं। पोल खुलने का डर है, लेकिन संसद के वर्षाकालीन सत्र में तो उन्हें अपना मुंह खोलना ही पडेगा। मुमकिन है कि वे संसद को भी ठेंगे पर रखें और कुछ न बोलें। और देश का ध्यान महाराष्ट्र पर ही अटकाए रखने की कोशिश करें।
ऊपर से महाबली दिखाई देने वाली भाजपा भीतर से बहुत भयभीत हो चुकी है। देश के तमाम राज्य विधानसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे का जादू नहीं चल पाया, ऐसे में भाजपा अब क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को अपने फंदे में फंसाने में लगी है। उत्तर प्रदेश में भाजपा ने ईडी और सीबीआई के बल पर बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी को पहले ही बधिया बना दिया है। आप पहले से भाजपा की बी टीम बनी हुई है। बिहार में भाजपा रामविलास पासवान और जीतनराम माझी की पार्टियों का सलाद पहले ही बना चुकी है। जेडीयू और राजद पर भाजपा का विभाजनकारी विष काम नहीं कर पाया, किन्तु महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी इस जहर से दो फाड हो गई। राजस्थान और मध्य प्रदेश के अलावा छत्तीसगढ़ ने भी भाजपा को ठेंगा दिखा दिया।
भाजपा को कायदे से महाराष्ट्र जीतने के बजाय मणिपुर जीतने की कोशिश करना चाहिए, क्योंकि मणिपुर देश की सुरक्षा सम्प्रभुता से जुडा राज्य है। मणिपुर की अशांति बहुत भारी पड सकती है। देश का ध्यान बंटाने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पिछले दिनों मप्र में चुनावी शंखनाद करते हुए समान नागरिक संहिता का मुद्दा उछाल चुके हैं। देश के सामने अभी समान नागरिक संहिता प्रमुख मुद्दा नहीं है, मुद्दा मणिपुर है। मणिपुर पर केन्द्र कुछ भी बोलने को राजी नहीं है। विपक्ष भी केन्द्र का मुंह खुलबाने में नाकाम रहा है। विपक्ष को देश की एकता के बजाय विपक्ष की एकता की पडी है। सत्तारूढ़ दल भी मणिपुर की जगह विपक्ष की एकता तोडने में लगा है। महाराष्ट्र में उसे आंशिक कामयाबी भी मिल गई है, लेकिन इससे देश का कोई फायदा नहीं है। देश को विपक्ष की एकता से ज्यादा मणिपुर में शांति की बहाली चाहिए।
जम्मू-कश्मीर में विखण्डन कर वहां धारा 370 हटाने में कामयाब हुई भाजपा सरकार मणिपुर में नाकाम साबित क्यों हो रही है? इस विषय पर राष्ट्रव्यापी बहस की जरूरत है। ये बहस जब भाजपा रोक रही है तो विपक्ष को इसकी शुरुआत करना चाहिए। कांग्रेस के राहुल गांधी ने अग्निदग्ध मणिपुर का दौरा कर इसकी शुरुआत की, किन्तु इसे आगे नहीं बढ़ाया। आज समान नागरिक संहिता के मुद्दे के जवाब में मणिपुर पर केन्द्र की चुप्पी सबसे बडा मुद्दा हो सकता है। किन्तु कांग्रेस और समूचे विपक्ष को मणिपुर की आग को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने में या तो कामयाबी नहीं मिली या फिर उसने इसकी कोशिश ही नहीं की।
मणिपुर के 60 साल के इतिहास में भाजपा को पहली बार शासन करने का मौका मिला और पहली बार में ही मणिपुर की डबल इंजिन की सरकार ने मणिपुर को आग में झौंक दिया। मणिपुर में सबसे ज्यादा नौ बार शासन करने वाली कांग्रेस से केन्द्र सरकार को मणिपुर की आग बुझाने में सहयोग लेने में शर्म आ रही है। कांग्रेस के राहुल गांधी की मणिपुर यात्रा को लेकर भी भाजपा ने संबित पात्रा और स्मृति ईरानी जैसे अपने विद्वान प्रवक्ताओं की सारी ऊर्जा खर्च करा दी, फिर भी कुछ हासिल नहीं हुआ। मणिपुर में नागरिक अधिकार एक तरह से अराजक हाथों में है। प्रतिद्वंदी जातीय समूह एक-दूसरे का खून बहाने में लगे हुए हैं, लेकिन केन्द्र और राज्य की भाजपा सरकार तमाशबीनों की तरह निरीह खडी नजर आ रही है।
महाराष्ट्र से मणिपुर तक सत्ता का भाजपाई लालच देश को बहुत मंहगा पड रहा है। इसकी कीमत हर भारतीय को अदा करना पड रही है। देश की जनता जागरुक है, सब देख रही है। लेकिन दुर्भाग्य ये है कि जनांदोलन सिरे से गायब है। केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी सही कहते हैं कि दुनिया झुक सकती है लेकिन कोई उसे झुकाने वाला तो हो! देश का विपक्ष पिछले नौ साल में भाजपा की सरकार और जिद्दी प्रधानमंत्री को झुकाने में उसी तरह नाकाम रहा है। जैसे केन्द्र सरकार मणिपुर के मामले में नाकाम साबित हो रही है।
देश के बाहर महाराष्ट्र की राजनितिक उठा-पटक से ज्यादा मणिपुर को लेकर उत्सुकता है। मणिपुर की आग के लिए केन्द्र सरकार न पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहरा पा रही है और न चीन को। चीन के बारे में तो सरकार एक शब्द भी नहीं बोल पाती। कांग्रेस को मणिपुर के लिए जिम्मेदार ठहराना आसान नहीं, क्योंकि जनादेश तो भाजपा के नाम है। ऐसे में मणिपुर की दुर्दशा का ठीकरा तो ले-देकर भाजपा के सर पर ही फूटेगा। मणिपुर में भाजपा की नाकामी का पता पूरे देश को होना चाहिए। विपक्ष ही ये काम कर सकता है, किन्तु कर नहीं पा रहा है। देश में आने वाले दिनों में होने वाले तमाम चुनाव मणिपुर के ही मुद्दे पर लड लिए जाएं तो देश के मूड का पता चल सकता है। समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर देश एक बार फिर भीतर ही भीतर विभाजित होगा, इसकी शुरुआत हो चुकी है। यूसीसी के समर्थन और विरोध में लोग खडे होने लगे हैं और आम चुनावों तक पूरा देश दो हिस्सों में बनता दिखाई देगा।
मैं तो कहता हूं कि केन्द्र सरकार खुशी से धारा 370 हटाने की तरह देश में समान नागरिक संहिता लागू करा दे। लेकिन पहले मणिपुर को बचा ले। मणिपुर को जम्मु-कश्मीर की तरह तीन हिस्सों में विभाजित नहीं किया जा सकता। यदि मणिपुर की आग न बुझी तो पूरब के दूसरे राज्य भी इस आग की चपेट में आ सकते हैं। यदि ऐसा हुआ तो महाराष्ट्र या राष्ट्र में परचम फहराने से क्या लाभ होने वाला है?