धैर्य हो तो टीएस सिंहदेव जैसा

– राकेश अचल


छत्तीसगढ़ के नवनियुक्त उप मुख्यमंत्री टीएस सिंहदेव ने धैर्य की कठिन परीक्षा उत्तीर्ण कर राजनीति में असंतुष्ट और उतावले नेताओं के लिए एक मिसाल कायम की है। आज की राजनीति में यदि टीएस सिंहदेव जैसे नेता हों तो राजनीतिक दलों के लिए काम करना बहुत आसान हो सकता है। टीएस सिंहदेव को मध्य प्रदेश के ज्योतिरादित्य सिंधिया या राजस्थान का सचिन पायलट बनाने की तमाम कोशिशें धरी की धरी रह गईं।
टीएस सिंहदेव यानि त्रिभुवनेश्वर शरण सिंहदेव छत्तीसगढ़ की तत्कालीन सरगुजा रियासत के अंतिम महाराज हैं। सिंहदेव वैसे महाराज नहीं हैं जैसे ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं। सिंहदेव को स्थानीय जनता प्यार से टीएस बाबा भी कहती है। महाराज तो वे हैं ही। 2008 में पहली बार विधायक बने सिंहदेव 2013 में दूसरी बार चुने गए और प्रतिपक्ष के नेता बने। अम्बिकापुर सीट से चुने जाने वाले टीएस सिंहदेव के पास 560 करोड की पैतृक संपत्ति है। वे अविवाहित हैं और उनकी महत्वाकांक्षाएं कभी किसी के आडे नहीं आईं। वे पिछले विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री बनाए जा सकते थे किन्तु कांग्रेस हाईकमान ने भूपेश बघेल को मुख्यमंत्री बनाया। सिंहदेव मुस्कराते रहे लेकिन वे कांग्रेस से बाहर नहीं गए। सिंहदेव ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह उतावले नहीं है। उनकी राज्य के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से अनेक मुद्दों पर असहमति रही किन्तु ये असहमति कभी अदावत में नहीं बदली। सिंहदेव ने हसदेव परियोजना का विरोध किया। बात हाईकमान तक गई और मुख्यमंत्री ने अपने सरगुजा महाराज की बात मानकर परियोजना को बंद कर दिया। सिंहदेव ने बीते पांच साल में एक बार भी सत्ता के लिए न सौदेबाजी की और न सचिन पायलट की तरह बगावत का झण्डा उठाया। उन्हें ज्योतिरादित्य सिंधिया बनाने की तमाम कोशिशें दूसरे राजनीतिक दलों की और से हुईं किन्तु किसी को भी कामयाबी नहीं मिली।
टीएस सिंहदेव को आखिर उनके धैर्य का मीठा फल मिला। वे विधानसभा चुनाव से ठीक पहले राज्य के उप मुख्यमंत्री बना दिए गए, हालांकि ये उनका लक्ष्य नहीं था। सिंहदेव राजनीति में अपनी विचारधारा की वजह से हैं। उन्हें अपनी संपत्ति बचाने के लिए राजनीति की आवश्यकता नहीं है। उनके सामने अपने उत्तराधिकारियों को राजनीति में स्थापित करने की समस्या भी नहीं है। वे सचिन पायलट की तरह उतावले भी नहीं है। उन्होंने एक बार भी ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जिससे उनकी अपनी पार्टी को कोई संकट झेलना पडा हो। वे कांग्रेस शासित राज्यों में असंतुष्टों के लिए एक आदर्श असंतुष्ट बनकर खडे रहे। सिंहदेव सामंत हैं, इसलिए उन्हें भी गुस्सा आता है। उन्होंने भी भूपेश बघेल के मंत्रिमण्डल में रहते हुए पंचायत मंत्री के रूप में अपनी असहमति जताने के लिए अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। उन्हें पटाने के लिए भाजपा नेताओं ने बहुत कोशिश की लेकिन कामयाबी नहीं मिली। महाराज कांग्रेस के ही बने रहे, वे अनमने राजनेता है, उन्हें चुनाव लडने में बहुत ज्यादा दिलचस्पी नहीं है। लडे तो लडे और नहीं लडे तो नहीं लडे, लेकिन कांग्रेस उन्हें अगला विधानसभा चुनाव अवश्य लडाएगी, क्योंकि उनके बिना कांग्रेस को चुनाव में मजा नहीं आएगा। 71 साल के टीएस सिंहदेव अगर चुनाव लडे और कांग्रेस सत्ता में बनी रही तो मुमकिन है कि वे राज्य के अगले मुख्यमंत्री भी बन जाएं।
राजनीति में जिस शालीनता की जरूरत है वो सिंहदेव के पास है। उन्होंने अपना राजनीतिक धर्म और बल्दियत बदलने की गलती नहीं की। जिन्होंने की, वे अब नए दल में पिस रहे हैं। कोई उन्हें नामर्द कह रहा है तो कोई विभीषण। सिंहदेव ने अपनी बंधी हुई मुट्ठी कभी खोली नहीं। नतीजा ये है कि वे पार्टी के लिए महत्पूर्ण बने रहे। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने ये गलती की। वे सत्ता में तो आ गए किन्तु जनता के दिल से उतर गए। सिंधिया की दुर्दशा देख राजस्थान के बागी कांग्रसी नेता सचिन पायलट ने अपने बढ़ते कदम रोक लिया। उनके बारे में कयास ही लगाए जाते रहे की वे भाजपा में जा रहे हैं या अपना नया दल बना रहे हैं। मुमकिन है कि सचिन पायलट को भी उनकी इस समझदारी के लिए आने वाले दिनों में पुरष्कृत किया जाए। देश में मोदी आंधी के बावजूद मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सत्ता में लौटी थी। मप्र में तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ की तुनकमिजाजी और ज्योतिरादित्य सिंधिया की बिकवाली ने कांग्रेस की सरकार को सत्ताच्युत कर दिया था, किन्तु राजस्थान और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों और बागी माने जाने वाले नेताओं ने समझदारी का परिचय देते हुए कांग्रेस की सरकारों को कायम रखा। उम्मीद की जाना चाहिए कि कांग्रेस हाईकमान विधानसभा चुनाव से पहले राजस्थान में अपने किले में आई दरारों को उसी तरह भर लेगा जैसे छत्तीसगढ़ में भरा है।
छत्तीसगढ़ में महाराज टीएस सिंहदेव को दिए गए महत्व को देखकर मुमकिन है कि आज ज्योतिरादित्य सिंधिया की बागी बिरादरी पछता रही हो। भाजपा में गए कांग्रेसियों में से सिंधिया को छोड किसी और को सत्ता में भागीदार नहीं बनाया गया। सभी कांग्रेसी भाजपाई हासिये पर खडे राम-राम जप रहे हैं। वे इधर के रहे और न उधर के। दलबदलुओं का अंतत: यही हश्र होता है। इस समय भी जो लोग दलबदल कर रहे हैं वे अंतोगत्वा घाटे में ही रहेंगे। मुमकिन है कि दलबदल के बाद उन्हें विधानसभा चुनाव का टिकिट मिल भी जाए किन्तु उन्हें सम्मान भी मिलेगा इसकी कोई गारंटी नहीं है। वैसे राजा, महाराजा हर राजनीतिक दल की पसंद रहे हैं।