अब किसे गद्दार कहेगी भाजपा?

प्रसंग : झांसी की रानी का बलिदान दिवस

– राकेश अचल


18 जून को ग्वालियर में झांसी की रानी की समाधि पर बलिदान मेला आयोजित किया जाएगा। लेकिन आयोजकों के लिए मुश्किल ये होगी कि वे रानी के साथ 1857 में कथित तौर पर हुई गद्दारी के लिए किसे कोसेगी? रानी की समाधि पर बलिदान मेले की कल्पना भाजपा के पूर्व सांसद और पूर्व मंत्री कुंवर जयभान सिंह पवैया की है। उन्होंने दो दशक पहले ये मेला शुरू किया था। मेले का सारा दारोमदार भाजपा शासित नगर निगम पर होता था। पहली बार नगर निगम में कांग्रेस की महापौर है, किन्तु उन्होंने भी इस मेले के लिए खर्च करने में कोई बाधा पैदा नहीं की, उदारता दिखाई।
इस बलिदान मेले का 2020 तक जयभान सिंह पवैया ने सिंधिया खानदान के खिलाफ खुलकर इस्तेमाल किया। इस मेले के मंच से हर साल प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ कथित गद्दारी के लिए पवैया और मंच पर आने वाले तमाम नामचीन्ह अतिथि सिंधिया खानदान को कोसते थे। यानि ये मेला शहीद मेला न होकर सिंधिया विरोधी मंच था। इस मंच पर आज तक सिंधिया खानदान का कोई प्रतिनिधि नहीं आया। आता कैसे, क्योंकि कोई बुलाता ही नहीं था। ये सब तब होता रहा जबकि सिंधिया परिवार की सदस्य श्रीमती यशोधरा राजे सिंधिया प्रदेश में मंत्री रहीं। यशोधरा की मामी श्रीमती माया सिंह भी मंत्री रहीं, किन्तु पवैया को कोई रोक नहीं सका।
बीते तीन साल में परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका है। सिंधिया खानदान के चश्मों-चिराग ज्योतिरादित्य सिंधिया अब भाजपा का अभिन्न हिस्सा है। केन्द्र में मंत्री हैं और रानी लक्ष्मीबाई की समाधि पर माथा टेकने वाले सिंधिया घराने के पहले दुस्साहसी व्यक्ति भी हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने रानी लक्ष्मीबाई की समाधि पर माथा टेक सिंधिया खानदान को गद्दार कहने वाले भाजपा के तमाम नेताओं का (जिनमें पवैया के अलावा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी शामिल हैं) का मुंह बंद कर दिया। अब सिंधिया खानदान के प्रबल विरोधी पूर्व सांसद और बलिदान मेले के आयोजक जयभान सिंह पवैया भी सिंधिया के बगलगीर हो चुके हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया हाल ही में पवैया के भतीजे की शादी में भी हाजरी लगा चुके हैं।
मजे की बात ये है कि रानी लक्ष्मी बाई के साथ ‘गद्दारी’ का जो हथियार कल तक भाजपा के काम आता था, अब उसे कांग्रेस ने हथिया लिया है। अब कांग्रेस सिंधिया परिवार को गद्दार कह उठी है। रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान दिवस के मौके पर 1857 की गद्दारी बार-बार सिर उठाती है। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह से लेकर कमलनाथ तक इतिहास के इस पन्ने को खोल और बांच चुके हैं और जहां मौका मिलता है वे इसका इस्तेमाल करते हैं। 2020 में मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिराने में अहम भूमिका निभाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में शामिल होने से कांग्रेस के लिए गद्दारी के जुमले का इस्तेमाल करना और आसान हो गया है।
आपको याद होगा कि कोई 166 साल पहले की इस घटना को लोग भूल जाते, लेकिन श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान की अमर कविता ‘खूब लड़ी मर्दानी, वो तो झांसी वाली रानी थी’ ने इसे फिर से जन-जन की जुबान पर चढ़ा दिया। आजादी के बाद सिंधिया परिवार के राजनीति में सक्रिय होने के बाद से आज तक ये कविता और इसमें लिखी एक पंक्ति ‘अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी’ सिंधिया परिवार का पीछा कर रही है। कांग्रेस में लगातार तीन दशक तक रहे स्व. माधवराव सिंधिया, उनसे पहले उनकी माता राजमाता विजयाराजे सिंधिया और दो दशक तक कांग्रेस में मंत्री-संत्री रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया भी साहित्य से इस संदर्भ को विलोपित नहीं करा सके। भाजपा भी तीन साल से सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता के साथ कोई छेड़छाड़ करने की हिम्मत नहीं जुटा सकी। इस विषय पर मशहूर उपन्यासकार वृन्दावन लाल वर्मा से लेकर इन पंक्तियों के लेखक तक ने उपन्यास लिखे हैं।
उल्लेखनीय है कि तत्कालीन अंगेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत करने वाली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई झांसी से लड़ते हुए ग्वालियर तक पहुंची थी। जब वे ग्वालियर पहुंची तो सिंधिया ने अपनी राजधानी छोड़ दी थी। ग्वालियर पर तीन दिन तक रानी लक्ष्मीबाई का राज रहा था, लेकिन 18 जून 1858 की सुबह ग्वालियर में अंग्रेजों के साथ हुए युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई शहीद हो गई थीं। इतिहासकार मानते हैं कि यदि ग्वालियर ने रानी लक्ष्मीबाई का साथ दिया होता तो उस युद्ध का नतीजा कुछ और ही होता। इस विषय पर फिल्में और धारावाहिक भी बन चुके हैं। किसी ने भी ग्वालियर के इस प्रसंग को छिपाया नहीं। हालांकि अतीत में सिंधिया परिवार की ओर से भी इस विषय पर कभी कोई सफाई दी नहीं गई।
बलिदान मेला अब अपनी पहचान बना चुका है। इसमें रानी पर केन्द्रित नाटिका, सम्मान और कवि सम्मेलन भी होता है, रानी के अस्त्र-शस्त्रों की प्रदर्शनी भी लगाई जाती है। रानी के शहर झांसी से एक मशाल यात्रा भी ग्वालियर तक आती है। लेकिन इसके मूल में पहले भाजपा की ही राजनितिक मंशा थी, जो अब असरहीन हो चली है। अच्छी बात ये है कि ये मेला राजनीतिक होकर भी लगातार आयोजित किया जा रहा है। अन्यथा शहीदों की चिताओं पर अब मेले कौन लगाता है?