– राकेश अचल
राम की गंगा मैली है, मैली थी नहीं, हो गई है। पापियों के पापों को धोने से भी और बेशर्मी से अपशिष्ट बहाने से भी। अब इसी गंगा में सरकार को जगाने के लिए देश के खिलाड़ी अपने मैडल बहाना चाहते थे, लेकिन भला हो नरेश टिकैत का कि उसने खिलाडिय़ों को ऐसा न करने के लिए मना लिया। खिलाड़ी समझदार हैं, संवेदनशील हैं, इसलिए मान गए। यदि वे भी हमारी सरकार की तरह संज्ञाहीन और असंवेदनशील होते तो शायद नहीं मानते।
देश के शारीरिक सौष्ठव के खिलाड़ी सत्तारूढ़ दल के एक सांसद के खिलाफ कार्रवाई को लेकर एक लम्बे समय से जंतर-मंतर पर गांधीवादी तरीके से अपनी मांगों को लेकर धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। किन्तु सरकार को खिलाडिय़ों का ये गांधीवादी तरीका प्रभावित नहीं कर पाया। गांधी और गांधीवादी दृष्टिकोण से सरकार और सरकार में बैठे लोग शायद कभी प्रभावित होते भी नहीं हैं। वे तो लाठीवादी लोग है। माफीवीर सावरकरवादी लोग हैं। विरोध के लिए यदि कोई लाठीवादी या सावरकरवादी तरीका आजमाया जाता तो मुमकिन है कि खिलाडिय़ों की मांगें मान ली जातीं।
खिलाड़ी सरकार से आसमान के तारे नहीं मांग रहे। वे एक कदाचारी सांसद की गिरफ्तारी की मांग कर रहे हैं। सरकार के लिए सांसद को गिरफ्तार करना अपनी प्रतिष्ठा के खिलाफ लगता है। हमारी सरकार अपनी प्रतिष्ठा का बहुत ख्याल रखती है, इतना ख्याल रखती है कि देश के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति की प्रतिष्ठा को भी मिट्टी में मिला देती है। खिलाड़ी शायद इस सच्चाई से वाकिफ नहीं हैं। नए संसद भवन के उदघाटन समारोह में देश के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को टके सेर न बूझने वाली सरकार खिलाडिय़ों को क्यों पूछने लगी?
सरकार सबको साथ लेकर सबका विकास करने वाली सरकार है। सब में खिलाड़ी शायद शामिल ही नहीं है। सब में सांसद शामिल हैं। उनकी प्रतिष्ठा के लिए सरकार कुछ भी कर सकती है, सिवाय गिरफ्तारी को छोडक़र। सरकार ने सांसद के खिलाफ पास्को कानून के तहत मामला दर्ज कर लिया, यही क्या कम है? ये मामला आपके या मेरे खिलाफ दर्ज किया गया होता तो दिल्ली की शाही पुलिस हमें या आपको कभी भी दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येन्द्र जैन का पड़ौसी बना देती। सरकार अपने सांसदों को छोडक़र किसी को भी गिरफ्तार कर सकती है, फिर चाहे वो दिल्ली के उप मुख्यमंत्री रहे मनीष सिसौदिया हों या और कोई। लेकिन सांसद बृजभूषण नारायण सिंह गिरफ्तार नहीं किए जा सकते। मुमकिन है कि उनकी गिरफ्तारी से कयामत आ जाए।
सरकार की हठधर्मी से निराश याची खिलाड़ी देश के लिए दुनिया बाहर में हुई प्रतियोगिताओं में जीते पदक गंगा नदी में प्रवाहित करना चाहते थे। मैं इसके खिलाफ हूं। गंगा पाप धोने और लाशें बहाने के लिए है। पदक बहाने के लिए नहीं। ये पदक किसी बेशर्म सरकार ने नहीं दिए। इन्हें जीता गया है। अपना कस-बल लगाकर इन्हें बहाने की नहीं बल्कि दिखाने की जरूरत है। गंगा में यदि कुछ बहाकर विरोध प्रदर्शन करना ही है तो गूंगी-बाहरी और अंधी सरकार को बहाओ। जन प्रतिनिधियों को प्रवाहित करो। शायद गंगा इन्हें अंगीकार कर ले। मुझे लगता है कि जो लोग चुल्लू भर पानी में डूब कर नहीं मरते, उन्हें हमारी गंगा मां भी शायद ही समाप्त कर सके।
भारत विश्वगुरू है, हमारे प्रधानमंत्री जी विश्वात्मा हैं। लेकिन उनके रहते इस देश में विरोध प्रदर्शन के लिए कोई जगह नहीं है। वे विरोध प्रदर्शन करने वालों को छकाते है। उनसे शहादत मांगते हैं। देश के किसानों ने बलिदान दिया। सैकड़ों की जान गई। सालभर से ज्यादा का वक्त लगा, तब कहीं जाकर सरकार ने किसान कानून वापस लिया। लेकिन जो वचन दिए थे वे आज तक नहीं पूरे किए। खिलाडिय़ों के साथ भी ऐसा ही बर्ताव किया जा रहा है। अभी विरोध प्रदर्शन करने वाले खलाड़ी छके नहीं है। पस्त नहीं हुए हैं, वे लड़ रहे हैं, गांधीवादी तरीके से लड़ रहे हैं। उन्हें लड़ते रहना पड़ेगा। मैं तो कहता हूं कि वे अपनी लड़ाई के लिए चुनाव भी लड़े। जीतें या हारें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क पड़ता है न लडऩे से। जो लड़ेगा, वो एक दिन जीतेगा भी। खिलाड़ी भी जीतेंगे। सरकार हारेगी। सांसद बृजभूषण को गिरफ्तार होना पड़ेगा। जेल जाना पड़ेगा। खिलाडिय़ों को पीटने से कुछ होने वाला नहीं है।
खिलाडिय़ों की लड़ाई में केवल खांप पंचायतों के शामिल होने से काम नहीं चलने वाला। खिलाड़ी केवल खांप की धरोहर नहीं है। वे देश के खिलाड़ी हैं। पूरे देश को उनके साथ खड़े होकर लड़ाई को तेज करना होगा। जो देश केवल अपने नेताओं के पीछे खड़ा होता है वो देश पिछड़ जाता है। देश को नेताओं के अलावा अपने खिलाडिय़ों, कलाकारों, साहित्यकारों के साथ भी खड़े होने की आदत डालना चाहिए, क्योंकि देश सिर्फ नेताओं से नहीं पहचाना जाता। देश की पहचान संकीर्ण नेताओं के नेतृत्व से नहीं बनती। ये देश आज भी गांधी और नेहरू की वजह से दुनिया में पहचाना जाता है न कि नौ साल से देश का नेतृत्व कर रहे नरेन्द्र मोदी की वजह से। खिलाड़ी निराश न हो, एक न एक दिन देश के प्रथम नागरिक से लेकर दूसरे नागरिकों की आत्मा जागेगी। वो सरकार से खिलाडिय़ों की मांगों के बारे में हस्तक्षेप करने को कहेगी। आखिर महामहिम कोई रबर या लकड़ी से बने नहीं हैं। उनके भीतर भी वे सभी पंचतत्व हैं, जिनसे एक भला इंसान बनता है। वे बोलेंगे, अवश्य बोलेंगे। उनकी बात को सुनना पड़ेगी सरकार को। अमृतकाल में विश ज्यादा दिन जीवित नहीं रह सकता।