अनिल अग्निहोत्री
मो.: 98262-32559
आज हम बहुत ही सामान्य से विषय पर चर्चा कर रहे हैं जो कभी हमारे लोक-जीवन का अंग रहा है। संपन्न परिवार का स्टेटस सिंबल। आदिकाल से पान किसी अभ्यागत के स्वागत की परंपरा का सूचक रहा है। पान कई प्रकार के होते हैं-सादा, मिठुआ, बनारसी और मघई। विशेषकर उत्तर प्रदेश के प्रयागराज, बनारस, लखनऊ, आगरा, मथुरा में पान के कद्रदान आज भी मौजूद हैं। हमारे भोपाल, इंदौर में भी काफी शौकीन लोग हैं।
एक समय में हमारे ग्वालियर के सराफे में श्री जैन साहब के यहां बडा सुंदर बनारसी पान मिलता था। बाद में पान के कद्रदानों की कमी हुई तो उन्हें पान की दुकान बंद कर स्टील के बर्तनों की दुकान खोलनी पडी। तब के पांच-सात लाख आबादी वाला शहर ग्वालियर एक बनारसी पान की दुकान को जीवित नहीं रख सका था। हां-उस समय नई सडक जरूर पान के शौकीनों के केन्द्र के रूप में आबाद हो चुका था। डिलाइट सिनेमा के सामने तब परदेशी पान भण्डार के संचालक केशव भाई दो, तीन, पांच और दस रुपए का श्रेष्ठ पान लगाते थे। हर पान की अपनी विशेषता थी।
उसी समय ग्वालियर के साहित्य जगत में एक घटना घटी। लोकप्रिय साहित्यकार और प्राध्यापक डॉ. कोमल सिंह सोलंकी (काकाजी) का एक उपन्यास ‘एक और पानीपत’ राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होकर आया। इस उपन्यास ने प्रकाशन सहित बुद्धिजीवियों के हल्के में एक अच्छी सी हलचल पैदा कर दी थी। उस उपन्यास के घटनाक्रम में ग्वालियर का उल्लेख तो था ही किसी प्रसंग विशेष में नई सडक और परदेशी पान भण्डार का उल्लेख किया गया। बस फिर क्या था- रातोंरात केशव भाई चर्चा के केन्द्र में आए और दुकान को भी बहुत प्रसिद्धि मिली।
नई सडक पर वाजपेयी पान भण्डार (यादव टाकीज के सामने), परदेशी पान भण्डार के बाद थोडा और आगे बढने पर पाटनकर बाजार के तिराहे पर पान भण्डार सहित इंदरगंज में सेंट्रल इंडिया के बडे बाल वाले पंडित जी सहित मराठा बोर्डिंग के सामने गेंदालाल जी अपने पान से शहर की रक्तिम आभा बढा रहे थे। वहीं नए बाजार में डब्बू भाई का पान भी इनकी स्पर्धा में अपने ताल ठोक रहा था। हां, कुछ कर्मचारी जरूर उन दिनों पंद्रह पैसे का पान गश्त के ताजिये पर खाकर अपने कार्यालय को निकल जाते थे। बाडे पर तब राठौर पान भण्डार ही था। अब गेंदालाल को छोडकर पान की न तो कोई सलीके की दुकान है और न ही पान की गिलौरी को दबाने वाले पान के कद्रदान! ‘अब न रहे वे पीने वाले अब न रही वो मधुशाला’ इस तरह मंहगाई और आधुनिकता की आड में पुडियों के आगमन ने पान के व्यवसाय की वाट लगा दी। अस्तु।
पान के शौकीनों के यहां पानदान रखे जाने का चलन पूर्व से ही रहा है। नवाबों और रियासतों के छोटे-मोटे जागीरदारों के यहां पानदान की उपस्थिति श्रेष्ठि वर्ग का सूचक होती थी। हमारे मुस्लिम बंधुओं के यहां आज भी पान और पानदान मिल जाएंगे। पानदान के स्थानापन्न कुछ कालांतर में बटुआ चलन में आया, जिसमें सुपारी (छालिया), चूने की डिब्बी, तमाखू, लोंग सहित सरोता किसी पंचद्रव्य की तरह शोभायमान होने लगे। उस समय सरोते से सुपारी काटना बहुत कौशल का काम माना जाता था। बाद में रत्ना-303और जाफरानी भी तमाखू के संशोधित और परिवर्धित संस्करण के रूप में आए, पर वे लोकमानस में अधिक समय तक मान्यता प्राप्त नहीं कर सके।
मैंने जब से होश सम्हाला तब से अपने घर में पान, पानदान, बटुआ और सरोता सभी को देखा। या यूं कहें कि इन्हें देखकर ही बडा हुआ। बटुआ मार्गस्थ प्रयुक्त होता था जबकि पानदान स्थायी स्तंभ की तरह घर पर ही रहता था। हमारे पिताश्री के अभिन्न मित्र थे स्व. पं. नाथूराम जी गोस्वामी। प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य। पिताजी तत्समय उनके ही गृह ग्राम देवरीकलां (लहार) में पदस्थ थे। ये सब साठ के दशक की बातें हैं। वे बाद में शासकीय आयुर्वेद महाविद्यालय के प्राचार्य भी रहे। शास्त्री जी जब भी अपने गांव आते वे नियमित रूप से प्रतिदिन सांयकाल हमारे घर आते। दो तीन घण्टे चर्चा होती। चाय पीते और तमाखू सहित पान खाकर अपने घर जाते। ग्वालियर वापिस जाने के पूर्व हमारे पूरे घर का निमंत्रण भी करते। उनका यह क्रम वर्षों तक चला और तब तक जब तक कि वे रायपुर स्थानांतरित नहीं हो गए। हमारे पानदान में लोहे के सरोते को देखकर एक दिन उन्होंने कहा-कि पंडित जी!! मुझे पुनश्चर्या पाठ्यक्रम में जामनगर जाना है। सुना है कि वहां के सरोते बहुत प्रसिद्ध हैं। मैं आपके लिए वहां के सरोते अवश्य लाऊंगा। जब वे अगली बार घर आए तो हमारे घर में चमचमाते हुए स्टील के दो सरोते थे। एक पानदान के लिए और छोटी सरोती बटुए के लिए।
पिताजी बताते थे कि राजा साहब लहार भी तमाखू के बहुत शौकीन थे। जब रियासतें खत्म हुईं और राजसी वैभवों पर विराम लगा तब दशहरे आदि के अवसर पर उनकी दरबार शाला में रियाया मिलने जाती थी तो वे बटुए को सरका देते थे, जिसमें से आप अपनी सुविधानुसार पंचद्रव्य में से कोई भी चीज ले लें। स्वागत-सत्कार का तत्समय यही एक नायाब तरीका था। बाद में बटुआ हमारे घर से तिरोहित हुआ तो एक चांदी की डिब्बी आई। उसमें एक ओर तमाखू और दूसरी ओर चूना था। जब वह खो गई तो स्थानापन्न रूप में स्टील की चुनैटी आगई-पर पानदान यथावत रहा।
हमारे पिताजी सूखे कत्थे का पान बहुत सुंदर लगाते थे। उनके पास आए आगंतुक बिना पान खाये नहीं जाते थे। पिपरमेंट और कत्थे के अनुपात का गजब का संतुलन था। यदि आपने उनका पान लगा हुआ खा लिया तो दो तीन दिन में आपकी खांसी चली जाती थी। कई बार अंदर से चाय और स्वल्पाहार आने के पहले ही उनका पान तैयार हो जाता था। उमाशंकर कुलश्रेष्ठ इसके साक्षी हैं। पिताजी के मित्र स्व. लक्ष्मीनारायण जी कुलश्रेष्ठ (सेवानिवृत्त उप जिलाधीश) उनके मित्र भी थे और आत्मीय भी। पडौस में रहते थे। उनका रोज सायं 5 से 7 आने का क्रम था। उनका सुपारी काटने का अभ्यास बहुत अच्छा था। वे बहुत बारीक और रेशेवाली सुपारी पूरे दिन के लिए काट कर रख देते थे। वे रोज नियम से एक पान खाते और एक बांधकर ले जाते जिसे वे रात्रि में भोजनोपरांत खाते थे। ये क्रम पिताजी के जीवित रहते तक चला। सरोते से सुपारी काटना भी एक कला है। इसमें बलाघात, पैनी दृष्टि और कौशल तीनों का समन्वय रखना पडता है।
रीतिकाल में ताम्बूल और नायिका के रक्तिम ओष्ठ के कई प्रसंग मिलते हैं जिस पर कवियों ने खूब लिखा। कालांतर में पान के ऊपर भी कई फिल्मों में गीत आए। ‘पान खायें सैयां हमारे’ से लेकर ‘खाइके पान बनारस वाला’ तक मुख की रक्तिम आभा के पर्याय बने पान के ऊपर जब गानों ने वाहवाही लूटी तो भला हमारा ये ‘सरोता’ कहां पीछे रहने वाला था। सरोते पर भी हमारे लोक साहित्य में एक गीत बहुत प्रचलन में आया- ‘सरोता कहां भूल आये प्यारे ननदोईया’। इतने मधुर और लोकप्रिय गीत से सरोते की महत्ता तो बढी ही लोक में प्रचलित नंदोई के रिश्ते को भी एक सर्वमान्य अधिमान्यता मिली।