चांद मियां से चांद तक का सफर

– राकेश अचल


रोजाना लिखकर दिहाडी कमाने वाले हम जैसे लोग आज-कल चकर घिन्नी बने हुए हैं। लिखने के लिए इतने मुद्दे और विषय कुकुरमुत्तों की तरह उग आते हैं। तय कर पाना कठिन हो जाता है कि कौन से मुद्दे पर लिखा जाए और कौन से छोड दिया जाए? आज भी समाने चांद मियां हैं, गांधी बब्बा हैं, सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या है और नितिन गडकरी की विष कन्या है।
बात चांद मियां से शुरू करते हैं, ये चांद मियां अपने चिर-परिचित सांई बाबा हैं। काशी के ब्राह्मणों ने अपने शहर के मन्दिरों से चांद मियां की 14 प्रतिमाएं ऐसे हटा दीं जैसे वे कोई आतंकवादी हों। सांई बाबा का नाम चांद मियां हो या अब्दुल इससे कोई फर्क नहीं पडता। फर्क इस बात से पड रहा है कि समाज में नफरत मनुष्यों से होती हुई अब बुतों पर आ गई है। सांई बाबा उर्फ चांद मियां के खिलाफ नफरत का श्रीगणेश दिवंगत शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने किया था। काशी के ब्राह्मणों की करतूत देखकर स्वामीजी की आत्मा गदगद हो रही होगी। स्वाभाविक है ऐसा होना।
हमारे देश में किसी चांद मियां को पूजने की गुंजाईश नहीं है। काशी के पंडितों के बूते से बाहर है, अन्यथा वे चांद मियां के बूतों के साथ ही अजमेर जाकर ख्वाजा साहब की मजार भी उखाड फेंकते, क्योंकि वे भी मियां हैं। काशी के ब्राह्मण दरअसल सांई बाबा की पूजा को प्रेत पूजा मानकर इसको सनातन विरोधी बता रहे हैं, जैसे सनातनी प्रेत, भूत, मशान की पूजा करते ही नहीं हैं। वे पूरे पितृपक्ष में क्या करते हैं वे खुद नहीं जानते। दरअसल काशी के ब्राह्मण न चांद का अर्थ जानते हैं और न मियां का। उनके लिए तो ये दोनों म्लेच्छ हैं, विजातीय हैं, विधर्मी हैं, उन्हें मन्दिरों में पूजने की तो छोडिए इस मुल्क में भी रहने की इजाजत नहीं दी जाना चाहिए।
कोई चार दशक पहले मैंने भी सांई बाबा के मन्दिर जाकर शायद पाप किया था। मुझे उस समय किसी ब्राह्मण या शंकराचार्य ने बताया ही नहीं कि सांई बाबा चांद मियां हैं इसलिए उनके दर्शन करने से पाप लगता है। शिर्डी के सांई मन्दिर में जाने वालों को ये काशी वाले कैसे रोकेंगे मुझे पता नहीं। क्योंकि वहां आज भी हर दिन हजारों लोग जाते हैं। काशी वालों के संसद आज-कल देश के प्रधानमंत्री भी हैं, उन्हें चाहिए कि वे देश में जहां-जहां चांद मियां के मन्दिर हैं उनके ऊपर बुलडोजर चलवा दें। शिर्डी में तो ये काम और आसान है, क्योंकि वहां उनकी अपनी डबल इंजिन की सरकार है। इसके लिए संसद में कोई विधेयक लाने या अध्यादेश जारी करने की भी जरूरत नहीं है।
इस देश की खासियत ये है कि यहां के ब्राह्मणों को अपना मूल काम करने की तो फुर्सत नहीं है और ऊल-जलूल काम करने कि लिए वे हमेशा तैयार रहते हैं। मैं अभी तक ब्राह्मणों को विद्वत परिषद का सम्माननीय सदस्य मानता था, लेकिन मुझे अब लगता है कि काशी के ब्राह्मण मण्डन मिश्र की परम्परा के ब्राह्मण नहीं हैं, वे कूप मंडूक हैं। उन्हें भी सियासत करना आ गया है। वे भी सरकार की हिन्दू राष्ट्र की कल्पना में डुबकियां लगा रहे हैं। जन्मना मैं भी एक ब्राह्मण हूं, लेकिन मुझे ईश्वर की कृपा से न ऐसे सपने आते हैं और न मुझे किसी की पूजा-रचा से कोई आपत्ति है। जिसे जो पसंद है वो उसे पूजे। मन्दिर बनाए, मस्जिद बनाए, गुरुद्वारे बनाए, गिरजाघर बनाए। चाहे तो अपने नेताओं की प्रतिमाएं बनाकर उन्हें चांद मियां के स्थान पर लगवा कर प्राण-प्रतिष्ठित कर दे।
मुझे लगता है कि काशी में जो हुआ है उससे एक बात तो प्रमाणित हो गई है कि नितिन गडकरी की विष कन्या अपना काम करने में कामयाबी के बहुत नजदीक है। विष कन्या अर्थात सत्ता ने समाज में इतना जहर घोल दिया है कि वो अब आदमियों के साथ-साथ बुतों से भी अदावत मानने लगा है। मेरा आज भी मानना है कि काशी के ब्राह्मण हों या उनके स्मार्टक हिन्दू धर्म में आई संकीर्णता की वजह से धर्म की दरकती ईंटों को देखकर आतंकित हैं, उन्हें अपनी रोजी-रोटी पर खतरा मंडराता दिखाई दे रहा है। ये खतरा है या नहीं अलग बात है, लेकिन उन्हें ये खतरा महसूस कराया जा रहा है फर्जी आंकडे दिखाकर।
काशी के ब्राह्मण नहीं जानते के चांद मियां की बिरादरी में बुत परस्ती की मुमानियत है। उनके यहां पांच वक्त की आरती नहीं नमाज होती है, ये तो हम हिन्दुओं में ही मुमकिन है। चांद मियां के मन्दिर और बुत किसी मुसलमान ने नहीं बनवाए, हिन्दुओं ने बनवाए हैं। वहां पांच वक्त की आरती चांद मियां की बिरादरी वालों ने शुरू नहीं की बल्कि हिन्दुओं ने शुरू की है। ऐसे लोगों को देशद्रोही, धर्म विरोधी करार देकर देश के बाहर कर देना चाहिए।
दरअसल ये मंगल पर जाने का नहीं, अपितु गाय और गोबर की ओर लौटने का युग है। यहां गाय को राजमाता बनाने की होड चल रही है और इसके पीछे वे ही पावन हाथ हैं जो गौमांस का निर्यात करते हैं। लेकिन काशी के पंडितों का जोर इनके ऊपर नहीं चलता। काशी वाले चांद मियां की प्रतिमाएं तो हटा और हटवा सकते हैं, लेकिन गौमांस का भक्षण करने वाले किसी केन्द्रीय मंत्री को मंत्रिमण्डल से नहीं निकलवा सकते। आज जब मैं ये सब लिख रहा हूं तब मुझे महात्मा गांधी की याद आती है। आज उनका जन्मदिन है। अच्छा हुआ कि वे आज नहीं हैं, अन्यथा काशी वालों की करतूत उन्हें भी बहुत परेशान करती। वे परेशान होकर आज भी ‘सबको सन्मति दे भगवान’ का भजन गाते दिखाई देते। चांद मियां के बुतों के दुश्मनों के लिए तो बाबा गांधी के बुत भी कांटे की तरह चुभते हैं। लेकिन सियासी मजबूरी है कि उन्हें देश में भी और विदेश में भी गांधी के बुतों के आगे बुत बनकर अपना शीश झुकाना पडता है। काशी ब्रांड पंडितों का जोर नहीं है अन्यथा वे गांधी के बुतों की जगह क्रांतिवीरों के बुत स्थापित कर चुके होते।
बहरहाल आज पितृमोक्ष अमवस्या है। आज अपने पूर्वजों के तर्पण का आखरी दिन है। काशी के पंडित अपने पूर्वजों को कैसे विदा करते हैं ये आप सभी ने देख लिया है। काशी के पंडितों को पहले मियां शब्द के अर्थ को जान लेना चाहिए। चांद मियां के साथ जो मियां शब्द बाबस्ता है वो फारसी का शब्द है। संस्कृत में भी होता तो भी उसका अर्थ स्त्री का पति, स्वामी, मालिक सादात ही होता। मियां का अर्थ अल्लाह, मुर्शिद, पीर, संगीतज्ञ, मिरासी, मूर्ख, दीवाना, बावला, मीरान अर्थात सरदार, आका, मालिक, हाकिम, सरदार, बुजुर्ग, वाली वारिस, उस्ताद, पढाने वाला, मुल्ला ही होता। वैसे पहाडी राजपूत, राजाओं के खानदानी लोग, ठाकुर, शहजादे, शाही खानदान के लोग भी एक-दूसरे के लिए जाने-अनजाने मियां शब्द का इस्तेमाल करते रहे हैं। हम तो उन शायरों को जानते हैं जिनके नाम के आगे मियां ऐसे जुडा होता है जैसे किसी शहजादे की टोपी में सुर्खाब का पर। मियां नासिख, मियां मुसहफी, मियां जुराअत, मियां इशक का नाम तो आपने भी सुना ही होगा। हमारे शिवदयाल अष्ठाना तो हमें हमेशा मियां ही कह कर पुकारते थे। वे लखनऊ के थे। वे भी आज हंस रहे होंगे कहीं स्वर्ग में ये सब देखकर।