– राकेश अचल
फेंफडों की बीमारी ने आखिर देवेन्द्र तोमर को पराजित कर ही दिया। कुल 62 साल के देवेन्द्र का असमय जाना दुखद है, क्योंकि उनके निधन से ग्वालियर में एक संभावनाशील जनप्रतिनिधि का अभाव हो गया है। वे प्रदेश के ऊर्जा मंत्री प्रद्युम्न सिंह के अग्रज थे। उन्होंने इसके बावजूद अपनी स्वतंत्र पहचान कायम रखी और प्रद्युम्न के लिए हमेशा संकट मोचक का रोल अदा किया।
देवेन्द्र ने जिस दिन से राजनीति की पहली सीढियों पर पैर रखा था, वे उसी दिन से मेरे संपर्क में थे। सिविल इंजीनियर बनने के बजाय वे पार्षद बने। वे विधायक भी बन सकते थे और मंत्री भी, लेकिन शायद ये दोनों पद उनके लिए बने ही न थे। उन्होंने इन पदों के लिए अपने अनुज प्रद्युम्न सिंहको ही आगे बढाया। और कोई होता तो अपने भाई से पतिस्पद्र्धा करता, लेकिन देवेन्द्र ने कभी इस तरह की चेष्टा नहीं की। वे सदैव अपने अनुज के गाइड बने रहे और इसी में उन्होंने अपना सुख खोज लिया था।
नगर निगम परिषद में मैं 1983 से आता-जाता रहा हूं। मैंने तब से अब तक बहुतेरे पार्षदों को आते-जाते देखा। देवेन्द्र पार्षदों की भीड में सबसे अलग थे। वे खूब पढ-लिखकर परिषद में आते थे, जोरदार और तार्किक बहस करते थे, लेकिन पूरे जीवन वे कभी अमर्यादित नहीं हुए। उन्होंने पार्षद के रूप में जनसेवक की अपनी भूमिका को पूरी जिम्मेदारी से निभाया। उनकी अपनी महत्वाकांक्षाएं रही होंगी, लेकिन उन्होंने उन्हें हमेशा नियंत्रित करके रखा। देवेन्द्र ने सुर्खियों में आने के लिए कभी कोई स्तरहीन कार्य नहीं किया। वे सौम्य, संकोची और विनम्र जन नेता थे। उनके व्यक्तित्व की छाप उनके अनुज ऊर्जा मंत्री प्रद्युम्न सिंह पर भी खूब पडी।
देवेन्द्र में प्रतिभा की कोई कमी नहीं थी, लेकिन उन्हें जो अवसर मिलना चाहिए थे वे नहीं मिले। अवसर उनके बजाय उनके अनुज के हिस्से में चले गए और इसका गिला उन्होंने कभी नहीं किया। वे विचारों से समाजवादी कांग्रेसी थे। श्रमिकों के हितैषी थे और हमेशा तामझाम से दूर रहे। अपने अनुज के मंत्री और विधायक बनने के बाद भी उनके जीवन में कोई खास परिवर्तन देखने को नहीं मिला। उनकी सहजता की पूंजी उनकी अपनी थी। उनकी अपनी मित्र मण्डली थी। राजनीति को उन्होंने मित्रों के बीच कभी आने नहीं दिया। जिसकी जितनी मदद कर सके, करते रहे। उन्हें अपने अनुज का मैनेजर भी कहा जाने लगा था किन्तु वे कभी इस आरोप को लेकर विचलित नहीं हुए।
पिछले लम्बे आरसे से वे फुफ्फुस तंत्र की बीमारी के शिकार थे। उनके उपचार में कोई कमी कभी नहीं आई, लेकिन वे बीमारी के आगे हारे नहीं, झुके नहीं। अपना काम भी करते रहे और इलाज भी लेते रहे, लेकिन उनके हिस्से में जितनी सांसें लिखी थीं वे बढाई-घटाई नहीं जा सकीं। अंतिम दिनों में जब उनके फेंफडों के प्रत्यारोपण का निर्णय लिया गया, तब तक शायद बहुत देर हो चुकी थी। देवेन्द्र को बीच रास्ते से ही अपना रास्ता बदलना पडा। उन्होंने अंतिम सांस भोपाल के एक अस्पताल में ली। वे जिस सौम्यता के साथ सार्वजनिक मंच पर प्रकट हुए थे उसी सौम्यता के साथ चिर निद्रा में लीन भी हो गए, देवेन्द्र का नाम स्थानीय निकाय के इतिहास में एक प्रखर ज सेवक के रूप में हमेशा दर्ज रहेगा। अपने अनुजवत देवेन्द्र के प्रति मेरी विनम्र श्रृद्धांजलि।