देश को आज भी मुंशी प्रेमचंद की दरकार

– राकेश अचल


मुंशी प्रेमचांद को 19वीं सदी के अंत में नहीं बल्कि आज पैदा होना चाहिए था। जब वे पैदा हुए तब तो देश जैसा था, वैसा था, किन्तु आज का भारत कल के भारत से भी ज्यादा बदहाल है। मुंशीजी ने जिस भारत को जिया और अपने उपन्यासों तथा कहानियों के जरिये दुनिया के सामने रखा उस भारत में और आज के भारत में कोई फर्क नहीं है। मुंशीजी के जमाने में फिरंगी हमसे हमारी जात पूछते थे और आज आजाद भारत में देश की 18वीं संसद में सत्तारूढ दल के नेता प्रतिपक्ष के नेता से उसकी जात पूछ रहे हैं।
मुझे लगता है कि यदि अनुराग ठाकुर और उनकी जात वालों ने गलती से भी मुंशी प्रेमचंद को पढ लिया होता तो वे देश की संसद में इतना घटिया सवाल नहीं करते। हमारे यहां अकेले मुंशीजी ही नहीं हैं और भी लोग हैं न जो मनुवादी समाज के खिलाफ खडे होकर बोलते और लिखते रहे। ‘जात न पूछो साधू की’ तो अनपढ ने भी सुना और कंठस्थ किया है। कोई भी समझदार व्यक्ति किसी से उसकी जात नहीं पूछता, लेकिन ठाकुर ब्राण्ड नेता ये काम करते हैं और बिना शर्माए करते हैं।
बात मुंशी प्रेमचांद की हो रही है, मुंशीजी को मैंने देखा नहीं। वे मेरे जन्म से कोई 23 साल पहले ही चलते बने, लेकिन मेरी भी जिद थी कि जिस मुंशी प्रेमचंद को हमने बचपन से पचपन तक पढा है उनसे मिलने उनके गांव लमही जरूर जाऊंगा। और मैं सचमुच लमही गया। लमही में मुझे मुंशीजी तो नहीं मिले किन्तु उनकी आत्मिक उपस्थिति से मेरा साक्षात्कार अवश्य हुआ। मुंशीजी की जीवनी और उनके साहित्य के बारे में लिखना मुझे आवश्यक नहीं लगता, क्योंकि पढने-लिखने में रूचि रखने वाले देश-दुनिया के तमाम लोग जानते हैं कि मुंशी प्रेमचंद का असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। वे धनपत राय से मुंशी प्रेमचंद कैसे बने इसकी अलग कहानी है।

मुंशीजी कलम-दवात के जमाने में 31 जुलाई 1880 को जन्मे थे, मुझे लगता है कि यदि मुंशीजी आज के मोबाईल और इंटरनेट के युग में जन्मे होते तो ज्यादा उचित होता। जाहिर है कि मुंशीजी हिन्दी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार, कहानीकार एवं विचारक थे। मुंशीजी ने सेवा सदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, गबन, कर्मभूमि, गोदान आदि लगभग डेढ दर्जन उपन्यास लिखे। हिन्दी साहित्य का शायद ही कोई ऐसा छात्र होगा जिसने इन उपन्यासों को न पढा हो। हमारी पीढी का बच्चा-बच्चा उनकी कहानियों में से कुछ खास कहानियों जैसे कफन, पूस की रात, पंच परमेश्वर, बडे घर की बेटी, बूढी काकी, दो बैलों की कथा को तो जानता ही है। मुंशीजी ने हालांकि तीन सौ से अधिक कहानियां लिखीं। उनमें से अधिकांश हिन्दी तथा उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुईं। उन्होंने अपने दौर की सभी प्रमुख उर्दू और हिन्दी पत्रिकाओं जमाना, सरस्वती, माधुरी, मर्यादा, चांद, सुधा आदि में लिखा।
मुंशीजी केवल लेखक ही होते तो अलग बात थी। वे सम्पादक भी थे और अच्छे सम्पादक थे। उन्होंने हिन्दी समाचार पत्र जागरण तथा साहित्यिक पत्रिका हंस का संपादन और प्रकाशन भी किया। इसके लिए उन्होंने सरस्वती प्रेस खरीदा जो बाद में घाटे में रहा और बन्द करना पडा। इसकी भी एक रोचक कहानी है। मुंशीजी दूसरे लेखकों की तरह फिल्मों की पटकथा लिखने मुंबई भी गए। उन्होंने मुंबई में लगभग तीन वर्ष तक संघर्ष किया और वापस अपने देश लौट आए। जीवन के अंतिम दिनों तक वे साहित्य सृजन में लगे रहे। महाजनी सभ्यता उनका अंतिम निबंध, साहित्य का उद्देश्य अंतिम व्याख्यान, कफन अंतिम कहानी, गोदान अंतिम पूर्ण उपन्यास तथा मंगलसूत्र अंतिम अपूर्ण उपन्यास माना जाता है।
मुझे लगता है कि मुंशीजी की समकालीन जितने भी लेखक हुए उनमें मुंशी प्रेमचंद को जो लोक प्रतिष्ठा मिली, वो कम ही लोग हांसिल कर पाए। मुंशी जो कहानी लिखें या उपन्यास उनके पात्र आपके आस-पास के जाने-पहचाने होते थे। मुंशीजी की भाषा सहज, सपाट और सपरवाह होती थी। वे सीधे दिल में उत्तर जाते थे अपने पत्रों को लेकर। मैंने मुंशीजी के गांव में उनके पौत्र द्वारा बनाए गए एक संग्रहालय में मुंशीजी की किताबों और उनके द्वारा इस्तेमाल किए गए रेडियो, लालटेन, कलमों को छू-छूकर देखा। मेरे रोमांच की आप कल्पना नहीं कर सकते। मुझे लगता है कि यदि आज मुंशीजी होते तो वे तमाम भाग्य विधाताओं की बोलती बंद कर देते। वे किसी सीबीआई और ईडी से न डरते, जमकर लिखते।
मुंशीजी की सबसे बडी उपलब्धि यही है कि वे भारतीय जनमानस में आज 88 साल बाद भी विराजमान हैं। उन्हें पिछले सौ साल में कोई आलोचक, कोई कहानीकार और उपन्यासकार न खारिज कर पाया और न उनकी जगह ले पाया। मुंशीजी आज भी गांव-कस्बे के लेखकों के भीतर मौजूद है। वे कहीं कम तो कहीं ज्यादा प्रकट होते रहते हैं। अमरत्व इसी का नाम है।