– राकेश अचल
देश के उप राष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति की ‘मिमिक्री’ को लेकर आधी संसद रो रही है, किसान रो रहे हैं, खांप रो रही है, बल्कि उन्हें जबरन रुलाया जा रहा है, क्योंकि ये ‘मिमिक्री’ भी अब एक सियासी औजार बन गई है। गनीमत ये है कि विपक्ष विहीन आधी सांसद ने इसे अभी भारतीय दण्ड संहिता के किसी अनुच्छेद में स्पष्ट रूप से अपराध घोषित नहीं किया है। भारतीय अपराध संहिता के लिए भी मन देखे जा रहे है। कौन इटली वाला है और कौन नागपुर वाला?
ताजा मिमिक्री विवाद पर मुझे अब हंसने के बजाय रोने का मन हो रहा है। मेरा मन न इटली का है न पाकिस्तान का, वो शुद्ध हिन्दुस्तान का है, जहां हास्य, व्यंग्य, विनोद के लिए हर जगह स्थान है। लेकिन अदावत की सियासत के युग में अब इस आवश्यक विधा पर भी हमला किया जा रहा है, वो भी रो-रोकर, सांसद में खडे हो-होकर। जबकि इस देश ने संसद में अपने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा की गई हर ‘मिमिक्री’ को पूरी उदारता से न सिर्फ देखा बल्कि उसका आनंद लिया। उस पर कभी टसुए नहीं बहाये, उसे कभी जातीय या पेशेगत अपमान से नहीं जोडा।
हम लोग बचपन से देखते-सुनते आ रहे हैं कि जब भी लोग फुर्सत में होते हैं तो अंताक्षरी खेलते हैं। कहा जाता है ‘शुरू करो अंताक्षरी लेकर हरि का नाम, समय बिताने के लिए करना है कुछ काम’। संसद के दोनों सदनों से निलंबित किए गए सदस्य संसद के बाहर समय बिताने के लिए अंताक्षरी के बजाय मिमिक्री कर रहे थे। मिमिक्री अपराध नहीं बल्कि एक कला है। मिमिक्री के माध्यम से सन्नाटे में, नीरसता में विनोद पैदा किया जाता है और मिमिक्री के लिए उस पात्र को चुना जाता है जो अपने समय में अपने हाव-भाव और अदाओं की वजह से सबसे ज्यादा लोकप्रिय हो। मिमिक्री किसी अनाम आदमी की नहीं की जाती। निलबित सांसदों की जमात ने इस बार मिमिक्री के लिए उपराष्ट्रपति जी को चुना। लेकिन वे इस चुनाव से खुश होने के बजाय आहत हो गए। उन्होंने धन्यवाद देने के बजाय विपक्षी सांसदों पर अपमान करने का आरोप मढ दिया और मजा ये कि उनके टसुए पौंछने के लिए राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष से लेकर सत्तारूढ दल की पूरी फौज रूमाल लेकर कतारबद्ध नजर आने लगी।
मिमिक्री काण्ड को लेकर समूचा दृश्य हास्यास्पद बन गया है। जो सभापति सदन के भीतर सदस्यों को संरक्षण देने के बजाय सत्तारूढ दल की कठपुतली की तरह काम करता हो उसे अचानक अपने पद, जाति और पेशे के अपमान का बोध हो जाए तो आप क्या कहेंगे? निलंबित सदस्य सदन के बाहर हैं और सदन के बाहर की गई कोई कार्रवाई सभापति के दायरे में नहीं आती। उनके दायरे में जो आता है वो उन्होंने अब तक किया नहीं। वे एक बेरहम संरक्षक के रूप में सामने आए हैं। सभापति के रूप में उन्होंने विपक्ष को कभी संरक्षण दिया हो ऐसा प्रतीत नहीं होता।
दुनिया में शायद ही कोई ऐसा समाज होगा जिसमें हास्य-व्यंग्य और विनोद के लिए स्थान न हो, शायद ही ऐसा कोई समाज होगा जो इस विधा को अपराध मानता हो। हम तो उस समाज से आते हैं जहां हास्य-व्यंग्य सनातन संस्कृति का हिस्सा है। यहां हरि को भी व्यंग्य वचनों का इस्तेमाल करने की आजादी दी गई है। आम आदमी का तो ये सबसे महत्वपूर्ण और लोकतांत्रिक औजार है। आज के सत्तारूढ दल ने देश के संसदीय इतिहास को न पढा है, न देखा है। भाजपा का तो जन्म ही 1980 में हुआ है और आज की भाजपा तो 2014 में जन्मी है। उसे संसदीय हास्य परम्पराओं का बोध कैसे हो सकता है?
आज की स्थिति में गनीमत है कि निलंबित सांसद केवल गांधीवादी तरीके से संसद के बाहर धरना दे रहे हैं, कल वे सडकों पर भी उत्तर रहे हैं, मैं तो कहता हूं कि उन्हें निलंबन के इस नए इतिहास के लेखकों से त्यागपत्र देने के लिए आंदोलन चलना चाहिए, क्योंकि सभी ने मिलकर संसदीय परम्पराओं का गला घोंटा है। अपने दल के परम विनोदी नेता और देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की आत्मा को आहत किया है। संसद लठैती से नहीं चलती कायदे कानूनों से चलते है। सभापति के पास निलंबन का अधिकार है तो बहाली का भी अधिकार है। सभापति सदन के हर सदस्य के संरक्षक हैं, न कि केवल सत्तारूढ दल के। और जो सभापति कठपुतली बनते हैं, वे न सिर्फ अपने पद की गरिमा को कलंकित करते हैं, बल्कि हमेशा के लिए इतिहास में एक खलनायक की तरह दर्ज किए जाते हैं। दुर्भाग्य से आज के नायक अचानक खलनायक बन गए हैं।
आपको जानकार हैरानी होगी कि मिमिक्री को लेकर असंवेदनशीलता पिछले एक दशक में ही बढी है। अब ये केवल नेताओं का विशेषाधिकार हो गया है। खासतौर पर सत्तारूढ दल के नेताओं का विशेषाधिकार। और कोई मिमिक्री करता है तो उसे अपराध माना जाता है। हमारे सूबे में आज की तारीख में केन्द्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया से सबसे कुशल मिमिक्री कलाकार हैं। एक जमाने में लालूप्रसाद यादव के पास ये तमगा हुआ करता था। कभी सदन में पीलू मोदी होते थे इसी भूमिका में। वे सोती और रोती संसद को भी अपने हास्यबोध से जागृत कर देते थे, लेकिन उनके समय में कभी कोई सभापति आहत नहीं हुआ। आज के सभापति तो ‘छुईमुई’ के पौधे हो गए हैं। यानि एक मिमिक्री से उनकी जाति, वर्ग और पद का अपमान हो जाता है। ऐसे छुईमुई के पौधे जब संवैधानिक पद पर बैठकर किसी महिला मुख्यमंत्री का अपमान करते हैं तब अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते हैं, और इसी के आधार पर सियासत में पदोन्नति भी पाते हैं। लेकिन ये एक अलग मसला है।
आज का मसला ये है कि क्या इस देश में कोई किसी की मिमिक्री नहीं करेगा और अगर करेगा तो उसे जेल में डाल दिया जाएगा। मुझे याद है कि मप्र के जबलपुर शहर में श्याम रंगीला नाम के एक मिमिक्री कलाकर के साथ यही सब हुआ। उसे मोदी और शाह की मिमिक्री करने पर जेल जाना पडा और उस पर धाराएं लगीं दंगा करने और अश्लीलता फैलाने की। श्याम रंगीला अकेला नहीं है। फिल्म और टेलीविजन जगत के अनेक हास्य कलाकार इस तरह की असहिष्णुता के शिकार हो चुके हैं। दुर्भाग्य ये है कि देश के इस हास्य बोध को माननीय अदालतों का भी संरक्षण नहीं मिलता। आज मिमिक्री को लेकर उग्र लोग इटली के नहीं, उस नागपुर के हैं जो हरिशंकर परसाई के व्यंग्य को नहीं पचा पाते थे और उनकी रीढ की हड्डी तोडने का दुस्साहस कर चुके हैं। लेकिन ऐसे लोग और ऐसी सत्ताएं ये भूल जाती है कि वे अजर-अमर नहीं हैं। इस देश में जो परम्पराएं हैं, जो हास्य बोध है, वो किसी के हडकाने, किसी को जेल भेजने से समाप्त नहीं हो सकता और ऐसी कोशिशें भी नहीं की जाना चाहिए। अन्यथा लोकतंत्र का बहुत बडा नुकसान हो सकता है। मैं माननीय की मिमिक्री करने के लिए कल्याण बनर्जी को शाबासी देता हूं। मेरी माननीय सभापति के प्रति भी सहानुभूति है। मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि वो मिमिक्री विरोधियों को सदबुद्धि दें।