– राकेश अचल
देश के शिक्षण संस्थानों में ड्रेस कोड की सियासत बहुत पुरानी है। मध्य प्रदेश में डॉ. मोहन यादव की सरकार ने भी एक बार फिर से ड्रेस कोड का राग अलापना शुरू कर दिया है। मुमकिन है कि मप्र के महाविद्यालयों में आने वाले दिनों में रंग-बिरंगी यूनिफार्म पहने छात्र-छात्राएं नहीं दिखाई दें और न ही कोई हिजाब या पगड़ी पहनकर कॉलेज आ सकेगा। सभी कॉलेजों में एकरूपता लाने के उद्देश्य से सरकार ड्रेस कोड लागू करने पर विचार कर रही है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का हवाला देकर उच्चशिक्षा मंत्री इंदर सिंह परमार ने उच्च शिक्षा विभाग को पत्र लिखकर निर्देश दिया है कि प्रधानमंत्री उत्कृष्टता महाविद्यालय एवं अन्य महाविद्यालयों में ड्रेस कोड लागू करने की नीति और प्रस्ताव प्रस्तुत करें।
ड्रेस कोड केवल शिक्षण संस्थाओं में ही नहीं, बल्कि तमाम सैन्य और अर्ध सैन्य संगठनों में भी प्रमुखता से लागू होता है। अब तो सामाजिक ही नहीं धार्मिक संगठनों तक ने अपने-अपने ड्रेस कोड बना रखे हैं। हमारे यहां प्राचीन गुरुकुलों में भी ड्रेस कोड लागू था। लेकिन आधुनिक संसार में ड्रेस कोड अंग्रेजों की देन है। शैक्षणिक संगठनों में ड्रेस कोड की प्रथा इंग्लैंड में 16वीं शताब्दी से शुरू हुई थी, तब छात्रों को एक ड्रेस कोड दिया जाता था, जिसमें एक लंबा नीला कोट और पीला ट्राउजर और घुटने तक ऊंचे मोजे होते थे। वहां के चैरिटी स्कूलों में जहां अक्सर गरीब बच्चों के लिए यूनिफॉर्म स्कूल से दी जाती थी। स्कूल यूनिफॉर्म पहनने की प्रथा को कई अन्य देशों ने भी अपनाया है। ठीक इसी तरह भारत में भी बेसिक स्कूलों में एक ड्रेस कोड लागू किया गया। जो वर्ष 1852 में प्रभावी तौर पर उत्तर प्रदेश के पांच जिलों में लागू हुआ था।
ड्रेस कोड को लेकर जब राजनीति होती है तब समस्याएं खड़ी होती हैं। ड्रेस कोड में हिन्दू-मुसलमान होने लगता है तब और ज्यादा समस्या होती है। ड्रेस कोड सरकारों का नहीं बल्कि शैक्षणिक संस्थानों का विषय होना चाहिए, लेकिन देश में जब से साम्प्रदायिकता की राजनीति शुरू हुई है तभी से ड्रेस कोड विवादास्पद हो गया है। ड्रेस कोड लागू करने के पीछे धर्म विशेष के लोगों की धार्मिक भावनाओं को आहत करने की मंशा सबसे बड़ी समस्या है। मप्र सरकार के निर्णय के पीछे भी इसी तरह की मानसिकता की आहट सुनाई देती है।
दरअसल देश के शैक्षणिक संस्थानों को ड्रेस कोड से ज्यादा जरूरत शैक्षणिक वातावरण में सुधर लाने की है ,लेकिन इस दिशा में कोई,कुछ करने को तैयार नहीं है। मप्र तो उन राज्यों में से है जहां शैक्षणिक संस्थानों का वातावरण सबसे ज्यादा दूषित है। मप्र में तो शैक्षिणक संस्थानों में शिक्षकों की हत्याएं तक हो चुकी हैं और आज के सत्तारूढ़ दल के प्रमुख ऐसे मामलों में आरोपी भी रह चुके हैं, ये बात अलग है कि उन्हें बाद में अदालत ने बरी कर दिया। मैं प्रोफेसर सबरबाल हत्याकाण्ड की बात कर रहा हूं। 2006 में उज्जैन के माधव कॉलेज के प्रोफेसर सबरवाल से छात्रसंघ चुनावों के दौरान कुछ लोगों ने मारपीट की थी, जिसके बाद उनकी की मौत हो गई थी। इस मामले में एबीवीपी के शशिरंजन अकेले प्रमुख आरोपी थे।
ड्रेस कोड वैसे कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन इसे जबरन थोपना बहुत बुरी बात है। ड्रेस कोड में उतनी शिथिलता दी जाना चाहिए जितनी कि सेना में मिलती है। सेना में भारत में ही नहीं बल्कि इंग्लैंड, अमेरिका और कनाडा में भी इस बात की रियायत है कि लोग अपनी धार्मिक पहचान रखते हुए ड्रेस कोड का पालन करें। पुलिस में भी ये छूट है, फिर शैक्षणिक संस्थानों में ये छूट देने में सियासत क्यों की जाती है? ये समझ से परे हैं। पिछले वर्षों में ड्रेस कोड को लेकर आपको कर्नाटक के दृश्य याद होंगे, जहां कुछ हिन्दू संगठनों ने हिजाब पहनकर कॉलेज जाने वाली लड़कियों के साथ कितनी बदसलूकी की थी? आप मुसलमानों के हिजाब, सिखों की पगड़ी के रंग को ड्रेस कोड में शामिल कर सकते हैं, लेकिन उन्हें प्रतिबंधित नहीं कर सकते। लेकिन मप्र में एक बार फिर कर्नाटक में हुई गलती का अनुशरण किया जा रहा है, ये दुर्भाग्यपूर्ण है।
भाजपा संगठन और भाजपा की सिंगल और डबल इंजिन सरकारों की ये कमजोरी है कि वे हर क्षेत्र का भगवाकरण करना चाहती हैं। रेलों का रंग वे बदल चुके हैं। खिलाडियों की जर्सी में भगवा कहें या केसरिया रंग शामिल किया जा चुका है। और तो और सरकारी साइन बोर्डों और सरकारी विज्ञापनों का रंग भी भगवा किया जा चुका है। भगवा रंग हो या केसरिया रंग बुरा नहीं है किन्तु जिस मानसिकता से इन रंगों का इस्तेमाल किया जा रहा है वो घातक है। भाजपा को हरे रंग से चिढ है, क्योंकि ये रंग मुस्लिमों को प्रिय है। मजे की बात ये है कि हरियाली के प्रतीक इस हरे रंग को भाजपा ने अपने झण्डे में शामिल किया हुआ है। रंगों को साम्प्रदायिकता से मुक्त रखने की जरूरत है और ड्रेस कोड को भी।
मप्र में भवन विहीन स्कूलों की संख्या सबसे ज्यादा है। प्रदेश में करीब एक लाख 20 हजार सरकारी स्कूल हैं। मूलभूत सुविधाओं में मप्र के स्कूल 17वें स्थान पर मप्र के 67 हजार प्राथमिक व माध्यमिक स्कूलों में बिजली कनेक्शन तो 50 हजार में चारदीवारी नहीं है। 1900 स्कूलों का अपना भवन ही नहीं है। करीब छह हजार स्कूल एक-दो कमरों में चल रहे हैं। इसका खुलासा मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने फरवरी में एक परफॉर्मेन्स ग्रेडिंग इंडेक्स में किया था। इसमें मप्र के स्कूलों को ग्रेड-2 में रखा गया था और मूलभूत सुविधाओं में देश में 17वें स्थान पर था। गोवा पहले, चंडीगढ़ दूसरे और दिल्ली तीसरे स्थान पर था। लेकिन जोर दिया जा रहा है ड्रेस कोड पर।
मप्र में शैक्षणिक संस्थानों में ड्रेस कोड लागू करने से ज्यादा जरूरी भवन विहीन शैक्षणिक संस्थानों को भवन, स्टाफ उपलब्ध करना है। सरकार इस दिशा में पहल करे तो उसका खुले दिल से स्वागत किया जाएगा, लेकिन सरकार को स्वागत योग्य कोई काम करना ही नहीं है। सरकार का खुला एजेंडा साम्प्रदायिकता के आधार पर निर्णय करना है। मप्र में भी उत्तर प्रदेश की नकल की जा रही है। मप्र ने ऊपर से बुलडोजर संस्कृति सीखी। मदरसों पर हमला करना, उन्हें बंद करना या उनमें घुसपैठ करना भी उत्तर प्रदेश से सीखा है। जबकि मप्र को कुछ ऐसी पहल करना चाहिए कि दूसरे सूबे मप्र की नकल करें। मप्र के मुख्यमंत्री पढ़े-लिखे हैं। पीएचडी उपाधि धारक हैं। वे दूसरे मुख्यमंत्रियों की तरह बाबा नहीं हैं। उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे कुछ ऐसा करेंगे जो मप्र में उमा भारती, बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह नहीं कर पाए।
ड्रेस कोड के मुद्दे पर मैं अल्पसंख्यक नेताओं से ही कहना चाहूंगा कि वे सरकार के इस निर्णय पर अपनी प्रतिष्ठा दांव पर न लगाएं। कोशिश करें कि ड्रेस कोड लागू करने में कोई अड़चन न हो। बीच का रास्ता निकल जाए ताकि शैक्षणिक संस्थानों का वातावरण न बिगड़े। प्रदेश सरकार को भी इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाना चाहिए। ड्रेस कोड में यदि अल्पसंख्यक मुस्लिम, सिख या कोई दूसरा समाज यदि कोई रियायत चाहता है तो उसे देना चाहिए। मैंने सेना और पुलिस का उदाहरण दिया है। ड्रेस कोड कोई ऐसा मुद्दा नहीं है जो की विकास से जुड़ा है। बच्चे यदि ड्रेस कोड में नहीं जाएंगे तो उनके पढऩे पर कोई असर पडऩे वाला नहीं है। बेहतर हो कि प्रदेश सरकार आरएसएस की ड्रेस का रंग और रूप शैक्षणिक संस्थानों पर लागू कर दें। लेकिन इसमें भी हिजाब और पगड़ी को तो शामिल करना ही चाहिए। बांकी सरकार समर्थ होती है, कुछ भी कर सकती है।