जमानत की बधाई हो बृजभूषण जी

– राकेश अचल


आप और हम किसी अदालत की अवमानना नहीं कर सकते, लेकिन महिला पलवानों के साथ कथित रूप से ज्यादती करने के आरोपी सांसद बृजभूषण को बधाई तो दे ही सकते हैं। बधाई दिल्ली पुलिस को भी दी जा सकती है, क्योंकि उसने बृजभूषण को जमानत के मामले में तटस्थता का मुजाहिरा किया, यानि न जमानत देने का विरोध किया और न समर्थन। वैसे भी जमानत हर आरोपी का जन्मसिद्ध अधिकार है। पूरा देश जानता है और मानता है कि बृजभूषण का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, क्योंकि वे सत्तारूढ़ दल के सांसद हैं और अपने दल की महती जरूरत भी। उनके खिलाफ एफआईआर तो फरियादियों का दिल रखने के लिए दर्ज की गई थी।
बृजभूषण के गले से नेतागीरी का आभूषण उतारने के लिए देश की महिला पहलवानों के साथ उनकी बिरादरी के अलावा किसानों और दुसरे वर्ग के लोगों ने लंबा आंदोलन चलाया, लेकिन इस आंदोलन को देश के गृह मंत्री और खेल मंत्री ने खेल-खेल में पंचर कर दिया। सरकार ने अंत तक बृजभूषण की गिरफ्तारी नहीं होने दी। आखिर होता वही है जो सरकार चाहती है। हमारे देश की न्याय व्यवस्था बेमिसाल है। इस न्याय व्यवस्था में जिन्हें जमानत की दरकार होती है उन्हें जमानत नहीं मिल पाती और जिन्हें जमानत नहीं मिलना चाहिए वे जमानत खुदरा बाजार में आम की तरह हासिल कर लेते हैं जमानत। हमारे लोकप्रिय हत्यारे संत राम-रहीम साहब को जब चाहे तब जमानत मिल जाती है, इसमें कुछ अजूबा नहीं है।
देश की अदलातें कानून के हिसाब से चलती हैं या कानून उनके हिसाब से चालता ये कोई नहीं जानता। किसी को इस रहस्य को जानने की जरूरत नहीं है। इस रहस्य को जानना न देशहित में है और न कानून के हित में। ऐसा करना जनहित में तो बिल्कुल नहीं है। सब लोग खामखां अदालतों पर दबाब बनाने की कोशिश करते हैं। अदालतों को हमेशा दबाब मुक्त होना चाहिए। संयोग से हमारे मुल्क में अदलातें अभी दबाब मुक्त हैं। उनके ऊपर कोई दबाब होगा भी तो वो दिखाई नहीं देता और जो दिखाई नहीं देता उसे स्वीकार भी नहीं किया जा सकता, स्वीकार किया भी नहीं जाना चाहिए।
हमारी देश की अदलातें फैसला देते वक्त छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब कुछ नहीं देखतीं। वे तर्क सुनती हैं, प्रमाण देखती हैं, गवाहों की बात सुनती हैं, फिर कानून के मुताबिक फैसला करती हैं। इसलिए अदालतों के फैसलों पर किसी को उंगली नहीं उठाना चाहिए। फिर भी हमारी अदालतें इतनी उदार हैं कि उन्होंने आम जनता तक को अपने फैसलों के बारे में रचनात्मक, समीक्षात्मक टिप्पणियां करने की रियायत दी हुई है। हमें अदालत की इस उदारता का सम्मान करना चाहिए। मेरा तो आज भी देश की अदालतों पर अखण्ड विश्वास है। देश में आज अदलातों को छोडक़र भरोसे के लायक बचा ही कौन है?
देश की अदालतें ही हैं जो मानहानि जैसे मामलों में अब संजीदगी के साथ फैसले सुनाने लगी हैं। कांग्रेस के राहुल गांधी को मानहानि के मामले में जब से नीचे की अदालत ने सजा सुनाई है और ऊपर की अदालत ने उसकी पुष्टि की है तब से मेरा अदालतों के प्रति भरोसा और बढ़ गया है। मैंने लिखने, पढऩे और बोलने तक में एहतियात बरता शरू कर दी है। मैं हत्या, बलात्कार या चमत्कार के आरोपी को भी माननीय और जी कहकर संबोधित करता हूं। मेरी पूरी कोशिश होती है कि मेरी ओर से किसी की मानहानि न हो। राहुल गांधी को मानहानि के मामले में सजा मिलने से भाजपा और मोदी समाज को छोड़ सभी चिंतित हैं। लेकिन मैं एकदम निश्चिंत हूं। मैं मानता हूं कि जो जैसा करेगा, वो वैसा भरेगा। राहुल गांधी भारत को जोडऩे का दुरूह काम करने वाले नेता हैं, इसलिए उन्हें किसी की मानहानि करने की रियायत थोड़े ही दी जा सकती है। ये रियायत तो नसीब वालों को ही नसीब होती है।
बहरहाल बात बृजभूषण से शुरू हुई थी सो उन्हीं पर समाप्त होना चाहिए। बृजभूषण सत्तारूढ़ दल का आभूषण हैं। अदालत ने उन्हें नियमित जमानत देकर बड़ा उपकार और स्तुत्य कार्य किया है। सिंह साहब केवल देश के बाहर नहीं जा सकत। वैसे भी चुनावी साल में वे देश के बाहर जाकर करेंगे भी क्या? चुनावी मौसम में देश को, पार्टी को उनके क्षेत्र की जनता को उनकी सेवाओं की जरूरत है। बृजभूषण को जमानत मिलने के बाद फरियादियों को भी समझ लेना चाहिए कि किसी भद्र जनसेवक पर इतने गंभीर आरोप थोक-बजाकर लगना चाहिए, अन्यथा परिणाम ठनठन गोपाल ही निकलता है। जैसे राहुल गांधी पर पूरी गंभीरता से आरोप लगाए गए तो उन्हें सजा हुई कि नहीं? बृजभूषण को भी सजा हो सकती थी, लेकिन उन्हें सजा से पहले ही जमानत मिल गई। इस मामले में बृजभूषण का नसीब राहुल गांधी के नसीब से अच्छा है।
देश संसद से ज्यादा अदालतों पर भरोसा रखता है। इसलिए अदालतों की जिम्मेदारी अपने आप बढ़ जाती है। अदालतें भी इस हकीकत को समझती हैं। दिल्ली सरकार के लिए केन्द्र सरकार द्वारा बनाए गए अध्यादेश को इसीलिए अदालत ने संविधान की पीठ को सौंप दिया है। अब इस हालत में देश की संसद में भी इस पर विमर्श या हंगामा नहीं हो सकता। वैसे भी संसद बहस की जगह है, हंगामे की नहीं। दुर्भाग्य ये है कि संसद में जो भी दल विपक्ष में होता है वो बहस की मांग के साथ ही हंगामा ज्यादा करता है। मेरी मान्यता है कि बहस से ज्यादा हंगामा आसान क्रिया है। इसके लिए होमवर्क भी नहीं करना पड़ता। हंगामा बिना रियाज के हो सकता है। सदन के अध्यक्ष यदि मेरी मानें तो मैं कहूंगा कि संसद में श्रेष्ठ सांसद के साथ ही श्रेष्ठ हंगामेबाज संसद को भी सम्मानित किया जाना चाहिए। क्योंकि हर सांसद का मकसद सूरत बदलना कम हंगामा करना ज्यादा होता है।
कहावत भी है, सूत्र भी कि ‘महाजन येन गत: स पंथ’ अर्थात बड़े लोग जिस रास्ते जाएं उनका अनुशरण किया जाए। हमारे हंगामेबाज सांसदों को प्रधानमंत्री का अनुशरण करते हुए हंगामे के बजाय मौन की साधना करना चाहिए। हंगामे से मौन ज्यादा मारक होता है। प्रधानमंत्री को मौन साधना का आदर्श पुरुष कहा जा सकता है। वे मणिपुर पर पूरे ढाई महीने मौन रहे। बोले भी तो तब बोले जब संसद का पावस सत्र शुरू होने वाला थ। लम्बे मौन के बाद यदि आप बोलेंगे तो तय है कि सामने वाले की बोलती बंद हो जाएगी।