छोटे अहंकार की बडे अहंकार से मात

– राकेश अचल


दिल्ली जीतने के लिए भाजपा नेतृत्व को हार्दिक बधाई। बधाई दे रहा हूं क्योंकि ये बधाई बनती है। मैं भाजपा की तरह न ‘तंग-दिल’ हूं और न ‘संग-दिल’ इसलिए तमाम असहमतियों के रहते हुए मुझे देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी को बधाई देने में कोई संकोच नहीं है। मोदी की भाजपा ने 27 साल की लम्बी तपस्या का फल हासिल कर लिया है। अब बडी दिल्ली और छोटी दिल्ली दोनों भाजपा के हाथ में हैं। भाजपा ने बडी ही हिकमत अमली से केजरीवाल से उनकी दिल्ली छीन ली है।
दिल्ली विधानसभा चुनावों को लेकर आपने तमाम मीमांसाएं, समीक्षाएं, विश्लेषण देखे और पढे होंगे, लेकिन मैंने शरू से कहा था कि इस बार दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ठीक उसी तरह घेरे जा चुके हैं जैसे 2019 के लोकसभा चुनाव में मध्य प्रदेश में अजेय सिंधिया ज्योतिरादित्य को घेरकर हराया गया था। सिंधिया ने पराजय के बाद भाजपा में शामिल होकर दोबारा से जय हासिल कर ली, किन्तु अरविंद केजरीवाल की किस्मत में ये भी मुमकिन नहीं है, क्योंकि वे देश केप्रधानमंत्री को ‘चौथी पास राजा’ कह चुके हैं और उस विधानसभा में कह चुके हैं जिसके रिकार्ड को विलोपित करना भाजपा के लिए भी आसान नहीं है, भले ही उसे 27 साल बाद दिल्ली में प्रचण्ड, अखण्ड या बम्पर बहुमत मिला है।
दिल्ली में आम आदमी पार्टी की हार आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं की हार नहीं है, ये नीतियों की भी हार नहीं है, ये ईमानदारी और बेईमानी की भी हार नहीं है। ये हार दरअसल अहंकार की हार है। दुर्भाग्य ये कि दिल्ली का छोटा अहंकार देश के बडे अहंकार से हार गया। अर्थात दिल्ली को अभी भी अहंकार से निजात नहीं मिली है। यदि दिल्ली में कुशासन हारा है तो दुशासन से हारा है। सुशासन के लिए तो कहीं कोई जगह है ही नहीं आज की राजनीति में। सुशासन कहीं दुबका हुआ बैठा होगा। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की नाव वहां डूबी है जहां पानी कोई कोई कमी नहीं थी, कमी थी तो विनम्रता की। आम आदमी पार्टी ने अपने खिलाफ एक साथ दो शत्रु खडे कर लिए थे।
आप मानकर चलिए कि दिल्ली के विधानसभा चुनाव जिस कडवे माहौल में हुए हैं उसके फलस्वरूप दिल्ली की सियासत में कोई सुधा बरसने वाली नहीं है। आने वाले दिन आम आदमी पार्टी के आम कार्यकर्ता के साथ खास नेताओं तक के लिए भरी पडने वाले हैं, क्योंकि भाजपा हाईकमान आम आदमी पार्टी के आमो-खास को मुआफ करने वाली नहीं है। भाजपा की केन्द्रीय और अब दिल्ली की सरकार चुन-चुनकर केजरीवाल एण्ड कंपनी से बदला लेगी। केजरीवाल से लेकर मनीष सिसौदिया को एक बार फिर से जेल-यात्राएं करना होंगी। अदालतें भी शायद उनकी मदद न कर पाएं।
ये विधानसभा चुनाव क्षेत्रीय दलों के लिए अपशकुन है, तो क्षेत्रीय दलों के लिए एक संकेत भी कि वे अकेले किसी भी सूरत में भाजपा का मुकाबला नहीं कर सकते। उन्हें कांग्रेस के साथ चलना ही होगा। दिल्ली के चुनाव परिणाम कांग्रेस के लिए भी एक नई चुनौती हैं। भाजपा का इतिहास रहा है कि उसने अपने तमाम समर्थकों और विरोधियों को निर्ममता के साथ समाप्त किया है। भाजपा के नेतृत्व ने पार्टी के भीतर जब विरोधियों को नहीं बख्शा, तो बाहर के विरोधियों को बख्शने का सवाल ही नहीं उठता। जैसा कि मोदी जी के विजयोत्सव के भाषण से साफ है कि अब केवल बंगाल की तृणमूल कांग्रेस ही नहीं, अपितु बिहार की उनकी अपनी सहयोगी जेडीयू भी भाजपा के निशाने पर है। भाजपा अब टीडीपी को भी कोई उडान नहीं भरने देगी। गोबर पट्टी में विजय पताकाएं फहराते हुए आगे बढ रही भाजपा अब दक्षिण और पूरब की और रुख करेगी और 2028 से पहले अपने अखिल भारत विजय के अभियान को पूरा करना चाहेगी।
संदर्भ के लिए याद दिला दूं कि भाजपा ने जब अपनी पुरानी सहयोगी उडीसा की बीजद को नहीं छोडा तो आम आदमी पार्टी को वो कैसे छोड देती? भाजपा अपने तमाम सहयोगी दलों की या तो बलि ले चुकी है या फिर उन्हें दो फांक कर अपने साथ खडा कर चुकी है। अकाली हों या शिवसेना वाले कोई भाजपा की मार से बचे नहीं। एक आंकडा बताता है कि भाजपा के मौजूदा नेतृव ने पिछले 10 साल में अपने 24 छोटे-बडे सहयोगी दलों की निर्मम हत्या की है। आम आदमी पार्टी के संस्थापक को जीत कर भाजपा ने नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू को भी संकेत दे दिए हैं कि वे किसी गफलत में न रहें। गफलत में देश को भी नहीं रहना चाहिए और कांग्रेस को भी। भाजपा की अक्षोहणी सेना हर चुनाव में पूरी तैयारी के साथ उतरती है। भाजपा ने यदि झारखण्ड, तेलंगाना और कर्नाटक नहीं जीत पाया तो ये नहीं समझा जाना चाहिए कि भाजपा की जीतने की भूख मर गई है। भाजपा 24 घण्टे युद्धरत रहती है।
दिल्ली के विधानसभा चुनाव ये संकेत दे चुके हैं कि क्षेत्रीय दलों को निगलने के बाद उसका अगला और अंतिम निशाना कांग्रेस ही है। कांग्रेस चूंकि ‘हप्पा’ नहीं है, इसलिए उसे निगलने में भाजपा को वक्त लगेगा, लेकिन भाजपा हार मानकर बैठने वाली नहीं है। उसकी नफरत की आंधी और अदावत के तूफान भारतीय राजनीति को हलकान किए रहेंगे। इसलिए मेरा मश्विरा है कि स्थितिप्रज्ञ होकर फिलहाल ‘तेल देखिये और तेल की धार देखिये’।