– अशोक सोनी निडर
दुनिया के हर इक मुद्दे पर गला फाड चिल्लाने वालों,
जीभ टूट कर कहीं गिरी है या फिर आंखें फूट गई हैं!
हम जिनको नायक कहते हैं, वे सारे अभिनेता चुप हैं,
स्याही सूख गई है शायद, गीतों के ‘विक्रेता’ चुप हैं!
बुद्धिजीवियों की मेधा को शायद लकवा मार गया है,
लगता है कविधर्म आज फिर स्वार्थ सिद्धि से हार गया है!
गाल-बाल पर, चाल-ढाल पर अपनी कलम चलाने वालों,
टाइप करना भूल गए हो या फिर बांहें टूट गई हैं!
यह बर्बरता देख तुम्हारा हृदय कभी रोता तो होगा,
कहो! अहिंसक और नपुंसक में अंतर होता तो होगा!
भाई का चारा बन जाने को रहते तैयार हमी हैं,
नित्य घट रही घटनाओं के शायद जिम्मेदार हमी हैं!
फूहड फिल्मी गानों पर ही अपनी कमर हिलाने वालों,
रामायण-गीता पढते हो या वे पीछे छूट गई हैं!
कब तक यह कह कर टालोगे, ये सब तो होता रहता है,
एक पक्ष है लगा काम पर, एक पक्ष सोता रहता है!
हम तटस्थ ही रहे सदा पर अब मन में आक्रोश भरा है,
हमको ज्ञान न देना साहब! अभी हमारा जख्म हरा है!
‘शठे शाठ्यम समाचरेत’ का पावन मंत्र भुलाने वालों,
ये घटनाएं आज हमारे स्वाभिमान को लूट गई हैं।