– राकेश अचल
जम्मू-काश्मीर में 16 अक्टूबर 2024 को चुनी हुई सरकार का गठन होने जा रहा है, इसके 12 घण्टे पहले वहां से राष्ट्रपति शासन का समापन भी हो गया, इसीलिए बुधवार 16 अक्टूबर की तारीख उसी तरह से इतिहास में दर्ज की जाएगी जिस तरह इस सूबे को तीन टुकडों में बांटने की तारीख दर्ज की गई थी। जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र बहाली के इस मौके पर स्थानीय जनता के साथ ही पूरे देश को ताली और थाली बजाकर अपनी खुशी का इजहार करना चाहिए।
दरअसल जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र बहाली के लिए ताली और थाली बजाने का आह्वान करना तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी को था, लेकिन वे अपनी दूसरी व्यवस्तताओं के चलते देश को संबोधित करना भूल गए। उन्हें भूलने की पुरानी आदत है। वे जनता से दस साल में किए गए तमाम वादे भूल गए, अच्छे दिन लाना भूल गए, कालाधन लाना भूल गए। लेकिन वे प्रधानमंत्री हैं इसलिए उनकी सौ भूलें काबिले माफी हैं।
बीते रोज ही जम्मू कश्मीर में विधानसभा चुनावों की प्रक्रिया पूरी होने के बाद राष्ट्रपति शासन को हटा लिया गया है। केन्द्रीय गृह मंत्री ने इस संबंध में एक आदेश जारी किया है। शुक्रवार को नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने सरकार ने बनाने का दावा पेश किया था। उन्होंने राजभवन में उपराज्यपाल मनोज सिन्हा से भेंट की थी। इस दौरान उमर अब्दुल्ला ने उनके समक्ष सरकार बनाने का दावा पेश किया था। इसमें उन्होंने सहयोगियों दलों से मिली समर्थन की चिट्ठियां भी सौंपी थीं। उन्होंने 54 विधायकों के समर्थन होने का दावा किया है। शुरू में मुझे लगा था कि डॉ. फारुख अब्दुल्ला खुद मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे, लेकिन मैं और मेरे कयास गलत निकले। अब उमर अब्दुल्ला ही मुख्यमंत्री बनेंगे। उन्हें बनना भी चाहिए। वे खण्डित सूबे की अवाम के, नई जनरेशन के करीब हैं। और उम्मीद है कि उन्हें दिल्ली के अरविन्द केजरीवाल की तरह केन्द्र से रोज-रोज टकराना नहीं पडेगा।
जम्मू-काश्मीर की विधानसभा उस जीव के समान है जिसके दांत और नाखून पहले ही कतर दिए गए हैं। पांच साल पहले जम्मू-कश्मीर जिस तरह से एक पूर्ण सूबा था, वैसा अब नहीं है। अब तमाम मुद्दों और विषयों पर नवनिर्वाचित सरकार की नहीं बल्कि केन्द्र सरकार की चलेगी। दिल्ली से जम्मू-कश्मीर के विकास और जन कल्याण की योजनाओं को चलाने के लिए उमर अब्दुल्ला साहब को दिल्ली की तरफ ताकना ही पडेगा। वे यदि ईडी और सीबीआई से बच कर केन्द्र के साथ तालमेल करने में कामयाब हुए तो मुमकिन है कि अगले आम चुनाव से पहले जम्मू-काश्मीर को राज्य का दर्जा वापस मिल जाए, अन्यथा जम्मू-कश्मीर एक लंगडे घोडे की तरह ही रह जाएगा।
हम बचपन से पढते आए हैं कि जम्मू-कश्मीर इस मुल्क के माथे का मुकुट है। यहां की जाफरान जब महकती है तो पूरा देश महकने लगता है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से यहां की जाफरान में जाफरनी सुगंध कम, बारूदी गंध ज्यादा आने लगी थी। भाजपा ने शुरू के वर्षों में यहां पीडीपी के साथ सरकार चलने की कोशिश की और आतंकवाद को नाथने का प्रयास किया, किन्तु अपेक्षित कामयाबी नहीं मिली और सूबे की गठबंधन की सरकार गिर गई और फिर योजनाबद्ध तरीके से जम्मू-काश्मीर पर राष्ट्रपति शासन थोप दिया गया। राष्ट्रपति शासन में भी केन्द्र सरकार जम्मू-काश्मीर में आतंकवाद को नेस्तनाबूद नहीं कर पाई। जम्मू-काश्मीर के विस्थापितों को वापस नहीं ला सकी। निर्वाचित सरकार के लिए यही दो काम सबसे बडी चुनौती हैं।
जम्मू-काश्मीर में यदि केन्द्र की भाजपा के गठबंधन की सरकार ने दिल्ली के साथ किए जा रहे व्यवहार को ही दुहराने की गलती की तो आप तय मानिये कि यहां विधानसभा चुनाव कराने का कोई लाभ न स्थानीय जनता को मिलेगा और न देश को। क्योंकि दिल्ली और जम्मू-कश्मीर की भौगौलिक स्थितियों और मुद्दों में जमीन-आसमान का फर्क है। जम्मू-कश्मीर में जो सरकार बनने जा रही है वो दक्ष राजनीतिक दलों की सरकार है। उसे कोई प्रशासनिक अधिकारी नहीं, बल्कि अनुभवी राजनेता चला रहे हैं। केन्द्र की सरकार यदि घाटी की सरकार को अस्थिर करने की कोशिश करने का पाप करेगी तो उसे ये भारी पडेगा, यहां ऑपरेशन लोटस के लिए कम ही गुंजाईश है, हालांकि केन्द्र सरकार ने इसके लिए इंतजाम चुनाव से पहले ही कर रखे हैं।
आपको याद होगा कि जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनावों के लिए नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कांग्रेस से गठबंधन किया था। नेशनल कॉन्फ्रेंस को 90 सदस्यों वाली विधानसभा में 42 और कांग्रेस को छह सीटों पर जीत मिली है। चूंकि केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री के सिर से कांग्रेस और राहुल गांधी का भूत उतरने का नाम नहीं ले रहा है, इसीलिए मुझे लगातार आशंका है कि यहां ताली-थाली बजना बहुत दूर की बात है। केन्द्र की कोशिश होगी कि जितनी जल्दी मुमकिन हो नेशनल कॉन्फ्रेंस का कांग्रेस से समझौता समाप्त हो और उमर अब्दुल्ला भाजपा के साथ गठबंधन कर सरकार चलाएं। उमर अब्दुल्ला ऐसा कर भी सकते हैं। सूबे की भलाई के नाम पर उनके लिए ऐसा करना आसान भी है। खैर आगे जो होगा सो देखा जाएगा, लेकिन अभी तो सब खुश हैं कि जम्मू-काश्मीर में एक बार फिर लोकतंत्र की बहाली हुई है।
हम सूबे की जनता को मुबारकबाद देते हैं और उम्मीद करते हैं कि अब इस खण्डित सूबे में जम्मू-कश्मीर में 14वीं मर्तबा राष्ट्रपति शासन लागू न किया जाए। इस सूबे में पहली बार राष्ट्रपति शासन कांग्रेस ने 1977 में लागू किया था। 1977 और 1986 में राष्ट्रपति शासन की वजह कांग्रेस खुद थी। 1977 में कांग्रेस ने तत्कालीन अब्दुल्ला सरकार से अपना समर्थन वापस लिया थ। 1986 में भी कांग्रेस की वजह से ही राष्ट्रपति शासन लगा था, उस समय शायद जीएम शाह सरकार से कांग्रेस ने समर्थन वापस लिया था। जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन की सबसे लम्बी अवधि 1990 में लागू किए गए राष्ट्रपति शासन की थी। तब राष्ट्रपति शासन पूरे सात साल चला था। इस तरह जम्मू-कश्मीर के साथ कांग्रेस द्वारा किए गए गुनाहों की फेहरिश्त भी लम्बी है। भाजपा सरकार द्वारा लगाया गया राष्ट्रपति शासन पांच साल में ही हटा लिया गया। हालांकि भाजपा ने कांग्रेस से भी बडा पाप इस सूबे के तीन टुकडे कर किया है। वर्ष 2002, 2008, 2015 और 2016, 2018 में भी राष्ट्रपति शासन से गुजरे जम्मू-कश्मीर ने बहुत खुछ सीखा है।