– राकेश अचल
आज की पीढी सूरमा के बारे में तो जानती होगी, लेकिन उसे सुरमा के बारे में ज्यादा पता नहीं होगा। सुरमा का इतिहास बडा पुराना है। अक्सर पुराने जमाने में महिलाएं (पुरुष भी) सुरमा का इस्तेमाल अपनी आंखें आंजने यानि उन्हें खूबसूरत बनाने और निरोगी बनाने के लिए करते थे। सुरमा एके तरह का रसायन है। इसे आंजना भी एक कला है। संयोग से सुरमा को मुस्लिम समाज में बहुत तवज्जो दी गई। अब तो बहुत कम लोग सुरमा लगते हैं, क्योंकि एक तो ये हिन्दू-मुसलमान में बंट गया, दूसरे आधुनिक विज्ञान ने इसकी फजीहत कर दी।
गोया कि हम उस जमाने के लोग हैं जब सुरमा लगाने वाली स्त्रियों को बडे सम्मान से देखा जाता था। लोगों के पास बाकायदा एक खूबसूरत डिबिया होती थी जिसे सुरमेदानी कहा जाता था। सुरमा लगाने के लिए धातु या कांच की सलाई हुआ करती थी। सुरमे की याद मुझे अचानक तब आई जब मुझे सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई एक टिप्पणी पढने को मिली, जिसमें कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति (जज भी) भारत के किसी भी हिस्से को पाकिस्तान नहीं कह सकता है। यह देश की क्षेत्रीय अखण्डता के खिलाफ है। अदालत को ऐसी तल्ख टिप्पणी अपने ही एक अधीनस्थ न्यायालय के जज द्वारा की गई टिप्पणी पर करना पडी।
आपने शायद गौर न किया हो लेकिन आपको बताए देता हूं कि सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक हाईकोर्ट के जज की टिप्पणी को संज्ञान में लिया है और फटकार लगाई है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, कोई भी व्यक्ति भारत के किसी भी क्षेत्र को ‘पाकिस्तान’ नहीं कह सकता है। दरअसल, हाल ही में एक सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट के जज जस्टिस वेदव्यासाचार्य श्रीशानंद ने बेंगलुरु के एक इलाके को लेकर विवादास्पद टिप्पणी की थी। जस्टिस श्रीशानंद ने सुनवाई के दौरान एक महिला वकील पर असंवेदनशील और आपत्तिजनक टिप्पणी की थी। 20 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने मामले को संज्ञान में लिया और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से रिपोर्ट मांगी थी।
हाल ही में जस्टिस श्रीशानंद का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था। एक क्लिप में जज को मकान मालिक-किराएदारों के विवाद की सुनवाई के दौरान एक महिला वकील से यह कहते हुए देखा गया कि वो विरोधी पक्ष के बारे में बहुत कुछ जानती हैं। वो उनके अंडर गारमेंट्स का कलर भी आइडेंटिफाई कर सकती हैं। एक अन्य क्लिप में जज को बेंगलुरू के एक मुस्लिम बहुल इलाके को ‘पाकिस्तान’ कहते हुए सुना गया।
आजाद भारत में ऐसी घ्रणित और लज्जास्पद टिप्पणियां करने वाले वेदव्यासाचार्य अकेले नहीं हैं। वेदव्यासाचार्य की टिप्पणियां दरअसल उस समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं जो आजादी के बाद भी देश में रह गए अल्प संख्यकों को अपना मानने के लिए किसी भी सूरत में राजी नहीं हैं। ऐसी विचारधारा को राजनीतिक दलों ने हवा दी है। समाज में उन्होंने ही जहर घोला है और इतना ज्यादा घोल दिया है कि अब ये जहर देश की तमाम शिराओं से होता हुआ हमारी न्याय पालिका में भी प्रवेश कर गया है। जस्टिस वेदव्यासाचार्य तो एक उदाहरण भर हैं। वैसे भी केवल नाम वेदव्यास रखने से कोई वेदव्यास हो नहीं जाता। वो कुछ भी हो सकता है, लेकिन वेदव्यास नहीं।
बहरहाल मुझे और आप सभी को देश की शीर्ष अदालत का आभार मानना चाहिए कि उसने आपने अधीनस्थ न्यायालय के न्यायाधीश की टिप्पणी पर संज्ञान लिया। जस्टिस वेदव्यास यदि हाईकोर्ट के न्यायाधीश न होते तो मुमकिन है कि उन्हें उनकी टिप्पणी के लिए निलंबित कर दिया जाता। कारण बताओ नोटिस दिया जाता और बाकायदा कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाती, लेकिन अदालतों कि एक मर्यादा होती है। उसकी लक्ष्मण रेखाएं होती हैं, उन्हें आसानी से लांघा नहीं जा सकता।
खुशी की बात ये है कि सर्वोच्च न्यायालय ने जस्टिस वेदव्यास के जरिए पूरे देश को ये संदेश दे दिया कि हर किसी को अपनी जबान काबू में रखना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय का ये निर्देश उन नेताओं के लिए ज्यादा लागू हो सकता है जो बात-बात में अपने ही नागरिकों को ही नहीं बल्कि प्रतिपक्ष के नेताओं तक को बात-बात में पाकिस्तान जाने कि नसीहत देने से नहीं चूकते। हमारे देश के नेता ही नहीं बल्कि सरकारके मंत्री तक किसी को भी देश का आतंकी नंबर वन कह सकते हैं, कह चुके हैं। लेकिन दुर्भाग्य न सुनने वालों ने संज्ञान लिया और न किसी अदालत ने। अदालत भी आखिर किस-किस का संज्ञान ले? यहां तो पूरे कुएं में भांग घुल चुकी है। लेकिन मुझे फिर भी यकीन है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया निर्देश संकीर्ण लोगों की आंखों में पडे जाले को काटने में सुरमे का काम करेगा।
बहुत कम लोगों को पता है कि काजल और सुरमा दो अलग-अलग चीजें है। दोनों आंखों को आंजती हैं। खूबसूरत और निरोगी बनाती है। सुरमा लगी आंखें जिसने देखी होंगी वो उनकी खूबसूरती को समझ सकता है। सुरमा लगी आंखों की खूबसूरती लफ्जों में बयां नहीं की जा सकती। मैंने बचपन में अपने आस-पास रहने वाली तमाम बूढी और जवान महिलाओं को अपनी आंखों में सुरमा आंजते देखा है। सुरमा पडते ही आंखे एकदम सुर्ख हो जाती हैं। कुछ देर के लिए डबडबाती भी हैं, लेकिन अश्कों को सलीके से दुपट्टे से पोंछ भी लिया जाता है और फिर आंखों में जो धार आती है उसके आगे तलवार की धार भी मौथरी पड जाए। गीतकारों ने हालांकि सुरमा लगी आंखों को ‘सुरमयी अंखियां’ कहने की कोशिश की है। लेकिन इसके दो अर्थ निकलते हैं। पहला सुरमा लगी आंखें और दूसरा नशीली आंखें।
कमाल की बात ये है कि हमारी शीर्ष अदालत मौके-बेमौके समाज की आंखों में सुरमा लगाता रहता है। शीर्ष अदालत के पास कानून की सुरमेदानी है। उसमें तरह-तरह का सुरमा होता है। कभी इसका असर होता है और कभी नहीं होता। लेकिन सुरमा का इस्तेमाल न समाज ने बंद किया है और न न्यायपालिका ने। आज यदि देश में बहुत कुछ खूबसूरत बचा है तो इसी सुरमे की वजह से ही, अन्यथा एक पूरी जमात सब कुछ गुड-गोबर करने पर आमादा है।
मुझे ये कहने में कोई हिचक नहीं है कि देश में यदि घर-घर श्री गणेश जी विराजते हैं तो समाज में जगह-जगह गोबर गणेश भी मिल जाते हैं। गणेश पूजा तक विवादों में घिर जाती है। जिस गणेश पूजा में प्रधानमंत्री की मौजूदगी से सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड विवादों में आए थे, उन्हीं चंद्रचूड साहब की अध्यक्षता वाली बेंच ने इलेक्ट्रॉनिक युग में जजों के व्यवहार में बदलाव लाने का आह्वान किया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, इस तरह के विवादों से अदालती कार्रवाई की लाइव स्ट्रीमिंग रोकने की मांग नहीं उठनी चाहिए। अदालत ने कहा, यह सुविधा लोगों के लिए महत्वपूर्ण हो गई है।
मजे कि बात ये है कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उस कहावत को भी चरितार्थ किया है जिसमें कहा जाता है कि कोई अपनी मां को भट्टी नहीं कहता। अदालत ने जस्टिस वेदव्यासाचार्य को लगभग माफ करते हुए कहा है कि सभी पक्षों, जजों, वकीलों, वादियों को यह पता होना चाहिए कि कार्रवाई उन दर्शकों तक पहुंचती है, जो अदालत के कैम्पस से दूर बैठे हैं। इस तरह की टिप्पणियों के व्यापक प्रभाव के बारे में पता होना चाहिए। जजों के रूप में हम इस तथ्य के प्रति सचेत रहें कि प्रत्येक व्यक्ति के शुरुआती या बाद के अनुभवों के आधार पर पूर्वाग्रहों का एक समूह होता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, कर्नाटक हाईकोर्ट के जज जस्टिस श्रीशानंद ने कहा कि 21 सितंबर को सुनवाई के दौरान उनके द्वारा की गई कुछ टिप्पणियों को संदर्भ से हटकर दिखाया गया है। चूंकि जज ने अपनी टिप्पणी को अनजाने में कहा है, इसलिए यह समाज में किसी के लिए भी टारगेटेड नहीं थी।
बहरहाल अब इस मामले का पटाक्षेप हो चुका है इसलिए इसे यहीं छोडते हैं। इस बहाने मैं अपने पाठकों से जरूर कहना चाहता हूं कि जब-जब आंखों में जला-काला उतरता दिखाई दे तब-तब आंखों में काजल या सुरमा जरूर आंजना चाहिए। आंखों में रतौंधी का आना घातक है, यहीं से अंधेरा बढता है और जो बाद में अंधभक्ति में बदल जाता है। जय सियाराम।