– राकेश अचल
धीरे-धीरे बर्फ पिघलने लगती है
धूप देखकर खुद ही गलने लगती है
ये जुबान है, इस जुबान का क्या खाडा
करते-करते बात फिसलने लगती है
कामयाबियां उछल-कूंद करती हैं, पर
नाकामी हथेलियां मलने लगती है
दिन हो चाहे रात, बंधे हैं पहरोंं से
दिन की तरह जिंदगी ढलने लगती है
जिसकी जैसी है, बैसी है, क्या करिये
फितरत अपना रंग बदलने लगती है
सच्चे मन से करके कभी देखिएगा
खुद ही दुआ फूलने- फलने लगती है
बच्चों की मानिंद देखकर गुब्बारे
तबियत अपने आप मचलने लगती है
सीना छोटा हो कि बडा कुछ फर्क नहीं
दाल मूंग की होनी दलने लगती है