गंगा नदी के सफाई अभियान में चंबल के कछुओं का प्रमुख योगदान : डॉ. जैन

– अटेर में चम्बल नदी के किनारे कनकपुरा गांव में विश्व कछुआ दिवस पर कार्यक्रम आयोजित

भिण्ड, 23 मई। वाइल्ड लाइफ एक्टिविस्ट एवं सामाजिक संस्था सुप्रयास के तत्वाधान में अटेर तहसील के निकट चंबल नदी के किनारे बसे कनकपुरा गांव में विश्व कछुआ दिवस पर जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किया गया।
इस अवसर पर सुप्रयास के सचिव डॉ. मनोज जैन ने बताया कि 21 दिसंबर 1989 को गंगा नदी की स्वच्छता कार्यक्रम के तहत वाराणसी में राजघाट से रामनगर किले तक सात किमी क्षेत्र को कछुआ अभयारण्य घोषित किया गया था। जैविक प्रदूषण की जांच करने और गंगा नदी को प्रदूषकों से मुक्त करने के लिए, गंगा एक्शन प्लान के तहत वर्ष साल 1986 में राजीव गांधी ने यह महत्वाकांक्षी परियोजना प्रारंभ की थी। जिसके अंतर्गत भारत सरकार द्वारा एक कछुआ प्रजनन परियोजना के साथ शुरू हुआ था, जिसका प्रजनन केन्द्र सारनाथ में था, जहां कछुओं (शाकाहारी और मांसाहारी दोनों) को एक से डेढ साल तक पाला जाता है और फिर आंशिक रूप से दाह संस्कार और नदी में सीधे फेंके गए शवों जैसे जैव प्रदूषकों को हटाने के लिए गंगा नदी में छोड दिया जाता है।
डॉ. मनोज जैन ने बताया कि चंबल नदी में मुख्य रूप से निलसोनिया गैंगेटिका, लिसेमिस पंक्टाटा, चित्रा इंडिका (नरम कवच वाले कछुए) जो मांसाहारी प्रजातियां हैं और कठोर कवच वाले शाकाहारी कछुए जियोक्लेमिस हैमिल्टन, पंगशुरा टेंटोरिया, बटागुर ढोंगोका पाए जाते हैं। इन कछुओं के अण्डे विशेष रूप से चंबल नदी से प्राप्त किए जाते हैं। तब से आज तक काशी वन्यजीव प्रभाग के कछुआ प्रजनन केंद्र, सारनाथ द्वारा हर साल दो हजार कछुए गंगा नदी में छोडे जाते हैं। अभ्यारण्य के संरक्षित क्षेत्र में मोटर बोट और रेत खनन प्रतिबंधित है, फिर भी इससे परियोजना के लिए कछुए के अण्डे और बच्चे चंबल नदी से जाते हैं।
उन्होंने बताया कि चंबल अभ्यारण्य मीठे पानी के कछुआ के लिए अंतिम मौजूदा व्यवहारिक आवासों में से एक है। पर अवैध रेत खनन के कारण, अत्यधिक मछली पकडने के कारण, चंबल नदी में खीरे तरबूज और खरबूजे की खेती के लिए रेतीले मैदाने के उपयोग के कारण इनके अंडों को खतरा उत्पन्न हो जाता है। इसलिए हमें ऐसे स्थान का सावधानी से प्रयोग करना चाहिए जिससे कछुआ के जीवन की रक्षा हो सके।