प्रेम में वह शक्ति है जो परमात्मा से मिला देती है : शंकराचार्य

अमन आश्रम परा में चल रही श्रीमद् भागवत कथा में हो रहे प्रवचन

भिण्ड, 16 अक्टूबर। परा गांव में स्थित अमन आश्रम में श्रीमद् भागवत ज्ञानयज्ञ के अंतर्गत श्री काशीधर्म पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी नारायणानंद तीर्थ जी महाराज ने कहा कि भोग का नाम प्रेम नहीं होता है। प्रेम में अपने प्रिय को सुख देने की दृष्टि बनी रहती है, ऐसी दृष्टि अगर बनी रहे तो परिवार और समाज में कभी झगड़ा नहीं हो सकता है। प्रेम की पहचान है कि अपने प्रियतम के सुख में ही स्वयं को सुखी मानते हैं। स्वार्थी प्रेम की शास्त्रों में निंदा की गई है। दुनिया की वस्तुओं को महत्व न देकर जो प्रेम को महत्व देता है उसके लिए सब कुछ मिट्टी के समान है। प्रेम सामंजस्य उत्पन्न करता है। प्रभुनाम रूपी धन जिसके पास होता है वही धनवान है। प्रेम में अभिमान नहीं होता है।
शंकराचार्य जी ने कहा ईश्वर की शरण में आना सभी धर्मों का तत्व का एक लक्ष्य है। जीव ने ईश्वर को शरीरधारी जीव बना दिया। ये सामथ्र्य प्रेम में है, प्रेम के समान कोई तत्व नहीं है। प्रेम में वह शक्ति है जो परमात्मा से मिला देती है। जिस प्रकार प्रेम के समान कोई उच्च वस्तु नहीं है उसी प्रकार कामना के बराबर कोई निकृष्ट वस्तु नहीं है। यदि संसार के प्राणी पदार्थों की कामना करेंगे तो निश्चित ही पतन को प्राप्त होंगे। मनुष्य को समस्त दु:ख, कष्ट, संताप, जलन, विक्षेप आदि इस कामना के वशवर्ती होकर ही प्राप्त होते हैं, अन्यथा संसार में कोई दु:ख है ही नहीं। यदि विचारपूर्वक इसका त्याग कर दिया जाए तो आज और अभी से ही ईश्वरानुभूति अर्थात सुख की प्राप्ति हो जाए। कामना के कारण ही राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है, जो जीव के महान शत्रु हैं। मनुष्य को इद्रियों के भोग में स्थित राग और द्वेष के वश में नहीं रहना चाहिए, क्योंकि वे दोनों ही कल्याण मार्ग में विघ्न उत्पन्न करने वाले हैं। पुण्य कर्मजन्य क्रिया से उत्पन्न होता है। बिना कर्म-क्रिया के किसी भी फल की प्राप्ति नहीं होती है। कर्मफल से ही जीव शरीर धारण करता है, कर्म से ही जीव जन्म धारण करता है, कर्म से ही सुख-दु:ख होता है, भय कल्याण सब कर्म से ही मनुष्य को प्राप्त होते हैं। बिना कर्म किए नहीं मिलते, यह विवेचना सिर्फ काम्य कर्म वांछित लोगों के लिए है। धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि मनुष्य शरीर ईश्वर की सर्वोत्तम कृति है। इस मानव तन को पाकर भी यदि हमने इसे विषय वासनाओं में लिप्त होकर व्यर्थ में ही खो दिया तो इसे प्राप्त करने से लाभ ही क्या? इस शरीर को रत्न चिंतामणि कहा जाता है क्योंकि इसी देह द्वारा हम अपने सर्वोच्च लक्ष्य प्रभु साक्षात्कार तक पहुंच सकते हैं ।
उन्होंने कहा कि ऐसे अमूल्य जीवन को सांसारिक प्रपंचों विषय भोगों में विताकर इसे व्यर्थ में ही नहीं खो देना। इसलिए यह परमावश्यक है कि इसके एक एक क्षण का हम सदुपयोग करें। पाप कर्मों से दूर रहें। सद्मार्ग पर चलें और सदैव अपना जीवन पवित्रता पूर्वक बिताएं। हम सभी के जीवन में पवित्र विचारों की आवश्यकता अत्यधिक है। ज्ञात हो कि रविवार को अंतिम दिन प्रवचन सुबह नौ बजे से 11 बजे तक ही होंगे, तत्पश्चात प्रसाद की व्यवस्था सुनिश्चित है। कार्यक्रम से पूर्व पदुका पूजन सविधि संपन्न हुआ, जिसमें ग्रामवासियों सहित क्षेत्रांचल के भक्तजनों ने पूजन कर आशीर्वाद प्राप्त किया।